मंगलवार, 7 जुलाई 2015

योग बनाम महायोग [व्यंग्य ]

योग बनाम महायोग   [व्यंग्य ]
                  योग तेरे कितने अर्थ जिसने जो समझा वहीं माना ,एक योग का मतलब शरीर को स्वथ्य रखने का योग ,दूसरा अर्थ है जोड़ना जो योग और महायोग होता हैl  धन का महायोग  करने वालों  का  इस योग  में पूरा जीवन यूँ  हीं  बीत  जाता है पर यह महायोग समाप्त ही नहीं होता है और  न जाने कब जीवन का अंत हो जाता है lपत्थर से पत्थर का तो योग हो जाता है पर मनुष्य से  मनुष्य का योग  मुश्किल से होता है जिसे केवल स्वार्थ की सीमेंट जोड़ें रखती है l 
         नेताओं का पद और कुर्सी के साथ योग अनंत समय तक चलने वाला  महायोग है जो धन और काले धन के योग का कारक है यह  फेविकोल के जोड़ से कई गुना ज्यादा मजबूत होता है l जोड़ से बड़ा गठजोड़ कर कुर्सी से चिपकना महायोग है l चुनाव के समय हर मतदाता से जुड़ने  का कारण वोटों  का महायोग करना, वरना कौन किसकी चिंता करता है l चुनाव के पहले  बकासन और बाद में  चुप्पासन  करने में ही अपनी भलाई समझता है lजिस देश में डिग्री का कोई महत्व नहीं  है वहां फर्जी डिग्री लेकर डिग्री के योग में लगे हुए है  l कुछ नेता  बकासन के बल पर ही अपनी राष्ट्रीय छवि में निरंतर महायोग करते रहते है lनौटंका आसन के सहारे अपनी  ख्याति  को चार चाँद लगाने की हरदम कोशिश करते है वह  भी उल्टा असर दिखाती है और कार्टून का  महायोग  बन जाता है l 
                 योग जब राजनीति  का महायोग बन जाता है तब सब अपने -अपने योग आसन करने लग जाते है योग जैसी विधा पर प्रश्नकाल आ जाता है जन समान्य तो  अपने योग से मतलब रखता है l फोटो वीडियो  तक सीमित रहने वाले वाले कार्यक्रमों  को  जनता अपना  दुरूपयोग समझने लगी है और स्वयं को  प्रयोग की वस्तु मानने लगी है  

 
    योग सिखाने वालों  ने अपनी संम्पति को  भी योग कराकर महायोग में बदल दिया ,धन का योग  भी एक कला है वरना पराये सुख से कौन सुखी हुआ है कदम -कदम पर  स्वार्थ का कालीन बिछा  है चलने वाले बिना मतलब के एक कदम भी नहीं  चलते है l उच्च वर्गीय को धन के अलावा कोई योग समझ  ही  नहीं  आता है निम्नवर्गीय सुबह  से शाम तक पेट के योग के लिए मेहनत करता है और  मद्यमवर्गीय  दोनों के बीच संतुलन बनाये रखने का योग करता है l न्यूज़ चैनल के योग से आप सब परिचित  है ही सच का झूठ और झूठ का सच करने का महायोग करने में निपुण होते हैl 

        योग तो योग हैं  जीवन में कुछ भी जोड़ने का काम करता है अग्रेजी में यह प्लस है  सरप्लस भी  हो जाता है l सरप्लस का भाव अंधा  बना  देता है  सब मानवीयता   भूलाकर l प्लस और सरप्लस ,योग और महायोग जीवन के अंतिम समय में सब  शून्य हो जाता है और मिट्टी में  मिलकर मिट्टी  से महायोग कर लेता है l योग और महायोग का यही अंतिम सत्य है l इसलिए सच को पहचानो 
योग से नाता जोड़ो और महायोग से वियोग करो। 

 संजय जोशी "सजग " [ व्यंग्यकार ]
मोब. न- 09300115151 
७८ गुलमोहर कालोनी ..
रतलाम [म  .प्र]

गुणवत्ता के लाले [व्यंग्य ]

गुणवत्ता के लाले [व्यंग्य ]
      एक जुमला बहुत चलता है सौ में से नब्बे  बेईमान फिर भी देश महान ऐसे  में गुणवत्ता की बात करना गले नहीं  उतरती है l यहां तो गुणवत्ता इस कदर गुम  हो चुकी है जैसे  गधे के सर से सींग , ढूंढते रह जाओगे हर कोई ईमानदारी और गुणवत्ता पर बड़ी -बड़ी बात कर लें पर मन के अंदर बैठा शैतान कुछ  न कुछ ऐसा कर ही देता है कि  सब गुड़ गोबर हुए बिना नहीं  रहता l खाने पीने की चीज का  हश्र  हम रोज देख रहे है मिलावट रूपी जिन्न  हर वस्तु में समाया  हुआ है जानते हुए भी  चटखारे लेकर खा रहे है और चुस्की लेकर आनंद की अनुभूति कर रहे हैं  मिलावट से इस कदर घुलमिल गए कि  कुछ समझ ही नहीं  आता कि  गुणवत्ता क्या बला है ?असली नकली में फर्क ही समझ नहीं  आता है नकली ही असली लगने लगा है l 
                               गुणवत्ता  विषय  पर एक टीवी चैनल पर बड़ी -बड़ी बात हो रही थी  एक मित्र  आ टपके और यह सब देख  सुनकर  तुनककर कहने लगे कि गुणवत्ता की बड़ी बड़ी बातें  झाड़ी  जा रही है  चैनल  कम से कम अपनी  गुणवत्ता  ही सुधार लें  अच्छी और रचनात्मक , जो समाज के लिए लाभकारी हो ,पर  उसका  प्रतिशत बहुत कम है  जिसे  बड़ा कर  और गुणवत्ता लाने की हिम्मत दिखा सकता है  क्या ? खाली -पिली भेजा चाट रहा है l वे आगे कहने लगे गुणवत्ता की कमी तो सब जगह है अगर राजनीति और नेताओं  में गुणवत्ता आ जाये तो गुणवत्ता का   महत्व और माहौल बढ़ने लगे  l मंत्रियो की  गति और मति से अधिकारी व कंर्मचारी काम करते है तो गुणवत्ता एक खोज का विषय बन जाता है l पार्टियां  भी बिना गुणवत्ता का ध्यान रखे उम्मीदवार  चुन लेती है और जनता उसमें  से l संत्री से लेकर मंत्री तक की गुणवत्ता एक अपवाद है l
                     मिलावट गुणवत्ता की पहली दुश्मन है ,अधिक  लाभ की प्रवृति गुणवत्ता 
को दीमक की तरह चाट रही है ,रिश्वत और कमीशन गुणवत्ता की जड़ो को सुखाने में अपनी अहम भूमिका का निर्वाह  करती है इसके कारण गुणवत्ता का शोर सुनायी  नहीं  देता  एक ईमानदर को ९९ दबोच लेते है और  हम गुणवत्ता का  केवल शाब्दिक  अर्थ ही समझ पाते है और गुणवत्ता का रोना रोकर चुप हो जाते है l 
        सभी क्षेत्रों  में  केवल गुणवत्ता की बात की जाती है खाने -पीने  की चीजों  के साथ दवाई क्षेत्र भी ऐसा है जहां केवल गुणवत्ता का ढोल पीटा  जाता है जब हकीकत से सामना होता है तो अगुणवत्ता  की प्रधानता पाई जाती है अच्छी पैकिंग और विज्ञापन इनकी बिक्री को लाखों  गुना कर देते है और यह सब गुणवत्ता के सर पर बोझ  रखकर प्रायोजित होता हैl 
      शिक्षा ,राजनीति  ,दवाई, अस्पताल, होटल्स और  निर्माण यूनिट में उपयोग में आने वाली  हर चीज अपनी गुणवत्ताविहीन होने का दंश झेलती है l जब खाने -पीने की वस्तुऍ  गुणवत्ता मापदंड पर खरी नहीं  उतरती है तो बाकी चीजों  का तो भगवान  ही मालिक हैl सभी जगह गुणवत्ता के लाले  पड़े है और जवाबदारों  के मुँह पर धन के ताले पड़े है l 
                          उदाहरण स्वरूप व्यापम जैसे घोटाले सुनकर देखकर गुणवत्ता की बात बेमानी  लगती है जनता के स्वास्थ्य  से  रोज कर रहे है  खिलवाड़, बंद कर दिए है गुणवत्ता की किवाड़ [दरवाजे ] गुणवत्ता  क्या होती है ?तुम क्या जानों  देश की  जनता l सब कुछ कर रहे हो गुणवत्ताहीन  अपने पेट को अर्पण आप बीमार और मुनाफाखोर  फलते  फूलते रहेंगे और हम सिर्फ और सिर्फ गुणवत्ता के लाले पर अपना समय जाया करते रहेंगे l 

टेंशन का योग [व्यंग्य ]

 टेंशन का योग [व्यंग्य ]

   मनुष्य प्राणी मात्र  के चारों ओर टेंशन के भूतो का डेरा लगा हुआ है सही  भी  है सभी टेंशन में मग्न रहते   है और एक दूसरे को टेंशन में देखकर सुख की अनुभूति करते है  अगर गलती से अपनी ख़ुशी का  इजहार कर भी दिया तो आपकी ख़ुशी को दमन करने का षड्यंत्र रच दिया जाता है वे अपने ही होते है जो  टेंशन के इतने आदि है कि न खुश रहेगे और न दूसरो को  रहने देगे  यह सब  आदत बन चुकी है दिल है की मानता ही नही ..बिना टेंशन के I

                         अपुन तो सामजिक प्राणी होने के नाते अपना फर्ज अदा कर मिलने वालो के हाल चाल   यदा-कदा पूछ लेते है हमेशा  की तरह यही सुनने को मिलता है बहुत टेंशन में हूँ क्या करे ,यह  सब राजनीतिक, सामजिक ,राष्ट्रीय .,अंतराष्ट्रीय समस्या की चिंता करने की मानसिकता जो बन गई  है  I

                            टेशन आजकल चर्चा का मुख्य विषय बनता जा रहा है इसके बिना
न कोई चर्चा शुरू होती है न खत्म I यह एक राष्ट्रीय समस्या बन गई है इसकी की न कोई सीमा ,न कोई आकार  बस टेंशन तो टेंशन है I कंप्यूटर , इंटरनेट .और मोबाईल के विस्तार ने जहाँ दुनिया को छोटा किया वहीं टेंशन को  बहुत  बड़ा कर दिया I
               हमारी कालोनी में तथाकथित बुद्दिजीवियो की भरमार है यहाँ सब टेंशन लेने और टेंशन देने  में पारंगत  है ,एक महाशय से मैंने पूछ लिया  की भाई सा क्या हाल चाल है वह तुनककर बोले बहुत टेंशन है और क्या होगा  कलियुग में , मेने सहज होकर कह कि क्यों टेंशन लेते हो क्या होगा इससे ,अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दीजिये इस पर गम्भीर  होकर बोले की रोज यही सोच कर सोता हूँ कि कल से टेंशन बिलकुल  नही पालूंगा पर वह सुनहरा कल कब आएगा पता नही ..सुबह उठते ही कमबख्त न्यूज़ चेनल और अखबार फिर टेंशन में धकेल देते है ..उनका भी क्या दोष है देश में हत्या, अपहरण ,बलात्कार , भ्रष्टाचार,रिश्वत , दुर्घटना ,पेट्रोल व डीजल के भाव .महगाई,रूपये व शेयर का गिरना और आजकल यौन उत्पीडन के बढ़ते मामले जीवन को सुकून नही टेंशन  ही देते है समाज में उच्च स्थान रखने वाले ..नेता .संत और पत्रकार लोग ऐसा करेंगे तो आम जन  का टेंशन बढना लाजमी है I हमारे शरीर में कोई सेफ्टी वाल नही है ..जो ..प्रेशर कुकर की तरह ...ज्यादा प्रेशर होने पर अपना काम करता है और दुर्घटना नही होती . मनुष्य नाम के प्राणी  तो  इश्वर को प्यारे हो जाते है
 
