मंगलवार, 24 जून 2014

गोल के लिए किक जरूरी है.... [व्यंग्य ]


गोल के लिए किक जरूरी है....
[व्यंग्य ]

                फ़ुटबाल का गोल हो या अपने जीवन का कोई गोल हो किक का अपना महत्व है जिसने भी किक का महत्व नहीं  जाना वह जीवन में गोल हो गया है और किक मारने वाला ही  खिलाडी बाकी सब अनाड़ी समझे  जाते है मानसिकता यह है कि गोल के लिए कुछ भी करेंगे   और तुच्छ भी बन जायेंगे क्योकि  हमारा तो केवल  यहीं  मकसद  है गोल और गोल l किक मारने में शोहरत हांसिल करने के लिए सामजिक बंधन और मर्यादा को तोड़ना,स्वहित की भावना का विकास करना बहुत जरूरी है इनको नीति अनीति से  ,मान अपमान से कोई फर्क नही पड़ता अपना गोल पूरा करने के लिए हर हथकण्डा अपनाने को हमेशा  तत्पर   और चौकस रहते है सामने वाले की मजबूरी ,कमजोरी व सीधेपन  को भुनाने में कोई  कसर नही छोड़ते l
      
  एक नेताजी जो किसी जमाने में फुटबॉल खिलाड़ी थे मैंने  उनसे पूछा की फुटबॉल खेलते -खेलते नेता कैसे बन गए तो नेता जी हसंते हुए बोले किक मारने की  कला का उपयोग राजनीति  में जितने अच्छे से किया जा सकता है उतना फुटबॉल में नहीं  l खेल में तो भाई चारा रखना पड़ता है पर राजनीति में सब सिर्फ दिखावे का चाहिए जैसे हाथी के दांत खाने के और   दिखाने के और  होते है जनता  से वादे करो और  खूब स्वप्न दिखाओ और बाद में सब को किक  मार दो l फ़ुटबाल  में तो खेल भावना होती है पर राजनीति में केवल स्वार्थ की भावना कूट -कूट कर भरी   होती है और यही एक मात्र कारण होता हैं कि  यहां किक मारकर गोल करने की भावना  से कभी संतुष्टि नही मिलती और किक  पर किक  मारने और गोल पर गोल करने के बाद भी जी नहीं भरता l उनका कहना था कि  हर जगह किक मारने  का काम बखूबी होता है इतने  दल-दल में  भी चतुराई से किक मारकर गोल को अंजाम  दे  ही  देते है l इसी  कारण हम राजनीति के  इस जहां में पड़े है l इसलिए तो हम फुटबॉल में पीछे है पर कोई गम भी नही है सिर्फ नाम के लिए टीम भेज देते है
की   हमें  किक मारकर गोल करना आता है सावधान ! हम कहीं भी किक मारकर गोल बना सकते है हमारी आदत में शुमार है l हमारे यहां तो हर सरकारी व निजी संस्थान में किक मारने का रिवाज हैl 


                         नेताजी अपनी बात झिलाये जा रहे थे कि  फ़ुटबाल में तो पता होता है कि  किसके विरुद्ध गोल  मारने   का कितना समय है l  पर राजनीति तो अनिश्चितता का  खेल है कौन  अपने गोल के लिए किसे किक मार दे l जैसे श्री कृष्ण ने अर्जुन को  यह
ज्ञान  दिया  था कि  युद्ध के क्षेत्र में कोई अपना नहीं उसी तरह राजनीति में भी कोई अपना  सगा नहीं  कोई कभी भी दे   जाता  है दगा l नेताजी की बातों  में दम दिख रहा था और उनके किक मारने के अनुभव का निचोड़ का रस मुझे स्वादिष्ट लग रहा था  मैंने  भी उन्हें चने के झाड़ पर चढ़ाते  हुए कहा कि  वाह क्या ज्ञान दिया  आपने  हम  तो आपके मुरीद हो गए l
                किक मारने  की  प्रवृत्ति  राजनीति में  जन्मजात  होती है माँ की गोदी में  भी हम किक मारते रहते थे l  यदि अपवाद स्वरूप किक मारने की प्रवृत्ति नहीं  होती तो    खिलाङी को तो कोच या प्रशिक्षक सीखा देते है पर राजनीति में ठोकर खाकर और अति महत्वकांक्षा यह सब करने को मजबूर करती है और यह किसी भी स्तर पर और किसी भी  स्तर वाले को अपनी गिरफ्त में ले लेती है l

