शनिवार, 23 अगस्त 2014

जनसंदेश टाइम्स[में प्रकाशित दिनाक 24/08/14[वाराणसी। इलाहाबाद ,लखनऊ ,कानपुर एवं गोरखपुर का प्रमुख समाचार पत्र ]


शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

मूड़ है की मानता नहीं [व्यंग्य ]

मूड़  है की मानता  नहीं [व्यंग्य ]

                           
               
                  जिस प्रकार चायना के  मॉल का कोई भरोसा नहीं  रहता है फिर भी इसका
उपयोग करना हमारी जिन्दादिली  है ,उसी तरह आजकल मूड़  का कोई भरोसा  नही   कब खराब हो जाये   यह  एक गंभीर  समस्या  बन गई है किसका  मूड़ कब  खराब हो जाये  कुछ  भी कहा  ही नहीं  जा सकता l वैज्ञानिकों  का  भी  खोज -खोज करते -करते मूड खराब हो जाता है कि  इसे टेंशन की एक अवस्था कहा जाये  या इसे मानसिक विकार की श्रेणी में रखा जाये  इस पर चर्चा करते -करते मूड खराब हो जाने के कारण अन्तिम निष्कर्ष बार बार  टल  जाता है l जिसको  देखो उसका मूड खराब है यह एक तकिया कलाम सा बन गया है ,किसी   हँसते  हुए से यह पूछ लिया और क्या हाल है  ?उत्तर मिलेगा मूड़ ख़राब है न जाने वायुमंडल में क्या  ऐसा प्रभाव हुआ की मूड़  ख़राब रहना मनुष्य का स्वाभाविक गुण हो गया है l
              मूड़ खराब होने की गुत्थी मेरे दिमाग में बार -बार  उलझती जा रही थी इसे सुलझाना  तो बहुत दूर  यह समझ से परे थी l मैं  सोच ही रहा था कि  क्या किया जाय तब अचानक मेरे दिमाग में कौन बनेगा करोड़पति में लाइफ़ लाइन के एक  ऑप्शन फोन अ फ्रेंड का विचार आया कि  क्यों न किसी मित्र को फोन लगाकर  जानकारी ली जाए  अब किसे फोन लगाया जायें ? फिर एक प्रश्न खड़ा हुआ ,मैंने  मन बनाकर मनोचिकित्सक   डॉ  साहब को फोन लगाया और पूछा की सर जी क्या हाल है
डॉ ,साहब  बोले -क्या बताऊँ  मूड़   बहुत खराब है
मैने पूछा क्या हो गया ?
डॉ साहब का उत्तर था-बस यूँ  ही क्या कहूँ  दिमाग काम नहीं  कर रहा है l
मैंने  सर पीटते हुए कहा  गई भेंस पानी में l
 और  पूछा की ऐसा क्यों  होता है कि  किसी  का कहीं  भी  कभी भी  मूड़ खराब  हो जाता है ? डॉ साहब के बोलने का लहजा अब रुखा होता जा रहा था और मैं  बैचेन था  मैंने  कहा डॉ  सा.कृपया मेरी  सहायता करिये--वे बोले समय हो तो इधर ही आ जाओ l मैंने   कहा आता हूँ ,मैंने तो कमर कस ली थी इस मूड नामक  बीमारी को समझने की  l मैं  उनके घर जा धमका  l मुझे देख कर  गंभीर होकर डॉ साहब ने थोड़ी तेज आवाज में पूछा कि बोलो क्या काम है ?

   मैंने  जिज्ञासा भरे लहजे में कहा कि  सर जी  आजकल मूड खराब होना  बचपन से पचपन और उसके आगे भी ,संत्री से मंत्री ,छात्र से लेकर अध्यापक ,मरीज से लेकर डॉ तक सब इसी बीमारी से ग्रस्त है कहीं यह महामारी न बन जाए ,सरकारें भी इस बीमारी से अनभिज्ञ है  इसके लिए तत्काल सर्वे की जरूरत न पढ़  जाए l  डॉ साहब अपना मूड़  संभालते हुए बोले कि आये दिन इस अज्ञात बीमारी के मरीज निरंतर बढ़  रहे है वे  कहने लगे कि  क्या इलाज करूँ  ?मैंने  कहा यह तो आपका क्षेत्र है l  वे मूड़ खराब  होने  का ज्ञान बांटने   को तैयार हो गए और मैं  मौन धारण करके सुनता रहा क्योंकि  बीच में बोलने से डॉ साहब के मूड़  ख़राब होने का खतरा मंडराता हुआ नजर आ रहा था l