    पहले के जमाने में बीमार होने के बाद अस्पताल जाया करते थे आजकल बीमारी के पहले ही प्री.मेडिकल चेकअप..कराना पड़ता है  अब रिवाज बन चुका है है जो न कराये वह   आधुनिक नही कहलाता ..यह सब टेंशन का कमाल है आधुनिक जीवन शैली में हम
चारो तरफ से मशीनों से घिरे है अपने हाथ -पाँव हिलना भी बंद होगये है और शरीर जाम सा हो गया है   जिसका आलम तनाव  Iफास्ट फ़ूड खाकर जीरो फिगर के लिए संघर्ष करना हमारी प्रवृति और इससे निवृति टेंशन देता  है
           आजकल राजनीति में कुछ ज्यदा ही टेंशन चल रहे है ...कोई "आप" की जीत से 
विचलित है तो कोई काग्रेस की हार से तो कोई दिल्ली में सरकार न बनने से मिडिया वाले 
का बस चलता तो ..शपथ  ..करा चुके होते क्या करे बेचारे ..चीख -चीख कर ही खुश है और कर भी क्या सकते है आप ने इतना टेंशन दे दिया है अच्छे -अच्छो की  नींद व होश उड़ा रखे है राजनीति के शुद्धिकरण का  प्रयास जारी   है कितना सफल होगा यह तो वक्त बतायेगा 
             मानसिक शांति हेतु .ध्यान  योंग ,प्राणायम के कई बिजनेस चल रहे है 
फिर भी ढाक के तीन पात Iटेंशन का यह भूत एक नयी  भावनात्मक  बीमारी को जन्म दिया वह  है  'मूड"खराब है  कोई टेंशन में है इसलिए मूड खराब है और कुछ मूड खराब है इसलिए टेंशन में है  यह माजरा रिसर्च  का  हो गया है और जिनको ये दोनों मे से कुछ भी  महसूस नही होता लोग उसे आगरा की याद दिला देते है तुम उसके लायक हो  आपको कुछ भी नही होता..याने मानसिक समस्या से ग्रसित लगते हो और उसे भी टेंशन देकर अपना पुनीत कर्तव्य करने से बाज नही आते टेशन युक्त समाज के निर्माण में अपनी अहम  भूमिका का निर्वाह करते है ऐसे  समाजिक प्राणी बहुतायत में पाये जाते है 
उनका एक ही सपना सब पालो टेंशन अपना ..बिना टेंशन के जीने  में कोई जीना है 


मानवता पर टेंशन या टेंशन पर मानवत हावी है I टेंशन .कहीं भी .कभी भी किसे भी अपनी गिरफ्त में ले लेता  है और भूत सवार हो जाता है Iहमारे जीवन रोज रोज नये -नये 
टेशन का योग हो रहा है l 

सियासत का बढ़ता डिग्री सेल्सियस [व्यंग्य ]

सियासत का बढ़ता डिग्री सेल्सियस [व्यंग्य ]
           
      डिग्री -डिग्री के शोर  में सियासत के  तापमान को कई डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया l सियासत में डिग्री का सामान्यतया कोई ज्यादा महत्व नहीं  रहता  है और न  ही कोई जरूरत महसूस की गई  यह व्यथा  डिग्री धारी  अधिकारी की है कि  पंच से लेकर देश के सबसे बड़े पद के लिए आवश्यक शिक्षा और उम्र का  कोई मापदंड नहीं  है और न रहेगा  क्योंकि  बगैर डिग्री,  नेतृत्व देने वाले नेताओं  की एक परम्परा है कोई  इसे कैसे तोड़  सकता है ? सरकार चलाने वाले पर्दे के पीछे  अपना  काम करने वाले  डिग्री धारी अधिकारी कड़वा घूँट पी कर अपनी डिग्री को कोसते है कि  हमसे  अच्छे तो ये है पर इनके  बीच काम करना  हमारी  मजबूरी है हो सकता है कि  हमारे पूर्व जन्म  के  पाप  का नतीजा हो  पर सहना तो पड़ता है  भारी मन से और  हमें लगता  भी है कि  कुछ नहीं  होने वाला है l  पुराने लोग हमेशा यह उक्ति कहा करते थे कि  ,पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब ,खेलोगे  कूदोगे बनोगे खराब ,वर्तमान के संदर्भ में -पढ़ोगे लिखोगे बनोगे खराब ,खेलोगे  कूदोगे बनोगे नवाब l ,क्रिकेट में तो यह सच साबित हो रहा है बिना डिग्री के ही कहां  से कहां   पहुँच गये और हीरो  बन गए l सियासत में भी यही हाल है डिग्री की कोई वेल्यू नहीं  है फिर भी सियासत का डिग्री सेल्सियस  डिग्री के कारण चरम पर  है सियासत  में रोज -रोज के तापमान का डिग्री  सेल्सियस उतार चढ़ाव  के नित नए आंकड़े छूता है l 
             एक युवा नेता ने कहा कि  थ्योरी और प्रेक्टिकल में भारी  अंतर को समझकर  कबीर दास जी सब डिग्री वालों  को  पहले ही निपटा गए और कह गए पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पंडित हुआ न कोय इसका  सीधा मतलब है कि कितना भी  पढ़ लो सर्वज्ञ नही हो सकते है l और कहने लगे डिग्री तो आपके ज्ञान को सीमित  कर एक ही विषय का विशेषज्ञ  बनाती है हमारे देश के  कर्णधार इस बात को बखूबी  समझते है जब तो डिग्री के पचड़े  में न पड़कर अपने आप को हर विषय का जानकार  याने की   सर्वज्ञ समझ कर किसी भी विभाग का  जिम्मा ख़ुशी -ख़ुशी लेकर देश की जनता की सेवा करना  अपना कर्तव्य   समझते है मैंने  कहा सही फ़रमाया जनता को एक प्रयोगशाला  समझ कर प्रयोगधर्मी हो गए ,अच्छा हुआ तो हमने  किया और बुरा हुआ तो देश की जनता जागरूक नहीं  है l देश में सियासत की डिग्री सेल्सियस को और उच्चतम करने में हमारा दृश्य मिडिया भी कोई मौका नही छोड़ता  है पर जब डिग्री पर ही डिग्री   सेल्सियस बढ़ने लग जाय तो ऐसे में  ए.सी में भी दिमाग काम करना बंद कर देते है l जिनके पास डिग्री नहीं  है वे भी दुखी और जिनके के पास है वे भी दुखी l किस्मत अपनी -अपनी घोड़ो को घांस भी नसीब में नही और गधे गुलाब  जामुन ही नहीं  च्वयनप्राश खा रहे है l कुछ बनियान में इतनी ताकत है कि पहनने से लक बदल जाता है पर यहां तो सरकार बदलने पर भी लक नहीं  बदलता है हमारी विडंबना है l डिग्री कुछ मेहनत व ज्ञान से तो  कुछ जुगाड़ से प्राप्त करते है जब से व्यापम घोटाला बहुत चर्चित हो गया है उसके बाद से बेचारे डिग्री वाले को बुरी नजर से देखते है कि  कहीं  जुगाड़ की तो नहीं  है l डिग्रियों की दुर्दशा यह है कि  डिग्री सही रोजगार देने में बुरी तरह विफल हैl नेता और अभिनेता  दोनों का ही डिग्री से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं  ,जो चल गया सो चल गया l 

                    कब्र में पांव लटकाये एक नेताजी कहने लगे कि  राजनीति में जितना सोशल इंजीनियरिंग का जानकार होगा उतना ही सफल होगा इसकी कोई डिग्री नहीं है फिर अपने आपको डॉ समझने  वाले भी  कम नही है ,सियासत तो तजुर्बा मांगती है और डिग्री  केवल शिक्षा  देती है तजुर्बा नहीं   l तजुर्बे वाला चलता नही दौड़ता है l मैंने कहा कि  कब तक दौड़ेगा और डिग्री धारी कब तक   रेंगता रहेगा l उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और चर्चा का अंत हुआ l

संजय जोशी "सजग " [ व्यंग्यकार ]
मोब. न- 09300115151 
७८ गुलमोहर कालोनी ..
रतलाम [म  .प्र]

दो मिनिट [व्यंग्य ]

दो मिनिट [व्यंग्य ]
  हम पल -पल का महत्व जानते हैं  तभी तो दो मिनिट एक राष्ट्रीय समयावधि है इसमें कई महत्वपूर्ण काम संपन्न  करना हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक विशेषता है हम  दो मिनिट में  मृतात्मा के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री  करने की कूबत रखते है और कुछ तो शोक सभा में बोलने के इतने शौकीन होते है की दो मिनिट की बात तो इतनी लम्बी कर देते है कि  उन्हें वह दो मिनिट ही लगती है यह समय ऐसा  होता है  कि   पता ही नही चलता और शोक सभा शौक सभा लगने लगती है l आत्मा भी इतना लम्बी तारीफ सुनकर सोचने लगती होगी कि ये  पहली बार मेरी अनुपस्थिति  में तारीफ के पुल क्यों बांध रहा है?.बस हो गए तेरे दो मिनिट l 
            जब से मोबाइल क्या आया कि  दो मिनिट की बीमारी  इस कदर  बड़ गई कि  हर कोई इसकी गिरफ्त में आ गया है  तब से  मोबाइल  पर हर कोई यही कहता है की बस दो मिनिट में आया और शायद ही कभी कोई आया हो l दो मिनिट क्या है समय है या उस समय का सहारा लेकर उस वक्त को टाला जाता है दो मिनिट याने की टालू समय l महिलाओं  को मेकअप  में सिर्फ दो मिनिट ही तो लगते है ?बार बार कहती हैं बस  दो मिनिट और l 
            उलझी -पुलझी   सी २ मिनिट में तैयार होने का दावा  करने वाली इस मैगी  ने  तीन-तीन सेलिब्रेटी को उलझा दिया और देश के करोड़ों  लोगों   को अपने स्वाद का दीवाना बनाकर दो  मिनिट पर इठलाने वाली कई आलसी और पेटभरने के शौकीनों की कमजोरी बन गई वे बेचारे इसे तो  दो मिनिट में कैसे भूल सकते है l जबसे बेन की खबर क्या आई पचपन वाले जैसे उनकी कोई बड़ी मुराद पूरी हो गई और थैंक गॉड  कहने में नही चूके  होंगे और  अपने से छोटो को मन मन चिढ़ाने  लगे--अब क्या करोगे ?कई माँ ये कहने लगी खाना बनाना सीख  लो तुम्हे मैगी  पर बहुत विश्वास था ना कि  इसके  सहारे काम चल जायेगा  l 
               एक बुजर्ग अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहने लगे कि  लोकोक्ति  सही  है   जल्दी का काम शैतान का l यह सब अनुभवों के आधार पर ही बनती है मुझे तो इसके विज्ञापन देख कर इसमें छुपी शैतानी हमेशा दिखती थी l पर विज्ञापन की ताकत  सेलिब्रिटी और बड़ा देते है और हम जैसे  की बात कौन सुने l मैगी  तूने कितने  प्रेमियों  को बना दिया  रोगी l 
                         मैगी  का धीरे -धीरे दिल जीतना  और दो   मिनिट  में कई दिलो को तोड़ना 
एक अभूतपूर्व घटना है जिससे कइयों  के चेहरे मुरझा गए और  बड़े बुजुर्गों  का इसके प्रति विरोधी रवैये  का चित्र सुखद लगने लगा।,उनको लगने लगा कि  सही की जीत तो आज नही तो कल होगी ही l उन्हें अपने   अनुभव   से   बाल सफेद और कम होने  पर फक्र   होने लगा l 
                      दो मिनिट का अपना वजूद है मैगी  रहे या न रहे पर दो मिनिट तो 
हमेशा  ऐसा ही चलता रहेगा l पर यह  कटु सत्य है की इंसान को मिनिट मे अपनी  श्रद्धांजलि देकर भूल जाते है पर इस दो मिनिट की मैगी पर  बैन लगता है तो दो मिनिट में काम नही चलेगा क्योकि इसकी दीवानगी जो है लोगो में l 
                  