गुरुवार, 19 जून 2014

वाह रे प्याज

शूलिका -------
           वाह रे प्याज
  प्याज का कमाल है बड़ा धाँसू
 राजनीति में भी है घुसपेठ धाँसू
महंगे होतो सरकार बहाती है आंसू
भाव कम होतो किसान के बहते आंसू
बेचारे काटने वाले को भी देता आंसू
महंगे खाने वाले को भी आते आँसू
विपक्ष भी बहाता है घड़ियाली आँसू
सबका है चहेता सबको देता आंसू
                          ----------संजय जोशी 'सजग "------

बुधवार, 18 जून 2014

चाटुकारिता बनाम शिष्टाचारिता

चाटुकारिता बनाम शिष्टाचारिता

                 चाटुकारिता हमारे देश की एक बहुत बड़ी  लाइलाज समस्या है और वह सभी समस्याओं  पर भारी व कई समस्याओं की जड़ है ,हमारी विडंबना  है कि  किसी भी प्रकार से किसी भी स्कूल या विश्व विद्यालय में इसका  कोई  डिप्लोमा या डिग्री कोर्स नहीं  है फिर भी इसके लिए स्किल्ड लोगों  की एक बहुत बड़ी फौज खड़ी है उन्हें हर परिस्थिति में इसका समुचित  उपयोग करने की कला में महारथ हासिल है येन केन प्रकारेण अपना काम बना लेंना या अपना उल्लू सीधा करना इनका प्रमुख गुण होता है इन्हे सिर्फ अपने  काम का टारगेट ध्यान रहता है इन्हे मान अपमान जैसे शब्दों का ज्ञान तो भलीभांति  रहता है फिर  भी  सब नजर अंदाज करने की ईश्वरीय शक्ति से परिपूर्ण होते  हैं lबुद्धि जीवियों  और प्रतिभाशालियों  में यह अवगुण नहीं  पाया जाता है इसलिए  उनकी अलग पहचान होती  है -और वे इस मार्ग पर जाते ही नहीं है कविवर रहीम कहते है कि
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कोय

  वर्षा ऋतु आते ही मेंढको की आवाज चारों तरफ गूंजने लगती है तब कोयल यह सोचकर खामोश हो जाती है कि उसकी आवाज कौन सुनेगा। चाटुकारों  की बढ़ती पूछ परख से इसी  तरह बुद्धिजीवी  और प्रतिभाशाली  भी मौन हो जाते है और चाटुकार प्रखर  हो जाते है l हर क्षेत्र में इन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है l  ये ऐडा बन कर पेड़ा खाने का काम करते है और  मानते है कि  -
                     कानून मिले न कायदा l जी हजुरी में ही फायदा l l


   चाटुकारिता में कई तरह की किस्में  पाई जाती है ,पहले झूठी  तारीफों से काम चलते है , विरोधी के दुःख या संकट की खबर देकर ,और यह काम न आवे तो चरण चाटन  के ब्रम्हास्त्र का उपयोग किया जाता है चाटुकार  तो मजबूरी में कुछ पाने की आशा में यह क्रियाकर्म करता है ऐसे लोग कुछ  पाने की लालसा के कारण  धनिकों, उच्च पदस्थ एवं बाहुबली लोगों की और ताकते रहते हैं और उनकी चाटुकारिता  करने के लिये तैयार रहते हैं। उनकी चाटुकारिता में कोई कमी नहीं करते। उन्हें यह आशा रहती है कि यह लोग  उन पर रहम कर उनका उद्धार करेंगे लेकिन यह केवल भ्रम है।  वह अपना काम निकालकर भूल जाते और चाटुकारिता की सेवा बदलें कुछ  दे भी देते है तो वह भी न के बराबर। सच तो यह ऐसे चाटुकारों का जीवन  का इसी तरह गुलामी करते हुए व्यर्थ चला जाता हैं। जो पॉवर  में है वह अहंकार में है चाटुकार  उनकी और ताकता हुआ  ही जीवन गुजारता है और संकट होने पर साथ  छोड़ने में भी कोई परहेज नही करता यह विचित्र प्रकार का मनुष्य होता है दूसरा करे तो चाटुकारिता और स्वयं करे तो शिष्टाचारिता मानने वालों  की कमी नही है l चटुकारिता को पसंद और उसका आनंद लेने वाले जब पद विहीन होजाते है और न मिलने पर अवसाद के शिकार हो जाते है कई बड़े अधिकारी नेता ऐसे पीड़ित मिल जायेंगे  l
     चाटुकार हमेशा शाश्वत सिंद्धांत का पालन करता है और वह केवल उगते सूरज अर्थात
हमेशा जो पॉवर  और सत्ता में है उसी पर केंद्रित रहता है और जैसे तैसे उसका दामन
थाम लेते है l चाटुकारिता करने वाला और कराने वाला दोनों को ही आनंद की अनुभूति होती है जब तक धरा पर ऐसे लोग रहेंगे  तब तक " -चाटुकारिता " अमर बेल की भांति
फैलती रहेगी और बुद्धिजीवी  और प्रतिभाशाली को आत्म ग्लानि को महसूस करते रहेंगे , बेचारे कर भी क्या सकते है l