    

सपने सुहाने सियासत के.… [व्यंग्य ]

  सपने सुहाने सियासत के.… [व्यंग्य ]


              सपने देखना मनुष्य को प्रकृति का वरदान है और सपने दिखाना सियासत की एक प्रवृति है l मनुष्य सपने गहन निद्रा में देखता है और सियासत में यह  जागृत अवस्था में दिखाये  जाते हैं  l कुछ लोग दिन मे भी मुंगेरी लाल की तरह  हसीन सपने देखने में पारंगत होते है l चुनाव  लिए सपने दिखाने की कला में जो जितना माहिर होता है वह उतना ही जनता को सम्मोहित कर अपने पक्ष में कर लेता है वह उलटी गंगा बहाने  का सपना दिखाता है तो वह भी भोलीभाली जनता को सच लगता है l  सपने दिखाना सियासत का मूल मंत्र है यह सियासत की  लाइलाज बीमारी है l जब हम लोग सपनों  की हकीकत से रूबरू होते है तब  खिसियानी बिल्ली की तरह खम्बा नों चने के  आलावा कर भी क्या सकते है l  सपने देखने के आदी  जो बन चुके है कुछ नहीं  होना है यह जानते हुए भी सपने देखते है , सुहाने सपने कब हुए अपने  ?
            हमारा  मीडिया अपनी निष्पक्ष छवि को कायम रखने में गच्चा खा जाता है या ऐसा अहसास कराता  है क्योंकि  वह भी सच से दूरी बनाकर सपनों  को मसालेदार और चटखारेदार बनाकर परोसने का काम करता है जिससे जन -जन सब भूल कर उन सपनों  में खो जाता है और हसीन सपने देखने लगता है l
                  सपने दिखाकर चुनाव जीतने के बाद शुरू हो जाता है गिरगिट की तरह रंग बदलने का दौर, अब तो गिरगिट भी शर्माने लगे है और चुल्लू भर पानी ढूंढ रहे होंगे l सपने पूरे  न करने की स्थिति में घड़ियाली आंसुओं  का सहारा लेकर इमोशनल ब्लैकमेल करना शुरू कर देते है l जो सपने दिखाए थे वे बाद में जुमले बन कर इठलाते है और बड़ी मासूमियत से कह देते है ये सपने तो चुनाव  जीतने के लिए दिखाये  थे l 
             सियासत में सपने ठगेति करने  की अदा है और बाद में  अदा से ठेंगा दिखा दिया जाता है और अरमानों  के सपनों  को  कुचल दिया जाता है प्रथम वर्ष हो चुका है अब सवाल यह उठता है की कितने सपनों  को अमलीजामा पहनाया या सपनों का चीरहरण जारी है ,जनता और सरकार में तू  डाल -डाल तो मैं  पात -पात शुरू हो जाता है l कहते है न पूत के पांव पालने में दिख जाया करते है वैसे आकलन कर यह 
समझा जा सकता है कि  सियासती सपने कितने सुहाने होंगे ?
                 अच्छे दिन ,बुलेट ट्रेन ,स्मार्ट सिटी ,कालाधन , धारा ३७०, इन्कमटैक्स  में कमी  कुछ इन  प्रमुख सपनों पर हर किसी को भरोसा  लग रहा था पर अब यह भरोसा हाइड्रोजन गैस के गुब्बारे  की तरह उठता नजर आ रहा है l सपनों  का लोकतंत्र हो गया है नेताओं  द्वारा जनता के लिये  झूठे सपने दिखाकर हम लोकतंत्र को मजबूत किये है और करते रहेंगे सपने देखना आदत जो बन गई है

               सब दल  स्वहित की बात करेंगे और उनके  सपनों  में जनहित के  मुद्दे  शोर में यूँ ही दब जायेंगे  कि  पता ही  नहीं चलेगा सपने किस करवट बैठेंगे। राजनीतिक  पराधीनता के चलते   यह सब झेलना है हम सब बेबस  है l तुलसी दास जी ने सही ही कहा  है …

              पराधीन सपनेहूँ सुख नाही l
              सोच -विचार देखि मन माहि l l    
        

मुआवजा या मजाक [व्यंग्य ]

मुआवजा या मजाक 
                       [व्यंग्य ]

     बांकेलाल जी आज सुबह अख़बार की कतरन दिखा कर कहने लगे कि  प्राकृतिक आपदा के कारण फसल बर्बादी पर मिलने वाले  मुआवजे की राशि पर   ऊंट के मुँह में जीरा की लोकोक्ति  सटीक बैठती है l  सैकड़ा और दहाई से भी कम मुआवजे का चेक जब किसान के हाथ में जाता है तो उसका सर शर्म से झुक जाता है कि  भिखारी से भी बदतर बना दिया  है सरकार ने l भिखारी को सिक्के मिलते है और किसान को चेक और किसान को तो उसकी राशि भी  कुछ अंतराल के बाद ही मिलती है वे रुआंसे  होकर बोले ऐसा मुआवजा बांटने से तो अच्छा है, नहीं  बांटना l 
                          बांकेलाल जी कहने लगे पहले सर्वे किया  सर्वे की रिपोर्ट भी सरकार अपने हिसाब से बनवा लेती है जिसमें कई बार विरोधाभास की स्थिति  बनती रहती हैं करोड़ों  का मुआवजा बांटने की खबर जब ब्रेकिंग न्यूज़ बनती है तो लगता है की सरकार किसानों  के प्रति  चिंतित  तो है l मुआवजा बांटने की लिए भी बड़े -बड़े आयोजन कर लिये जाते है और उसमें  होने वाले खर्च भी इसी बजट में शामिल होता  है नेता और मंत्री जब मुआवजे  के चेक बांटते है तो उनके चेहरे पर विजयी मुस्कान  रहती है और जो ग्रहण करता है उसकी उदासी और बड़ जाती है क्योंकि जो मजा इंतजार में रहता है वह  मुआवजा का चेक मिलते ही काफूर हो जाता है l 
                             कोई भी प्राकृतिक आपदा हो उसके बाद मुआवजा घोषित करना सभी सरकारों की राजनीतिक ,सामजिक मजबूरी हो जाती है राशि जब घोषित होती है बहुत बड़ी लगती है और जब मिलती है  न के बराबर लगती है l बांकेलाल जी कहने लगे शर्म तो तब आती है जब किसान बोलता  है  इतने बड़े ओले गिरे 
तो सरकारी नुमाइंदे ओलो के सबूत मांगते है l बेचारा कहां से लाये ओलो का सबूत 
हास्यास्पद और  दुखद लगता है कि  सर्वे है की  मजाक ?मुआवजा शब्द कटे पर नमक छिड़कने जैसा लगने लगा है या यूँ  कहे कि  दुःखी को  और दुःखी करने वाला सरकारी शब्द l 
               मैंने बीच में बांकेलाल जी को टोंकते  हुए कहा कि लगातार बढ़ती प्रकृतिक आपदा ने जंहा किसानों  को मौत के मुंह  में धकेल दिया है वहीं  किसानों  के नाम पर हर कोई राजनीति  में लगा है सब अपनी -अपनी रोटी सेंकने में मस्त है और किसान रोटी के लिए मोहताज है l अपन तो केवल सुनने से  ही थर्रा जाते है जिसके ऊपर यह सब बीतती है वह ही जानता हैं ,घायल की गति घायल जाने l जिन्हें  न खेत और खलियान से वास्ता वे ही खेलते  ऐसा खेल सस्ता l कब  तक  ये मुआवजा यूँ  करता रहेगा शर्मसार ? 
                          

मिस्ड कॉल का क्रेज [व्यंग्य ]

        मिस्ड कॉल  का क्रेज [व्यंग्य ]
                       
        विक्रम बेताल के बेताल  की तरह ही ये बांकेलाल जी  भी आये दिन  कुछ न कुछ नया सुनाने को उतावले रहते है आज मिस्ड कॉल की लीला पर अपनी कथा शुरू कर दी कि आधुनिक भारत का नव निर्माण हो रहा है मिस्ड कॉल  से  ही पार्टी की सदस्यता  मिल जाती है तो स्वाभाविक है  लोगों  में क्रेज होने लगा है इसका l मिस्ड कॉल  देने वाले यूँ भी बहुत थे पर इससे कुछ और को भी संपट पड़ी और मिस्ड कॉल  मारने वालों  की संख्या में अचानक वृद्धि होने से टेलीकॉम कम्पनियां  हरकत में आ गयी वे सोचने लगी कि  अब समय आ गया है कि मिस्ड कॉल  करने का भी चार्ज वसूला जाये क्योंकि मिस्ड कॉल से भी लाइन तो बिज़ी हो  ही जाती है l जिसके पास मिस्ड कॉल  जाती है वह बेचारा पेशोपेश में रहता है की क्या करूं कॉल करूँ या मिस्ड कॉल अंततः  मिस्ड कॉल का क्रेज होने कारण  मिस्ड कॉल  कर देता है और  अपने कर्तव्य की  इतिश्री कर लेता है l हमारे देश में शाणो  की कमी नहीं  है सामने वाला फिर मिस्ड कॉल  का जवाब मिस्ड कॉल से  देता है और यह कर्म चलता रहता है क्योंकि हमें  मिस्ड कॉल  का क्रेज है इसमें हमारा क्या जाता  है 
                                 मिस्ड कॉल  की परम्परा तो पुरानी है जब प्रेमी -प्रेमिका को बात करनी होती है तो मिसकॉल  करके सिग्नल दिया जाता था पर जबसे वाट्सएप आया तो मिस्ड कॉल  का फैशन कम हुआ ही था कि राजनीति  ने फिर बड़ा दिया पहले 
मिस्ड कॉल देने वाले को शाणा  और कंजूस, मक्खीचूस माना  जाता था लेकिन जब राष्ट्रीय पार्टियां  मिस्ड कॉल  से सदस्य बना सकती है तो हम भी अपने वालों  को मिस्ड कॉल  देकर ब्रह्माण्ड में होने की सूचना देकर  बेफ़िक्र हो जाते है ,जिसको काम होगा  वो तो कॉल कर ही लेगा l
                 बांकेलाल जी कहने लगे कि  मिस्ड कॉल की महिमा अपरम्पार है ऑफिस 
से छुट्टी चाहिए तो बॉस को मिस्ड कॉल  देकर बरी हो जाओ बाद में माथे आये  तो कह  देते है कि कॉल  किया था पर आपने उठाया नहीं  और फिर आप कवरेज से बाहर  हो गए बॉस के पास सर फोड़ने के अलावा चारा ही क्या बचता है मिस्ड कॉल का मारा बेचारा l 
       वे कहने लगे कि  मिस्ड कॉल  का शौक  तो फोकट में ही पूरा हो जाता है 
और लोगों  को लगता है कि  स्मार्ट फोन यूजर है समाज में  झांकी  दिखती है सो अलग बेलेंस  की कमी को बड़ी  ही शिद्धत से बताते है तो  सामने वाला भी रहम कर छोड़ देता है और मिस्ड कॉल का चलन बढ़ता ही जा रहा है जब से राजनीति  ने मिस्डकॉल को हवा दी तब से इसके चाहने वाले बड़ गए और मिस्ड  एक कोड बनकर उभर  रहा है और ऐसे में बेचारी टेलिकॉम कम्पनियों के लिये इस मिस्ड कॉल  की बीमारी से निपटना मुश्किल हो जाएगा और कहीं  मिस्ड कॉल  को कॉल  की तरह  बना दिया  तो मिस्ड कॉल   प्रेमियों के अरमान आँसुओ में भीग जायेंगे  l 

कवि सम्मेलन के आयोजक की व्यथा [व्यंग्य ]

       कवि सम्मेलन के आयोजक की व्यथा [व्यंग्य ]
             
आज के समय में कवि सम्मेलन का आयोजन एक चुनौती सा लगने लगा है और ये हर किसी के बस की बात भी नहीं  पर बांकेलाल  जी एक संस्था के सक्रिय सदस्य है और   उनका रुतबा भी है अत; उन्हें एक कवि सम्मेलन के आयोजन समिति का प्रमुख बनाया गया और उन्हें जल्दी से जल्दी एक कवि सम्मेलन करवाना था l इसके लिए उन्हें क्या क्या पापड़ बेलने पड़े उनकी व्यथा और कथा उन्होंने कुछ यूँ बया की ----
               बांकेलाल जी ने इस हेतु विचार विमर्श के लिये एक बैठक बुलाकर सदस्यों  की राय जानी और तारीख मुकर्रर  की, उसके बाद कौन -कौन से कवि  और कवयित्री को बुलाया जाये , राय जानकर उनकी मांग और पूर्ति में सामंजस्य बैठाने के लिए एक सूत्र धार की खोज करनी पड़ी ये सूत्रधार भी  अलग टाइप के मानव होते है ये आयोजक की  हर बात को सिरे से ख़ारिज करने की कला में महारथी होता है सूत्रधार ने अपनी हेकड़ी बताने के लिए अपनी गैंग के कई सदस्यों को फोन लगा कर स्पीकर ऑन करके सुनाये  -पहले कवि ने पूछा टीम में कौन -कौन  है,कवयित्री   कौन  है, सूत्रधार जी बोले टीम से आपको क्या ?तो  वे महाशय टीम और कवयित्री के नाम पर अड़ गए सूत्रधार जी महाखङूस थे उनको कह दिया कि  टीम और  कवयित्री तय हो जाने के बाद बात करते है ,दूसरे कवि को फोन लगाया तो वह कहने लगे कि  तारीख बताइये और लिफाफा  कितने का , जब उनको बताया तो वे एक दम पलटी मारते हुए कहने लगे कि  डायरी में देख कर बताता हूँ वैसे तो मई के पूरे  महीने  ही बुक हूँ फिर भी देखता हूँ सूत्रधार  जी कहने लगे भले ही घर पर रहेंगे नखरे  ऐसे करेंगे कि  इनके बिना कवि सम्मेलन ही नहीं  हो पायेगा l तीसरे कवि को फोन लगाया तो कहने लगा कि  एक प्रोग्राम  में हूँ बाद में फोन लगाता हूँ --और वह नहीं  लगाता है अब सूत्रधार जी कहने लगे ऐसे  भाव खाते  है और  यूँ आये दिन गरज करते है कि  कभी हमें  भी बुला लिया करो l ऐसे कई कवि  को फोन लगाये सबकी अपनी समस्या है कोई हॉल तो कोई चौराहे  के कवि सम्मेलन में नहीं  जाता है एक बोला जल्दी फ्री कर देना  दूसरी जगह  जाना है lहरेक कवि का नखरे का अपना अलग   -अलग  अंदाज , इनके नखरे इतने की आयोजक भी परेशान हो जाते है l 
     जब कवियों से बात करो कि सिर्फ कवितायें होंगी अश्लील और द्विअर्थी संवादों  ,और कवयित्री से उलुल जुलूल हरकत नहीं  चलेगी तो इस बात पर कुछ की बोलती ही बंद हो जाती है क्योंकि  अधिकतर तथाकथित कवि चुटकलेबाज तो है वे कहते है कि  जनता यहीं  सब कुछ चाहती है बांकेलालजी  कहने लगे  हमारे क्लब के सदस्य और आमंत्रित श्रोता घटिया स्तर नहीं चाहते  इसका ध्यान भी रखना आवश्यक है l
               अब सूत्रधार ने दो चार कवयित्रियों को अलग फोन लगाया पर ये भी किसी से कम नहीं वो कवि आयेगा तो मैं  आऊंगी नहीं  तो नहीं   5स्टार होटल में  डबलबेड  का रूम ,मेकअप किट ,२ लोगों  के हवाई / २ फर्स्ट  ac के टिकिट पति महोदय भी साथ आयेंगे दूर का मामला है न l सूत्रधार जी कहने   लगे कि  आपका बजट तो कम है इसमें ये सब कैसे मैनेज होगा इसे दुगना करना होगा /सभी कवियों को भी अच्छी होटल में ठहराना होगा ,कुछ तो भैरव का प्रसाद याने कि  मदिरा लिए  होटल से निकलते ही नहीं  है वो भी व्यवस्था करनी होगी l आपके शहर के  प्रसिद्द खाने /
साड़ी /शो पीस जो भी हो सभी आमंत्रित कवियों को देना होगा l 
                    बांकेलाल जी के हाथ पैर फूल रहे थे आँखे लाल हो रही थी मानो आग बबूला हो रहे हो कभी गुस्से से सूत्रधार को देखते तो कभी आसमान की तरफ l  सूत्र धार  से कहने लगे कि  आपने सही कोशिश नहीं  की नहीं  तो सब कुछ आसानी से हो जाता l वे कहने लगे इन कवियों और कवयित्रियों के नाज नखरे मैं भी खूब  जानता हूँ  तभी  तो आप को भी सब सुनाया ताकि आप  भी जान सको की इस क्षेत्र में भी कवियों   की अपनी गैंग है l 
             बांकेलाल जी  परेशान  होकर कहने लगे कि  इतना आसान नहीं  है   मुझे  फिर  से मीटिंग करना पड़ेगी और इनके नखरों के चलते प्लान बदलना भी पड़ 
सकता है lवे आवेशित होकर कहने लगे सुनाते तो वो ही घिसी पिटी और नखरे 
झेलो जो अलग l नाम क्या हो गये सब इंसानियत और आयोजक की मजबूरियां 
भूल जाते है सिर्फ और सिर्फ अपना स्वार्थ ध्यान रखते है l यूँ भी कवि सम्मेलन कम होते जा रहे है अगर ऐसा ही चलता रहा तो यह विलुप्त हो जायेंगे l 

चमचों का डिस्पोजल होना--- [व्यंग्य ]



                        चमचों  का डिस्पोजल होना--- [व्यंग्य ]
            चमचों  का है जहान क्योंकि चमचे ही महान है चमचागिरी  एक कला है जिसे इसका ज्ञान नहीं  वह अज्ञानी कहलाता है चमचों  पर केवल चमची ही भारी  रह सकती है जहां चमची होती है वहां चमचे अपने आप को उपेक्षित  महसूस करते है l चमचागिरी एक मनोविज्ञान है और जो मनोविज्ञान समझता है वह इसमें पारंगत होता है चमचाचन्द हमेशा  से ही कर्मचन्द और ज्ञानचंद का पक्का दुश्मन रहा है l जैसे चमचा कढ़ाही  का पूरा माल  हिलाता है वैसे ही चमचे  सब जगह  सब को हिलाने का काम करते है l चमचे वहीं  कहते है जो उनके आका नहीं  कह सकते है चमचों  के बयान पर चुप्पी साधना यह दर्शाता है कि  मौन ही  स्वीकृति  का लक्षण है l अनादि काल से आज तक चमचे ही मजे में रहे है जिसने नहीं  की चमचागिरी उसे दुगना काम करने के बाद भी  कभी दो शब्द तारीफ के सुनने को नहीं  मिलते और चमचे बिना काम के ही अपने से ऊपर  वाले की निगाह में श्रेष्ट ही नहीं  सर्वश्रेष्ठ  कहलाते है l चमचे अपने आप को पावरफुल समझते है पर वे वो  फूल होते है जिनके कंधे पर ही रखकर बंदूक चलाई जाती है l 
     चमचों  से सावधान ब्रह्म वाक्य केवल ट्रकों  के बेक साइड पर पाया जाता है कोई भी चमचा अपने आप को चमचा कहलाना पसंद नही करता है हालांकि चमचा दूसरों को दुखी देख कर मन ही मन खुश होता है  l कहते है कि 
सबके दिन फिरते है ,सो लुहार की  तो एक सुनार कीl  चमचें  अपनी पॉलिसी बदलते देर नहीं  करते है चमचे नाम का प्राणी हर परिस्थिति  को भूनने भुनाने की कूबत रखता है सब काम  ऑन डयूटी करने में सिद्ध हस्त होता है। साब के  यहां शादी  के कार्ड बाटने से लेकर बिदाई तक के हर कार्य में अग्रणी होता है l  घटिया से घटिया काम भी बड़ी शिद्धत से कर साब का एकमेव चमचा होने का दम  भरता है उसमे न लाज होती हैं न शर्म सिर्फ स्वार्थ साधने का काम करता है lचमचों  का कोई  सिद्धांत नहीं  होता है l 
             चमचा गिरी याने। …गीरि हुई चमचा गिरी से कोई क्षेत्र अछूता नहीं  है हर नेता के अपने चमचे होते है बिना चमचों  के नेता अपने आप को अकेला महसूस करता है चमचों  से झूठी तारीफ  सुने बिना रहने से वह अवसाद में चले जाता है इनको भी चमचा बिन सब सून लगने लगता है l  चमचों  का उपयोग वहीं कर सकता है जो इसमें पारंगत हो चमचा बनाना और बनना दोनों ही एक आर्ट है l 
                     आज चमचे हर जगह बहुतायत में पाये जाते है चमचे दलों के दलदल में ,आफिसों में संगठनो में अपनी गहरी  पैठ रखते है ,चमचे अपनी कारगुजारियों और चालाकी के बल पर लाभ का मौका हथिया ही लेते है l जिसकी चमचा गिरी करते है वह अच्छी तरह जानता है कि इसे खुश कर  ,और छोटे -छोटे लाभ देकर दूसरों  के समाने टुच्ची हरकत कर इसे अच्छा बताने का प्रयास ही चमचा गिरी की जान है l 
क्योंकि चमचा एक सिंद्धांत विहीन  प्राणी होता है जो सिर्फ अपने लाभ के लिए तो पापड़ बेलता है चमचा गिरी के l कभी -कभी  लगता है चमचे वर्तमान युग में अहम भूमिका निभा रहे है वो वहीं  काम करते है जो उनके आका को पसंद है चमचों  को भी उनसे बड़े वाले  चमचे जब मिलते है तो उनको उनकी  औकात दिखा ही देते  है तब पुराने चमचों का डिस्पोजल  की तरह उपयोग कर कचरे की तरह फेंक देते है आये दिन ऐसे चमचे अपनी उपेक्षा पर आंसू   बहाते  रहते हैं   और मन ही मन सोचते होंगे ,काश हम भी मेहनत और ईमानदारी से जीते तो आज यह दिन नहीं  देखने पड़ते l 
                             चमचे यह जानते है कि  उनका उपयोग किया जा रहा है फिर भी  अपना उल्लू सीधा कर ही लेते है और वे  चमचागिरी करने की कला  में अपने   को पारंगत  समझते है l यूज़  करो और फेंक दो उसे डिस्पोजल कहते है चमचे भी आजकल ऐसे ही हो गए है पर क्या करें  यह एक मनोवृति बन चुकी है  और युगों  -युगों  तक चलती रहेगीl चमचों  को चमचागिरी में ही चमचमाहट नजर आती है l 