संजय जोशी 'सजग "[ व्यंग्यकार ]

सोमवार, 9 जून 2014

स्कूल गए हम [व्यंग्य ]




                                     स्कूल गए हम  [व्यंग्य ]


    आओ स्कूल चलें  हम  --अभियान के प्रचार प्रसार से प्रभावित होकर हम कुछ मित्रों ने स्कूलों  के भ्रमण का प्रोग्राम  बनाया कि  ऐसा क्या है आखिर इतना प्रचार किया जा रहा है और लोग बाग कन्नी काट रहे है ,कुछ तो नया होगा जब  इतना ही  ढोल पीटा जा रहा है सबने  सोचा चलो कुछ   नया अनुभव लें जिससे   अपनी सरकारी स्कूल  के प्रति धारणा  को बदलने में सहायता  मिलेगी ,और  फिर  हम दूसरों की   बदलेंगे --.  कि   कितना  है  दम   " आओ स्कूल चले हम.…… अभियान में l
                           हमारी मित्र मंडली ने एक दिन स्कूल के नाम पर ही समर्पित
कर   दिया कि   फ़टे में टांग अड़ा  फंसा कर ही रहेंगे , क्योंकि शिक्षा हमारी आने वाली पीढ़ी की  नींव है और वे राष्ट्र की अमूल्य सम्पदा  है  हमने कई स्कूलों की खाक छानी  और  कई छात्रों ,शिक्षकों  , व पालको से इस बारे में  चर्चा कर अपने दिमागी जाले झाड़ने  तथा ज्ञान और मत को बढ़ाने की चेष्टा की और उसमे सफल भी हुए l  सत्य हमेशा कड़वा ही होता है और सत्य परेशान हो जाता है पर पराजित नहीं  ,इसी बात को मद्दे- नजर रख कर प्रतिक्रिया देने का मन बनाया l जो किसे कड़वा,या  किसे मीठा लगेगा  क्या पता l हम सभी मित्रो के अनुभव का निचोड़ इस प्रकार है