चिंता एक राष्ट्रीय समस्या [व्यंग्य ]

चिंता एक राष्ट्रीय समस्या [व्यंग्य ]
               
                 चिंता करना  एक राष्ट्रीय समस्या बन  गई है इस समस्या ने हर किसी को जकड़ रखा है मनुष्य नाम का प्राणी किसी न किसी चिंता को लेकर तनाव में ही रहता है सब मिलकर चिंता  कम करने के बजाय उसे और बढ़ाने में ही लगे हुए है चिंताओ के स्तर अगल-अलग है सामजिक ,धार्मिक और राजनैतिक समस्या प्रमुख है l असलियत में किसी को चिंता हो या न हो पर चिंतित होने का ढोंग जरूर करता है कुछ को तो पराये दुःख की ही चिंता है और दिन रात  उसी में लगे हुए है lसिर्फ और सिर्फ चिंता  करना ही उनका जीवन हो  गया हो l चिंता करने वाला जानता है कि चिंता से कुछ होना जाना नहीं  फिर भी करता है ये  जीवन का अभिन्न अंग बन गया है l 
                        बेचारे दिल्ली वाले आपको  जिताकर चिंता में है अब क्या होगा ?केजरीवाल इस चिंता में है कि  पार्टी को टूटने से कैसे बचाऊँ ? रोज एक नया विरोधी 
मीडिया के माध्यम  से चिंता बढ़ाने का काम कर रहा है कुछ तो बीजेपी को जिताकर   अंदर ही अंदर घुटकर चिंता में है l  अभी तक उबर नहीं  पाये l कोई कांग्रेस की पतली हालत से अत्यंत दुखी है तथा भविष्य कि चिंता में  चिंतित है  l कोई प्रधान मंत्री की विदेश यात्रा में विदेश मंत्री के न जाने से चिंतित है तो कोई मार्ग दर्शक से दर्शक बनने से चिंतित ,कांग्रेस के युवराज कहां है ? जानकारी के अभाव में विरोधी भी चिंता ग्रस्त है l बाबा और अन्ना चिंता कर कर के चिंता की बीमारी के इलाज पर है जनता परिवार 
एक मंच एक पार्टी और एक नेता की तलाश में चिंतित है l 
                सबसे ज्यादा चिंता करने वाले हमारे न्यूज़ चैनल है जो  सबकी चिंता बढ़ाने में  सहायक है l चिंता एक स्वाभाविक गुण हैं  पर क्या हर समस्या  का हल केवल चिंता ही है ?
           किसानों  की आत्महत्या ,सीमा पर जवानों  की हत्या, मजदूरों  और कर्मचारियों का   शोषण ,नारी की अस्मिता ,भूख ,बेरोजगारी ऐसे मुद्दो पर चिंता करने वाले बिरले ही होते है l मेक इन इंडिया की चिंता केवल चिंता है छोटे और लघु और मध्यम उद्योगों  की समस्या पर  चिंता किसको है जिन्हें चिंता करना चाहिये
   देश में कदम कदम पर बेलगाम बढ़ते भ्रष्टाचार  पर केवल चिंता ही तो हो रही है l हर सरकार और नेताओं  द्वारा चिंता एक रस्म अदायगी है चिंता करना उन्हीं  का काम है और करते रहेंगे जो चल रहा है चलने दो l चिंता करना और घड़ियाली आंसू बहाना ही तो वे अपना कर्तव्य समझते है l जिस चिंता को  करने  से कुर्सी मिलती है वह चिंता  खतम होती नहीं कि कुर्सी   बचाने की चिंता शुरू हो जाती है  और जनता की चिंता यूँ ही चलती रहती है l 

              भौतिक सुविधाओं  ने चिंता करने को   बढ़ाया है  जैसे मोबाइल  की चार्जिंग  की चिंता, मिस कॉल की चिंता ,कवरेज न मिलने की समस्या ,मोबाइल चालू हो तो भी नहीं हो तो भी चिंता  दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़  रही है l चिंता ने  नींद को छीनकर  चिंता को  और  बढ़ाया है चिंता से तनाव और तनाव से सेहत  खराबी ,फिर सेहत की चिंता ,दवाई के खर्च की चिंता l चिंता तब  तक साथ निभाने  लगी है जब चिता न सज जाये l यह एक राष्ट्रीय समस्या बनकर उभर रही है l 
                               चिंता कर कर सुखी हुआ  न कोय 
                                चिंता पर चिंता करें महादुखी होय  l

फूट और टूट [व्यंग्य ]

फूट और टूट [व्यंग्य ]
                    जब मतभेद ही मनभेद का कारण बन जाते है तो राजनैतिक पार्टियों  
में टूट और फूट स्वाभाविक प्रक्रिया है जनसेवा कम स्वहित की भावना अधिक  प्रबल हो रही हो तो तो फूट फिर टूट की सम्भावना कई गुना अधिक हो जाती है l स्वार्थ रबर की भांति होता है जब दोनों छोर खींचे जायेंगे तब  एक सीमा बाद टूटना निश्चित हैं  ,आप में यह आम हो रहा है हर रोज कोई फूट सामने  आती है और वह टूटकर अलग हो जाता है l 
               सामान की टूट फूट की मरम्मत  सम्भव है दलों और दिलों का टूटना कुछ अलग ही रंग दिखाता हैं  l दलों के आपस में जुड़ने को गठबंधन की संज्ञा दी जाती है ये स्वार्थ को ध्यान में रख कर एक दूसरे प्रति आकर्षित होते हैं  और स्वार्थ की पूर्ति न होने पर विकर्षण  की अवस्था में आ जाते है l गठबंधन हो या पूर्ण बहुमत दोनों ही अवस्थाओं में जनहित के काम न होने से जनता का विश्वास टूटा है l 
                             आप को पसंद किया गया कि  कुछ नया होगा और राजनीति  में एक निर्णायक मोड़ आयेगा पर आप अपने आप  में  त्रस्त ,व्यस्त और मस्त है lचाहे टूटे जनता के अरमान l आप में हर कोई आपा खो रहा है l आप  पार्टी तो कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा  भानुमति ने  कुनबा जोड़ा l दिल और दिमाग के अलग -अलग लोग मिलकर एक मत नहीं  हो पाते और शिखर पर  जाते ही  मतभेद से मनभेद तक तो टूट 
और फूट होती है तो कोई अचम्भा नहीं  लगता है l एक अनार सौ  बीमार की तरह कुर्सी एक चाहने वाले अनेक तो यह तो होना ही है l कहने को तो आम पर रोज कुछ -कुछ  करते जाम है l 
  जब से दिल्ली की सरकार क्या बनी आम ने भी अपनी प्रकृति बदल दी है आज के समय में बिना गुठली के अरिपक्व आम धड़ल्ले से बिक रहे है जैसे आप से राजनीति  का स्वाद बदला है उसी  तरह आम ने अपना स्वाद बदलना शुरू कर दिया हैं  l जैसा आप में अंधड़ आता है वैसे ही अंधड़ में कई आम  टूट कर टपक गए और कच्चे ही बिकने को मजबूर हो गए l जबरन पका कर आम बेचने से, जो मजा आम खाने में आना चाहिए वह नहीं  आ रहा है l वैसे ही हाल आम  की सरकार के है राजनितिक कच्चापन   झलकता है जो आप के साथ सब भुगतने को मजबूर है l प्रकृति ने जो आम का  हाल किया  है वह कहीं  आम राजनीतिक दल के लिए संकेत  तो नहीं  है l तेज हवा में आम जल्दी टपक जाते हैं  l 

फेसबुकम- कुरुक्षेत्रम [व्यंग्य ]

फेसबुकम- कुरुक्षेत्रम [व्यंग्य ]
     
            हमारा अतीत कई युद्धों की गाथा में समाया हुआ है बड़े-बड़े युद्ध हुए कई विनाश का कारण बनें  ,समाजिक संस्कृति को कई आघात लगे और अब  सोश्यल साइट  पर शाब्दिक वार का दौर  याने की  फेसबुकम- कुरुक्षेत्रम सा बन गया है रोज -रोज शब्दिक बाण चलते रहते है कइयों  के  दिल खुश तो कई के  दिल आहत होते रहते है कुछ तो राहत महसूस करते है l 
                        सबसे पहले तो यह सामाजिक साइट  होकर भी  सामाजिक कम राजनीति का कुरुक्षेत्र ज्यादा  बन गई है याने की राजनीति की भड़ास निकालने  का मंच बन गयी है l भक्त -विभक्त में बंट गई है कार्टूनों को  चेंपने में कोई भी कम नहीं  है  कोई धृतराष्ट्र ,दुर्योधन ,अर्जुन  तो कोई पार्थ की भूमिका निभा रहे है l  शाब्दिक  चीर    हरण  का  दौर  चल रहा है सबके अपने  दुःख है अतः  सब अपने हिसाब से इसका दोहन कर रहे है सब अपने -अपने में  ही मशगूल है l किसी को फेसबुकिया कहते सुनते है तो  स्तरहीन लगता है सटोरियों में  भी  बुकी शब्द उपयोग होता है l 
              चेटासुरों ने  इनबॉक्स में हमला कर  इसे  मनोरंजन बॉक्स बना दिया है इन चेटासुरों से त्रस्त महिला मित्र अपनी व्यथा का  इजहार आये दिन सबसे  करती रहती हैं  चेटासुरों को इससे कोई फर्क नही पड़ता एक इनबॉक्स से अपमानित हो दूसरे इनबॉक्स में घुसपैठ करने की आदत लत बनती  जा रही है, बेशरम जो ठहरे l चेटम --युद्धम  जारी रहता है l
    पेजा सुर का भी अपना दबदबा है हर एक मित्र का पेज है पेज लाइक करने के मैसेज इतनी अदा और मासूमियत से इन बॉक्स में  टपकते रहते है कि  हर पेज की पोस्ट को झेलो   कुछ दूसरे मित्रों  का ध्यान न रखने के उल्हाने और  ताने का बोझ  सो  अलग l 
                टेगा सुरों ने भी फेसबुकम -युद्धम् में अपनी अहम भूमिका निभा रखी है टेगा सुरों को चेतावनी देने के  बाद भी घुटने टिकाने में सफलता नहीं  मिलती और अगली सूचना के बिना  अनफ्रेंड होने की बेइज्जती चुपचाप सहने को मजबूर हो जाते है पर  कुकुरमुत्तों की तरह टेगा सुर दिन दूने रात चौगुने  हो रहे है l छदम  युद्ध की तरह ही नकली आईडी ,नकली फोटो की भरमार है ये छद्म युद्ध की ही तरह वार  करते रहते है l 
       कट पेस्ट काम सेकंडो में ही संपन्न हो जाता है और कौन सृजन करता है का पता ही नहीं चलता और कट पेस्ट करने वाले झूठी लाइक पर लाइक पाते रहते है और सृजनकर्ता  कई तलवारों  के आघात  जैसा  दर्द सहन करता  है l 
    
  इस कुरुक्षेत्र में  महिला मित्रों को  मिलने वाले  अधिक लाइक और कमेंट  से भी  कई खफा  है और अंदर ही अंदर  दुखी होकर आये दिन अपना रोना रोते  रहते है l प्रशंसा  पाने की होड़ की मानसिकता ने मनोरोगी बना दिया है फेसबुकिया, दाद बटोरने की जुगत में  रोज कुछ  ने कुछ  चेंपेगा जरुर ,इस चेंपने की बीमारी से  अच्छी -अच्छी पोस्टों  की चोरी चकारी करने में शर्म नहीं  गर्व की अनुभूति करता है l
                           फोटो डालने के शौक ने इसे फोटो गैलरी सा बना दिया है हर तरह के फ़ोटो डालकर ख़ुश है ,कुत्ते,बिल्ली  की किस्मत भी चमक गई उनके फोटो भी थोक में  डलने  लगे है मतलब फोटो ही फोटो कुछ का यहीं  काम l अब  तो सेल्फ़ी की  बाढ़  आने लगी है l 
                 वर्चुअल वर्ल्ड  बनाम रियल वर्ल्ड [आभासी और वास्तविक ] की खाई बढ़ ती जा रही है  वर्चुअल  दुनिया भले ही फेसबुकिया के इर्दगिर्द घूम रही हो पर वास्तविक दुनिया से कटा कटा सा  अनुभव करने लगा है lआश्चर्य जब होता है एक ही छत के नीचे  पारिवारिक सदस्यों को शुभकामना को यही चेंप  कर बरी हो जाते है तो अड़ोसी- पड़ोसी .की बात करना  तो बेमानी होगी l
                     आये दिन फेसबुकम- कुरुक्षेत्रम दृश्य  वर्चुअल वर्ल्ड  में आम  होते  जा  रहे है  आलाप विलाप चलता रहता है lधारा  ६६ के बाद से   आभासी युद्ध और  घमासान होंगे ,सृजन और  अभिव्यक्ति पसंद यँहा   निराश जरुर होंगे . उनके अरमान धरे के  धरे  रह जायेंगे l आक्रामकता हावी होकर इसे और दूषित कर मोहभंग की ओ र ले जाने के लिए उत्प्रेरक का काम करेगी और  फेसबुकम- कुरुक्षेत्रम .बनकर ...रह जायेगी l और बुद्धिजीवी ह्क्के बक्के होकर इस युद्ध को देखने के अलावा कुछ नहीं कर  सकते ........l

अन्न दाता बनाम कर्ज दाता [व्यंग्य ]

अन्न दाता  बनाम कर्ज दाता [व्यंग्य ]
      मैं किसान हूँ राष्ट्र की  शान कहलाता था अन्न दाता ,धरती  पुत्र के नाम से जाना जाता हूँ  हमारी मेहनत और लगन से देश आज अन्न के मामले में आत्म निर्भर है और उसी देश में मैं  भूखा  सोता हूँ l प्रकृति की मार ,बिजली  की कटौती ,खाद- बीज समय पर नहीं  मिलना व  कर्ज के   बोझ से आजादी  के इतने वर्षों    बाद  भी यह कहावत  सच   लगती  है कि  किसान कर्ज में जन्म लेता है और  कर्ज  में ही मरता है 
सरकार आती है और चली जाती है किसान वहीं का वहीं l हर राजनीतिक दल ने हमारा  भरपूर उपयोग किया है और कर रहे है ,कभी जय जवान जय किसान के नारे लगते थे तो  कभी तो चुनाव चिन्ह  ही हलधर किसान रख कर चुनाव जीत लिए पर किसान की हालत नहीं  सुधरी , वहीं   ढाक  के तीन पात l 
                        किसान जितनी मेहनत करता है उतना फल मिलता ही नहीं  है कभी 
सरकार की बेरूखी ,तो कभी मौसम की बेरुखी से त्रस्त है घड़ियाली आंसू बहाने वाले तो खूब है सब अपनी रोटी सेंकने में व्यस्त है हमारे आंसू पोछने वाले कोई नहीं है यदि कोई होता तो तो रोज रोज किसानों  की  आत्महत्या की खबरों से पेज काले नहीं  होते l झूठी शोक संवेदना दिखाकर किसानों  के प्रति सहानुभूति  की नौटंकी कर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है l प्राकृतिक आपदाओ के समय  दौरों  का दौर  चालू हो जाता हैं और सबूत मांग कर मजाक  उड़ाया   जाता है नतीजा  सिफर किसान दुखी और दुखी होते जा रहे है l भूमि को हथिया लिया जाता है  ऊंट के मुंह में जीरे के समान मुआवजा देकर न्यूज़ की हाई लाईट बना दिया जाता है l  अमिताभ जैसे अभिनेता और नेता कागजी किसान भी है उनको क्या फर्क पड़ता है परेशान तो असली किसान है l किसान के  मन की बात कोई नहीं  करता सब अपने मन की बात  करते है मन का पेट की भूख से गहरा नाता है ,जब खाली पेट रहेगा 
तो मन की बात कौन  सहेगा ,अगर मन की बात से ही सभी समस्या का हल हो जाता तो क्या बात थी   मन तो सब के पास है परन्तु मन की केवल गति होती है शक्ति  नहीं  l 

            किसान की व्यथा के बीच  बांकेलाल जी  प्रकट  हो कर कहने लगे कि  किसानों  की योजना ऐसे लोग बनाते हैं जिन्होंने कभी खेत खलिहान देखे नहीं  सिर्फ  सड़क के   किनारों से   निहारे हैं उन्हें ये तक नहीं  पता होता है कि  चने का पौधा होता है या  झाड़ क्योंकि चमचे तो उन्हें दिन भर चने के झाड़ पर  चढ़ा कर रखते है l किसानों  की समस्या न तो अधिकारी , नेता  न हीं मंत्री समझते है l कर्ज़  चुकाने के चक्कर में किसान कभी जमीन बेचता है तो कभी ज़मीर।एक किसान जब लोन लेने जाता है तो अपने  नाम लोन  कराने के लिये पापड़ बेलने से लेकर चप्पल घीस घीस  कर थक  जाता है जब जाकर कहीं लोन पास होता है वह भी कुछ  शिष्टाचार  के बाद क्योंकि भ्रष्टाचार  आजकल शिष्टाचार लगने लगा है ,बदकिस्मती से  समय  पर जमा  नही कर पाने  पर ,लोन का ब्याज बढ़ता जाता है फिर इसकी कीमत किसान को अपनी जमीन बेच कर चुकानी पड़ती है या परिवार सहित ख़ुदकुशी करके। मेरे देश के अन्नदाता की यहीं  व्यथा है की  परोपकार में सारा जीवन बिता देते हैं पर उनके जीवन की  सुरक्षा की चिंता किसी को भी नहीं होती।भारत में फसल बीमा से कई  किसान अनभिज्ञ हैं।  लगता है सरकार भी नहीं  चाहती कि  इसकी ट्रेनिंग दी जाये और उन्हें अपने अधिकारों का ज्ञान कराये l कृषि प्रधान देश अब किसान दुःख प्रधान देश बन गया l 
                        बांकेलाल जी   दुखी  होकर कहने लगे भूमि बचेगी तो किसान बचेगा तब ही तो  देश बचेगा l  ओ मेरे देश के नेताओं  कब समझोगे किसान की व्यथा l किसान की स्थिति  तो खरबूजे जैसी हैं  तलवार खरबूजे  पर गिरे या खरबूजा तलवार पर गिरे कटना खरबूजे को ही है l भूमि अधिग्रहण बिल पर होने वाली राजनीति से अब यह गाना झूठा लगने लगता है --मेरी देश की धरती सोना उगले अब तो हमारे देश की  धरती सीमेंट कांक्रीट के जंगल उगलने लगी है l जिससे सब  किसान परेशान है अंधरे नगरी चौपट राजा जैसा हाल है l 

 

फू और थू की संस्कृति [व्यंग्य ]

फू और थू  की संस्कृति [व्यंग्य ]
               