                       हमने इस  पवित्र अभियान के उदेश्य के बारे में विचार विमर्श किया कि  आख़िर इसकी  जरूरत  क्या  है  ? एक मित्र बोला कि  यह एक कानून है कि हर बच्चे को शिक्षा मिले कोई  अनपढ़  न रहे   ,दूसरा मित्र बोला की स्कूलों  की दशा और दिशा सही कर ले तो भीड़ आ जायेगी , तीसरा बोला आज के महंगाई के युग में कौन   पसंद  करता है बच्चों  को निजी स्कूल में भेजना। पर क्या करें  एक पिता होने के नाते वह अच्छी शिक्षा देकर अपना फर्ज पूरा करता है और सरकार  का  केवल दिखावा मात्र है यह अभियान lजन नेताओं को सरकारी स्कूल से मतलब ही नही  उनके  बच्चे तो विदेश जाते है शिक्षा ग्रहण करने l
                      सरकारी स्कूल तो केवल औपचारिकता  मात्र रह गए है सरकार अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है , निजी स्कूलों में भारी भीड़   ,सीट  भी खाली नही है एक -एक सीट के लिए  जद्दोजहद ,प्रवेश बंद का बड़ा बोर्ड लगा है ताकि और डोनेशन की प्राप्ति हो सके और सरकारी  स्कूल खाली और वीरान पड़े है तभी आओ स्कूल चले हम जैसे अभियानों पर सरकार करोड़ो रुपये व्यय कर रही है पर   स्थिति वहीं ढाक  के तीन पात l कभी -कभी डर  लगता है कि कहीं सरकारी स्कूल विलुप्त न हो जाये  नहीं तो आने वाली पीढ़ी के लिए यह  पुरातत्व की सामग्री हो  कर  इतिहास का हिस्सा बन जायेगी , जैसे  हमारे प्रदेश मे से रोडवेज  गायब ही हो गई,उसी तरह  स्कूल  भी गायब न हो जाए l
    मध्यान्ह  भोजन भी सरकार का छात्रों की संख्या बढ़ाने का उपाय  हैं पर  यह भी विफल हो गया और छात्रों और पालकों  का विश्वास उठ गया कब  कौन सा जीव जंतु   निकल जाये खाने में l पालक कहते  है खाना ही सही न दे सके सरकार तो  वह शिक्षा क्या देगी l सरकारी योजनाओं  के नाम मोटे दर्शन खोटे ,हकीकत  से कोसों दूर l
                  स्कूलों की हालत बहुत खराब है गदंगी  की भरमार है भवन है तो शिक्षक नही है ,शिक्षक है तो भवन नही है अगर दोनों हैं तो छात्र नही है l कई जगह जान हथेली पर  रखकर जाना पड़ता है जब तक बच्चा वापस न आये  पालक परेशान रहते है l बेचारा शिक्षक ,सभी सरकारी काम  के बोझ तले दबा हुआ है पढ़ाने  के अलावा  सभी कार्य करना है किसी ने सही कहा  है कि  शिक्षक राष्ट्र निर्माता  होते है तभी तो शिक्षा के अलावा सभी कार्य  करना उसका कर्तव्य है उसका ही है  जहां  शिक्षक  का शिक्षा से कोई वास्ता नही ,पालक कैसे अपने बच्चे को ऐसे स्कूलों में भेजे ,  मूलभूत सुविधा का अभाव,ड्रेस ,किताबों  ,व अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ जरूरत मंद को नही मिलना ,पग -पग पर भ्रष्टाचार  ने कइयों  के हक को मारा है यह खेल बदस्तूर चालू रहता  है यह  हमारी विडंबना ही  है और   "जब स्कूल  गए  हम , इस अभियान में नही है दम --,जन -जन का विश्वास हो गया है कम --छात्र, पालक ,शिक्षक को हरदम रहता  भरम ।

गुरुवार, 5 जून 2014

हम है दुश्मन पर्यावरण के …… ? [ व्यंग्य ]

०५ जून पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य में ----------
                           
                             हम है दुश्मन पर्यावरण के     …… ? [ व्यंग्य ]   


        आज विश्व में पर्यावरण दिवस मनाया जायेगा हमारे देश में भी मनाने का दिखावा किया जायेगा l विदेशों  में इसे गंभीर  हो कर असलियत में और हमारे देश में मात्र औपचारिकता की जाएगी ,  मनाना  है  इसलिए मनाते है और जानते है होना जाना क्या ? जो इसे ज्यादा  दूषित कर रहे है और करते रहेंगे वो ही सबसे  ज्यादा  इसका राग  जोर शोर से अलापते है  तथा  इस दिन झूठी शपथ ,लेक्चर ,पोस्टर आदि लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है l जब तक  हम पर्यावरण को अपना धर्म नही माने  तब तक नई -नई  विपदा और  आपदा को आमंत्रण  देते रहेंगे l प्रकृति से हम सब कुछ  लेना ही जानते है देना सीखा  ही नहीं   क्या करै  अपनी संस्कृति जो भूल गए l बुरे काम का परिमाण बुरा ही होता है l