                फू और थू ने हमारी संस्कृति को सर्वाधिक प्रभावित किया है जो अपने प्रति ही समर्पित नहीं  उससे क्या उम्मीद की जा सकती है ? स्वास्थ्य  के लिए  हानिकारक होने की  वैधानिक चेतावनी  के बावजूद  फू और थू अपने पूरे  शबाब पर  रहता है l चेतावनी को चुनौती देने की प्रवृति और हौसला हमारे देश की कड़वी सच्चाई है और इसे करने वाले  आत्म विश्वास से लबरेज रहते है l इस बहुरंगी संस्कृति वाले देश में कई असमानताओं के बावजूद एक समानता  पाई जाती है वह थूकने की प्रवृति  है अपने मुख  की गंदगी को बाहर का रास्ता दिखाना अच्छी बात है पर इसके लिए भी अपने  कॉमन सेन्स  का इस्तेमाल जरूरी है लेकिन  लोग सोचते है  क्या करना गदंगी फैलेगी तो फैलने दो और चेतावनी के उलट कार्य करने को शान समझने वालों  की कमी नहीं  है l  
                         एक महाशय जिनका नाम रायचंद है नाम के अनुरूप वे काम भी करते है राय देने का  सुनहरा मौका कभी नहीं चूकते है अचनक उनका पदार्पण हमारी कॉलोनी  में हुआ जहां हम कुछ मित्र खड़े हुए बात कर रहे थे कि अचानक एक मित्र 
ने वहीं थूक दिया यह रायचंद जी को  नागवार गुजरा कहने लगे आपकी कॉलोनी में कोई सिस्टम नही  है न कोई  सूचनार्थ पट्टिका लगी है जैसे अभी इन भाई सा. ने यही थूक दिया -यह सुनकर मित्र   विकास और उनमे  लम्बी बहस हो गई ---
विकास -किसी भी सूचना को पढ़कर उल्टा काम करने की प्रवृति के कारण जहां लिखा होता है की मूत्र त्याग करना मना है वहीं करेंगे  ,जहां लिखा होता  है कि  थूकना मना है वहीं थूकेंगे तो ऐसे में इनका महत्व गौण हो गया है l 
रायचंद जी - कुछ तो फर्क पड़ता  ही है लगाना चाहिए [वे अपनी बात पर अडिग थे ]
विकास -देश में सब प्रयोग फेल हो गये अब लिखा जाने लगा की  कृपया यहां थूकिए पर नही फिर भी मर्जी होगी वहीं थूकेंगे लोग l सर जी माहौल इतना बिगड़ गया कि  थूकने और चाटने में माहिर लोग को इससे कोई फर्क नही पढ़ने वाला है आप क्यों अपना खून जलाते फिरते है लोगो ने कसम खा  रखी है हम नही सुधरेंगे l 
राय चंद जी - इसका मतलब कोई कहीं  भी थूक सकता है यह तो गलत है 
                 इससे कीटाणु और गंदगी बढ़ेगी और उससे बीमारी की भरमार होगी l
विकास -क्या बात करते हो ---थूकने और चाटने महामारी  ने  तो देश की सेहत ही खराब कर दी है अब खराब होने को बचा ही क्या है l थूक कर चाटने की पुरानी लोकोक्ति भी  है 
रायचंद जी - गलत को गलत बोलना कोई अपराध है क्या इसके लिए कड़े नियम और कानून होना चाहिए कि  जो सूचना लिखी है उसका पालन अवश्य ही   किया जाना चाहिए l 
    मैंने  दोनों से  कहा कि  छोड़ो सब ऐसा  ही चलता रहेगा l कोई अपने माँ के दूध पर गर्व करता है तो कोई अपने थूक पर l और अपने ही हिसाब से थूकता  है 
विकास [-मजाक में] --रायचंद जी  की और मुख़ातिब होकर  बोला -एक बार थूकने की कीमत क्या जानो ,जो जानते है वही  जानते है  lयहीं इस देश की विडंबना  है कि जो  जितना बड़ा  समझा  जाता है उतना ही  बड़ा  उसका  थूकना  और चाटना भी और  यह ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाती है और राजनीति  में हड़कम्प मच जाता है l 
   रायचंद जी -    थूकना मनुष्य की प्रवृति है पर सही  जगह पर थूकना ही उसे ओरों  से अलग  बनाती है अत; जहाँ जो सूचना हो उसका पालन कर अच्छे नागरिक का परिचय दें ,
             मैने कहा कि  चलो बहस का खात्मा करो lजनता है वो ही करेगी जो  करती आ रही है जहां थूकना मना है वहीं  थूकेगी l आज समाचार पत्रों  नेताओ  के बयाँनो से ज्ञात हुआ की  तम्बाकू खाने और पिने शारीर को कोई नुकसान नही होता है फू और थू  की संस्कृति को और बल मिला और यह  सिलसिला  रहेगा l

अप्रेल फूल और नेताजी [व्यंग्य ]

           अप्रेल फूल और नेताजी  [व्यंग्य ]

                     एक अप्रेल को अंतर्राष्ट्रीय   मूर्ख दिवस याने कि अप्रेल फूल मनाया जाता है वेलेंटाइन  डे  के बाद अप्रेल फूल का आना यह सोचने को मजबूर करता है कि शायद यह प्यार की  परकाष्ठा ही है जो इस  दिवस कि उत्पत्ति  हुई, ढाई अक्षर के इस  शब्द में गजब की  शक्ति है यह मूर्ख बनने  और बनाने में उत्प्रेरक का कार्य करता हैl मूर्खता हमारा जन्मसिद्द अधिकार है जब तक  धरा पर मनुष्य प्रजाति विद्यमान रहेगी तब तक मूर्ख भी l पढ़ा लिखा मूर्ख एक अनपढ़   मूर्ख से ज्यादा खतरनाक होता है l 

                     थ्री इडियट फ़िल्म जबसे हिट क्या हुई सभी मूर्ख ,अपने आप को सम्मानित महसूस करने लगे है और इस पर कालिदास ने भी स्वर्ग  में जश्न मनाया होगा अप्रेल फूल हास्य और व्यंग्य का महापर्व है जब  सभी मूर्ख और महामूर्ख सक्रिय हो जाते है और जिनको अपनी अवस्था का भान नहीं  है उन्हें अवगत कराने का ठेका इनके पास ही है और मूर्खो का यह पर्व चुनावी वर्ष में आ जाये तो फिर क्या कहना जनता और नेता दोनों एक दूसरे को मूर्ख ही समझते है जनता वोट देकर पूरे पांच  साल के लिए मूर्ख बन जाती है और नेता पूरे पांच साल तक मूर्ख बनाने  का लायसेंस लेकर  झूठे वादे ,आश्वासन और सुनहरे सपने दिखा जाता है l 

                        एक नेताजी चुनावी रंग में पूरी तरह डूबे हुए थे। मैंने उन्हें मजाक में 
"अप्रेल फूल  क्या कह  दिया ,चुनाव के समय में  उन्होंने उसे गंभीरता से लेते हुए कड़े तेवर में  कहा कि नेता नहीं  जनता मूर्ख है वो हमें  चुनती है हमारी क्या गलती है मैंने उन्हें चिढ़iने के अंदाज में  कहा  कि ये सही फरमाया आपने जनता  कभी सांपनाथ और कभी नागनाथ को चुनती है ,आपका कोई दोष नहीं  हैl चमचों  से घिरे नेताजी में से एक स्मार्ट सा चमचा परिस्थिति  को भांपते हुए  --अप्रेल फूल फ़िल्म का गाना गाने लगा  नेताजी को खुश करने क लिए। ……
             अप्रेल फूल बनाया तो उनको गुस्सा आया 
             इसमें मेरा क्या कसूर जमाने का कसूर 
              जिसने दस्तूर बनाया
चमचे ने नेताजी को कहा ठीक हैं दादा ..चलता है . नेताजी  ने उसकी पीठ थपथपाने लगे और जहरीली मुस्कान फेंक कर …कहा कि ये मूर्ख बनाने का उसूल  हमनें   तो नही बनाया .हम तो केवल फालो करते है। मैंने  कहा  कि किसी ने  सही कहा  है कि मूर्खो पर शासन करना आसान होता है ,जनसेवा तो बहाना है सिर्फ  मेवा खाने मे ही सिद्ध हस्त होते है तो …जैसे तैसे पिंड छुड़वाया नेताजी ने ।
           जाने -अनजाने में मूर्खता करना हमारा प्रकृति प्रदत्त  एक लक्षण है अप्रेल फूल तो  फ़िल्म का टाइटल मात्र है और जब मूर्खता  खुलेआम करने का दिन मुक़रर्र  किया है तो आईये  क्यों न मिलकर मूर्खता के महान  दिन हम मूर्खता जरुर करें अपने आप को इससे वंचित न रखें  और अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दें  l
                              
   क्योंकि मूर्ख ही महान है जिनके  कण -कण में मूर्खता   रची-बसी है इसके   कई उदाहरण भरे-पड़े है अत: महानता के लक्षण को बनाये रखें आओ मिलकर  अप्रेल फूल बनाए l




हार की भड़ास [व्यंग्य ]

 हार की भड़ास [व्यंग्य ]
          वर्ल्ड कप क्रिकेट के सेमी फाइनल मैच की  हार का ठीकरा सोश्यल साइटों  पर अनुष्का पर ही फोड़ा जा रहा है जैसे वो ही  टीम की कप्तान हो ११खिलाड़ियों  की कोई जबावदारी ही नहीं बैट्समेन और बॉलरों  ने काफी निराश किया l सोश्यल साइटों  पर 
न जाने क्या -क्या बकवास चल रही है हर कोई अपने -अपने तरीकों  से उस एक मात्र महिला मित्र को जवाबदेह घोषित कर भारत की हार का  जिम्मेदार बता रहे हैं  l 
                       कईयों  ने तो बीमारी का बहाना बनाकर छुट्टी  ली होगी ,आज  हार का  गम और  बीबी की लताड़  तथा कल बॉस के यक्ष प्रश्नों का सामना भी तो  करना है l अनुष्का का सिडनी जाना जैसे गुनाह हो गया वाट्स एप  पर भी हर  मैसेज में उसे पनौती बताकर  धिक्कार रहे है l 
                     क्रिकेट हो या राजनीति हार का ठीकरा फोड़ने की पुरानी परम्परा है राजनीति  में तो हार का ठीकरा सर पर रखने की होड़ लगी  रहती है l जो हार का ठीकरा अपने सर पर रखेगा वह पार्टी का अनुशासित पदाधिकारी कहलाता है उसे  लगता है यह नौटंकी  ही पार्टी में भविष्य का निर्धारण करेगी l कुछ तो ठीकरा लेने में इतने उतावले होते है की  एक्जिट पोल के आंकड़े देख कर  ठीकरा ढोने की तैयारी कर लेते हैं कि कहीं बहती गंगा में दूसरा हाथ नहीं  धो जाए l 
      ठीकरा  फोड़ने की कला  में पत्नी भी कम नहीं होती ,अच्छा किया तो मैंने किया बुरा किया  तो आपका सर है ना ,चाहे टाट गंजी हो जाये अगले सात  जन्म तक चलता रहता है l  बच्चों  के परीक्षा परिणाम गिरने का ठीकरा बच्चे और पालक शिक्षक पर और शिक्षक शासन पर फोड़ते है 
    असफलता का ठीकरा फोड़ना कला है इसमें सब माहिर होते है हार की भड़ास निकालना भी एक कला है क्रिकेट एक जन सामान्य खेल हो गया है जिसने कभी बेट बॉल को छुआ तक नहीं  वे भी  इस कदर बहस करते नजर आयेंगे कि  कभी -कभी तो  लगता है एक टीम बनाकर उनको भी कहीं खेलने भेजना चाहिए  ताकि हकीकत समझे टीवी पर प्रश्न पर प्रश्न दागना आसान है। मैदान में बॉल की स्पीड और बाउंसर  देख कर पतलून गीली होने तक का खतरा रहता है ये तो खेलने वाला ही जान सकता है l 
            हारना जीतना खेल का हिस्सा रहता है जीतने पर तो  सर आँखों पर उठा लेते है और हारने पर  ठीकरे फोड़ने की गतिविधि शुरू हो जाती है  खिलाड़ियों  को कोसना और बिना सर पैर की टिप्पणी , ख़ेल भावना को आहत करती है l

मूर्खता करना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है[१-अप्रेल फूल ] [व्यंग्य ]

                                  
मूर्खता करना हमारा  जन्म सिद्ध अधिकार है[१-अप्रेल फूल ] [व्यंग्य ]

मेरे मित्र जो पेशे से सरकारी स्कूल में हेड मास्टर के पद पर पदासीन है ,चर्चा ही चर्चा में अप्रैल फूल यानि मूर्ख दिवस 1 अप्रेल को ही क्यों मनाया जाता है इस विषय ने तगड़ी बहस को जन्म दे दिया और  बहस चल पड़ी , मै सहजता से पूछ बैठा की मूर्ख की क्या परिभाषा है? आपके दैनिक जीवन में इस शब्द का महत्व पूर्ण स्थान है ,कहते ही मास्टर जी बगले झांकने लगे और कहने लगे कि  कभी गम्भीरता  से इस पर  चिन्तन नहीं  किया, मैंने कहा यूँ  भी  क्या चिन्तन का आपके पेशे से दूर-दूर तक वास्ता नहीं है  या वक्त ही नही मिलता है सरकार के अधिकारी  है जो कहे वो ही तो करना है आपको I मास्टर जी को जब  पता नहीं  तो बाकि का क्या हाल होगा ,बेचारे बच्चे क्या जाने ,रोज सुनते है सुनना उनकी नियति है I

आपना खुद का सामान्य ज्ञान भी कहाँ ज्यादा  है सोचा थोडा बड़ा लिया जाय .,मेरे पास उपलब्ध पुस्तकों  को उल्टा-पलटा तो विदुर नीति  से सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त हुआ ,आप तो जानते ही  है महाभारत काल का  हश्र।फिर भी मुझे तो मास्टर जी को अपना किताबी ज्ञान बाँटना  ही था सो उन्हें विदुर नीति के अनुसार मूर्ख किसे कहते है  बताने लगा मास्टर जी ने  जिज्ञासा भरी नजरों  से मुझे घूरा  ..मैंने  उन्हें कहा की विदुर नीति के अनुसार ...ऐसे लोगों  को मूर्ख कहते है - जो शास्त्र शून्य होकर भी अति घमंडी है ,बिना कर्म के धन प्राप्त करता हो ,अपने कार्य को छोडकर शत्रु के पीछे दौड़ता हो ,मित्र के साथ कपट व्यवहार ,मित्र से द्वेष, विश्वास घात ,झूठ बोलने वाला ,गुरु ,माता ,पिता और महिला का अपमान करता हो,आलसी हो ,बिना किसी काम का  हो  वह मूर्ख की श्रेणी में आते है I स्वयं दूषित आचरण करता हो और दूसरों  के दोष की निंदा करता हो वह महामूर्ख कहलाता है I मास्टर जी बोले इस प्रकार  धरा पर कोई भी इससे अछूता  नही है, ,हम बेचारे छात्रों को अपमानित करते रहते है पढ़ा लिखा मूर्ख अनपढ़ मूर्ख से अधिक मूर्ख होता है , हमारा देश मूर्खो और महामूर्खो से भरा पड़ा है I 

हमारे देश में एक जुमला प्रसिद्ध है की मूर्ख मकान बनाते है और बुद्धिमान उसमे रहते है एक बार मकान किराए पर लेकर जिन्दगी भर मकान मालिक को मूर्ख बनाते  रहते है  और कोर्ट तक चप्पले घिसवाते है Iचुनाव में वोट  के लिए चापलूसी कर फिर जनता को पांच साल तक  मूर्ख बनाते है और हम सहते रहते है , मंदी की मार का खौफ़  बताकर और  कीमतें  बड़ाकर  सरकार जनता को आये दिन मूर्ख बनाती है ईमानदार टैक्स चुकाता  है और मूर्ख  न चुका कर उसका आनन्द लेते  है I मूर्खता की भांग देश में घुली पड़ी है हर एक दूसरे को मूर्ख बनाता है ओर समझता भी है I

मास्टर जी  को हताश होते देख कर उन्हें बताया कि  देश में कुछ बुद्धि जीवी है जो  अपने आप को  कालिदास के वशंज मानते है वे फिर अपने तेवर में आ गये ,और देश के नेताओं  और सरकारी तन्त्र के सरकारी अफसरों को कोसने लगे इन्हीं  सबने मिलकर देश का बंटाधार   कर दिया ,मूर्खता पर नोबल पुरुस्कार यदि होता हो तो देश के किसी  नामी गिरामी मूर्ख   को ही मिलता ,उनका आवेग देख कर उन्हें रोकने के लिए "थ्री इडियट "फिल्म का उदाहरण देकर सामान्य करने की   कोशिश करने का  प्रयास किया कि  इस फिल्म ने यही धारणा को उजागर किया की मूर्ख महान होते है वे ईश्वर की सर्वोतम कृति है देश में यह किस्म बड़ी तादाद में  पाई जाती है 

मूर्खता करना हमारा  जन्म सिद्ध अधिकार है जब तक सूरज -चाँद रहेंगे मूर्ख ओर मूर्खता जिन्दा रहेगी ,मास्टर जी गर्वित होकर बोले हम तो बचपन से ही ऐसी  प्रतिभा को पहचान लेते है और मूर्ख कह देते है बनना तो निश्चित है हम  भावी पीड़ी  के  जनक  जो ठहरे इनकी नींव  स्कूल ,कॉलेज  ..से ही शुरू होती है हम जैसे  बुद्धि जीवी इसके दाता है I मैने कहा धन्य है मास्टर जी मुझे आज पता चला है कि  आप मूर्ख प्रदाता है इस देश को I मुझे मूर्खता से इतनी तकलीफ नहीं  होती ,जितनी इसे ही अपना गुण समझने वालों  से ,केवल मृत व्यक्ति और मूर्ख  ही अपनी राय नहीं  बदलतेIमूर्खता  के अलावा कुछ  पाप नही होता है Iमूर्खता सब कर लेगी पर बुद्धि का आदर कभी नहीं  करेगी ,अत: मास्टर जी सोचो हम कहाँ है ?

मूर्ख और मूर्खता को  सहेजने के लिए देश में कई मंचो ने  अनेक कार्यक्रम लांच कर रखे है जो मूर्ख और मूर्खता को स्वीकार करने में नही हिचकते और पूरी मुस्तैदी  से वर्ष भर अंजाम देकर एक दिन उसको अभिव्यक्त करते नही थकते जेसे मूर्ख ,महामूर्ख .टेपा खांपा,कबाड़ा गुलाट , आदि  ऐसे कई  प्रकार सम्मेलन है  इनका जन्म भी  इसीलिए  हुआ  जो अपने आप को मूर्ख मान कर उपहास करने  का उपक्रम करते है .मूर्खता का अंत सम्भव नही लगता है और हम एक अप्रैल  को अप्रेल फूल यूँ   ही मनाते रहेंगे I जो मूर्ख की श्रेणी में आते हो और अपने दिल से माने ..उन सभी को..अप्रैल  फूल की बधाई .....I


  
  

नकल के नशे में है जहान [व्यंग्य ]

   नकल के नशे में है जहान   [व्यंग्य ]

                                 

          बांकेलाल जी समाचार  पत्र  में   नकल की खबर पढ़ आहत हुए जा रहे थे और बार बार  पेपर  जोर -जोर से झटक  रहे थे मैंने पूछा कि  सुबह -सुबह  क्या संकट आ गया  बहुत विचलित  दिख  रहे हो वे कहने लगे एक पुरानी लोकोक्ति है नकल में  भी अकल लगानी पड़ती है पर फिर भी अच्छे -अच्छे  धरा जाते है तो यह दर्शाता है कि  यह तो  बेअकल है और यदि  अक्ल का काम करने की कूबत होती तो नकल  ही क्यों करते ? अपनी  अकल का सदुपयोग करते पर क्या करें  हमारी अकल तो गई घांस चरने जब से मनुष्यता पर पशुता हावी है और नकल पर  नकल  जारी है कौन  असली है कौन नकली है भेद करना किसी भी  साधारण  मनुष्य के  बस की बात नहीं l  परीक्षा के समय में नकल का समाचार पड़कर मन दुखी होता है कि  मेहनत करने वाले का क्या कसूर रहता है कि  नकल को अपना जन्म सिद्द अधिकार समझने वाले प्रतिभाओं  के लिए 
स्पीड ब्रेकर  बनकर इठलाते है और वे बेचारे मायूस हो कर सब सहते है l 
                     वे आगे कहने लगे इस कला को बढ़ावा  देने  में अर्थ  की अहं भूमिका है अर्थ बिना सब व्यर्थ  समझने वालों के लिये   इसकी  आड़ में रोज नए  तरीकों  पर रिसर्च करने
की कमी नहीं   है  तभी तो  व्यापम जैसे  घोटाले  के कारण  प्रतिभाओं  का दमन हो जाता है और अरमान दफन l रोज रोज नए  तरीके समाने  आ रहे है मतलब नकल में अकल लगाने वालों  की कमी नही है फिर भी चोर की दाढ़ी में  तिनका रह ही जाता है और अपराधियों  की पहचान कर सजा मिलने में वर्षों  लग जाते हैं और नकल में अकल लगाने वाले अपना काम निरंतर जारी रख कर समाज में नासूर तरह काम करते रहते है l 
                          बांकेलाल जी कहने लगे कि  शिक्षा ही क्या  हर क्षेत्र में इसका बोलबाला है 
पाश्चात्य  सभ्यता की नकल  तो भारतीय संस्कृति का क्षरण कर शर्मसार कर ही रही है 
इस  नकल से राजनीति भी अछूती नहीं   है एक दूसरे के मुद्दे ,वादें  और प्रोग्राम की 
  नकल  कर फूले नहीं  समाते हैं  हमने  नकल के दलदल में फंस कर जीवन शैली को  बर्बादी की ओर धकेल  दिया है खाने -पीने ,रहन सहन ,आचार विचार, व्यवहार ,समाजिक ताने बाने  को विदेशी रंग में रंग कर आधुनिक और विकास शील होने दम्भ  भर रहे है l 
                              नकल की प्रवृति ने कुछ इस तरह जकड़ रखा है कि  हर चीज 
नकली और बनावटी लगने लगी है रिश्तों   को निभाने की मजबूरी में ,अंदर से कुछ और बाहर से कुछ और नजर आते है और नौटंकी की नकल कर अपने आप को धन्य 
मानते है l नकल की इस लाइलाज बीमारी और  मानवता के दुश्मनों  ने दवाइयों को भी नही छोड़ा वहां भी  नकल की भरमार है l

                                   हर कोई नकल पर है फ़िदा
                                   इसलिए तो है नकल जिन्दा
                       मैंने कहा  बांकेलाल जी आपकी चिंता जायज है पर इसके पीछे 
अति धन कमाने की लालसा ,एक दूसरे से ऊँचा दिखना और बिना मेहनत के बहुत कुछ पाने की तमन्ना ही  इसकी  जड़ है और जड़ काटने का नाटक कर उसे पानी देकर 
जनता की आखों में धूल झोंकना ही तो चल रहा है l 
                                            नकल के नशे में है जहान 
                                            अपने आप को कहते महान …