        एक पर्यावरण प्रेमी ने अपनी व्यथा को कुछ इस तरह व्यक्त किया कि  --हम ही तो है दुश्मन पर्यावरण के l  विकास के नाम पर जितने पेड़ कटवाए उसका कुछ  भी अंश   नहीं लगाया ,केवल वृक्षारोपण के नाम पर अपना नाम चमकाया ,फोटो ,वीडियो क्लिप ,और  समाचर छपने तक ही सीमित रखा जिस पौधे को रोपा उसका क्या  हश्र हुआ किसे चिंता  फिर उसी स्थान पर  किया जाएगा यह क्रम चलता रहेगा और कागज पर वृक्षारोपण  होता रहेगा बड़े बड़े आकर्षक  नाम से ये अभियान पुकारे जायेंगे  इतिहास के पन्नों  पर l पर  ये सब प्रकृति से खिलवाड़ ही  तो है ,हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते है l

     पर्यावरण  के लिए सर्वाधिक घातक  पोलिथिन बेग ,डिस्पोजल  से हमे विशेष प्रेम हो गया है जीवन इन्ही पर आधारित हो गया दुष्परिणाम के बारे सोचने  की फुर्सत  किसे है ,दुकानदार से पोलिथिन मांगने पर शर्म नही गर्व की अनुभूति होती है l
       पानी चाहत में इस धरा को छलनी  कर  इतना दोहन कर लिया  है कि  ईश्वर  ही जाने l ,केमिकल व गंदे पानी ने जहां पवित्र नदियों को अपवित्र कर दिया  है पानी  तो अब आचमन के लायक भी नहीं   बचा  है सरकार शुद्धिकरण के बड़े -बड़े सपने  दिखाती है और हम देखते है जनता को बेचारी  मुंगेरी लाल बना दिया कि  सपने देखो और मस्त रहो  वाह हम कितने प्रगतिशील होते जा रहे है  सपनों  में l
,     बेचैन है चैन से सांस लेना भी दूभर है हर कोई बीमारी से ग्रस्त है सरकारें  व  जनता  बीमार है विश्व गुरु कहलाने वाला यह देश अपने सांस्कृतिक मूल्यों को छोड़कर विकसित राष्ट्रों द्वारा  अपनी पर्यावरण की सुरक्षा हेतु बंद किये उत्पादनों को बनाकर विदेशी मुद्रा के लालच में जनहित के साथ खिलवाड़ कर रही और निर्यातक बन कर इठला रहे है पर्यावरण का  हाल  बेहाल है फिर भी हम २१ वीं  सदी में जी रहे है यह क्या कम है l
                      पर्यावरण की चिंता करना फैशन  और आधुनिकता की निशानी है   अत; चिंता करते है ,ग्लोबल वार्मिग का रोना रोते है l  देश में कानून  तो है पर भ्रष्टाचार रूपी रावण  ने इन्हे  बौना कर दिया है पर्यावरण संरक्षण हमारा कर्तव्य और धर्म होना चाहिए परन्तु कुछ ने औद्योगिक क्रांति की दुकानदारी के नाम पर इस पावन उदेश्य की बलि चढ़ा दी है l ऊपर से पर्यावरण के प्रति प्रेम दिखाना और हानि पहुँचाना  इस लोकोक्ति को चरितार्थ करते  है कि  "जड़ काटते जाओ और पानी देते जाओ l
              पर्यावरण प्रेमी के  अनुसार इसकी कथा  और व्यथा अनंता है समय कम हैl
कहने लगे की हमें  यह कसम खाना पड़ेगी  हम  सुधरेंगे तभी जग का पर्यावरण सुधरेगा l इस हेतु चिंतन मनन नहीं  , कुछ करने की जरूरत है  और इस  क्षेत्र में कुछ कर गुजरने का मन करेगा उस दिन हम दुश्मन से दोस्त बन जायेंगे  पर्यावरण के .l मैंने कहा आप खामख्वाह  परेशान हो रहे है शासन प्रशासन  और जनता इस और गंभीर नही है तो आप जैसे लोग क्या कर लेंगे  ?आपके प्रयासों की  उनके कान  पर जूं तक नही रेंगती  है फिर वह  तनाव की मुद्रा में कहने लगे हम हमारा काम मरते दम  तक करते रहेंगे और पर्यावरण के दुश्मन की बजाय मित्र बनकर जागृति लायेंगे  l मैंने  उनकी पर्यावरण के प्रति अगाध श्रद्धा के प्रति नत मस्तक होकर प्रण लिया की इस और प्रयास किया जाना जरूरी है और करेंगे l

मंगलवार, 3 जून 2014

----- इमोशनल ब्लेक मेल की कला ---------

                    -----   इमोशनल ब्लेक मेल की कला ---------

     इमोशनल ब्लेक मेल भी एक  कला है इसका कारगर  हथियार की तरह उपयोग किया जाने लगा है ,जो  इमोशन्स को भुनाने  की कला  में जितना  माहिर होता है वह उतना ही सफल होता है  इसे अपने जीवन का   हिस्सा बना लिया है इसमें  मुख्य रूप से डॉ ,बाबा और नेता कदम -कदम पर  ,इमोशनल ब्लेक मेल के सहारे अपना हित साध लेते है वे कहते है की इसमें हमारा क्या दोष  है यदि कोई  भावना के प्रवाह में बह जाये उससे हमारा उल्लू  सीधा हो जाये तो हर्ज क्या है हम तो अपना फर्ज   अदा कर रहे है  फिर चाहे किसी के ऊपर  कर्ज हो जाये।यह एक खतरनाक खेल बन गया है ऐसे कई विज्ञापन जो इमोशनल ब्लेक मेल कर अपना  उत्पाद  खरीदने को मजबूर कर देते है क्योंकि  हम    आसानी से  भावुक  होते है l 
  
       प्रसूति के समय और गम्भीर बीमारी के समय  कुछ डॉ जिस तरह मौके  की नजाकत को भांप कर इमोशनल ब्लेक मेल करते है कि  अच्छे -अच्छे अपने आप को कठोर दिल का समझने  वाले भी पिघल जाते है और इमोशनल ब्लेक मेल की कला से सम्मोहित से हो जाते है और डॉ को कहते है की जैसा आपको उचित लगे वह करिये  खर्चे की चिंता न करे  डॉ सा का काम आसान हो गया और नोट छापने का काम चालू  हो गया यह इमोशनल ब्लेक मेल की कला का  ही  कमाल  है l
    तथा कथित संत बाबा भी इस कला के माध्यम  से लाखों  करोड़ो आसानी से ऐंठ लेते है यह सब इमोशनल ब्लेक मेल में  इतने माहिर होते है कंजूस को भी भावना से  भड़का कर उसे भी  मजबूर कर देते है जैसे सूखे हुए नीबू से रस कैसे निकलेगा  इन्हे महारथ हासिल है l
                   चुनाव में इमोशनल ब्लेक मेल का कार्ड खेलकर वोट हथियाने  की हर नेता और हर दल पुरजोर कोशिश करता है ,जो जितना इसमें निपुण होता है वह उतना ही
सफल होता है ,जीवन में पग -पग पर जो इसकी नौटंकी कर सके वही इस भावनात्मक
महासागर में तैर  सकता है l
                       
                       किसी सरकारी /निजी संस्थान में छुट्टी की इतनी मारामारी रहती है कि कुछ को तो हर बात पर छुट्टी चाहिए क्योकि यह उनकी आदत में शुमार है वे किसी की मौत  या बीमारी बताकर  इमोशनल ब्लेक मेल का सहारा लेकर ,मरे हुऐ को कई बार मार देते है जो इस धरा पर आया ही नहीं  उसका भी उपयोग  कर लेते है   हर मनुष्य भावना से ओतप्रोत  रहता है  जिसका फायदा उठानेवालों  की कमी  नहीं  है l

                   इमोशनल ब्लेक मेल ने जहां  मनुष्य को असवेंदनशील  बनाने में महत्व
पूर्ण भूमिका है l समय -समय पर इमोशनल ब्लेक मेल  का फायदा हर कोई उठाने को आतुर रहता है चाहे राजा हो या रंक ,गरीब हो या अमीर ,संत्री  हो या मंत्री ,छात्र हो या शिक्षक ,मरीज  हो या डाक्टर ,महिला हो या पुरुष। हर मनुष्य की  यह स्वाभाविक प्रवृति है कोई इससे अछूता नही हैl इसका तड़का न हो तो समाज में नीरसता का भाव पनपने
लगता है हम इसके आदि  जो हो गए  हैं l
              
  संजय जोशी 'सजग "[ व्यंग्यकार ]