                     डॉ साहब अब अच्छे मूड़  में दिख रहे थे कहने लगे -आजकल सुबह की शुरुआत ही बेड हो जाती है  उठते ही बेड टी  की आदत जो हो गई है फिर हाथ में आता है बलात्कार,खून  अपराध ,भ्रष्टाचार  ,बढ़ती महंगाई  से भरा अख़बार  मूड खराब करने को काफी है मूड़  खराब करने की दूसरी बड़ी समस्या या वजह जाम का आम होना ,और यह लेट पहुँचने से  बॉस  की आँख  की किरकिरी  बनकर हमेशा तिरस्कार का भागी बनकर मूड़  खराब होने  की यातना को  भोगता है साथ ही हर जगह चमचों  के  हमलों का प्रकोप, काम का दबाव ,कम मेन पॉवर में ज्यादा  काम भी मूड खराब के सूचकांक में वृद्धि करता है l शाम को फिर वही जाम फिर बुरा अंजाम और  अब घर वालों   की अपेक्षा पर  खरा  उतरने  की जद्दोजहद क्या करें  कोई कितना ही  बुलंद हो फिर भी मूड़ खराब  हो ही जाता है,l मूड़ खराब  का साइड इफेक्ट  से मानसिकता कमजोर हो जाती है और  गुस्से की उत्पत्ति   हो जाती है जैसे आये दिन  सदन में भी ऐसे दृश्य   देखे जाते है  मुद्दे से हटकर बोलने लगते है इन सबकी जड़ तो मूड़  ही  है मैने बीच में  टोकते हुए  कहा कि  डॉ आपने इसकी महिमा का गुण  गान किया है अब कोई उपाय  तो बताइये तो -डॉ साहब ने टालते हुए कहा की मित्र अगली बार l मैंने  मन ही मन कहा कि  खुद ही इससे पीड़ित है  क्या बताये   इलाज ?मूड अच्छा करने के लिए लोगबाग क्या-क्या जतन करते  है पीने वाले को पीने  का बहाना चाहिये है कुछ तो नेट पर चेट और मोबाइल से ही चिपके रहते है मूड़ को ठीक करने के लिए l
                दिल क्या करे मूड  है कि मानता  नहीं   और हम डूबेंगे सनम आप को भी ले डूबेंगे खराब मूड़  में --- मेरा मूड़  खराब है तेरा खराब न कर दूं तो मेरा नाम नहीं  l

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

आत्म चिंतन पर चिंतन [व्यंग्य ]

आत्म चिंतन पर चिंतन [व्यंग्य ]

                किसी भी विषय पर चिंतन करना समाज और देश के लिए बहुत जरूरी है पर देश में चिंतन का वातावरण ही नहीं  है सब के सब चिंता में ही लगे हुए है चिंता और चिता में एक बिंदी का ही अंतर है जो हर मनुष्य के लिए घातक है चिंता की बजाय चिंतन को बढ़ाने के प्रयास बहुत जरूरी है  l  एक न्यूज़ की कटिंग  लेकर भटकते हुए एक चिंतक आये और कहने लगे कि  थोड़े दिन में देश में चिंता को छोड़ कर चिंतन करने वाले बढ़ जायेंगे तो  मैंने  कौतूहलवश पूछ लिया कि ऐसा क्या चमत्कार होने वाला है
 तो वे कहने लगे सब को आत्म चिंतन केंद्र की सुविधा जो  मिलेगी ,
मैंने  फिर पूछा-यह क्या होता है ?
वे बोले आपको नहीं  मालूम कि शौचालय को हिंदी में "आत्म चिंतन केंद्र" कहते है
वे सबके लिए बनाये जायेंगे  जिससे चिंतन को नई गति मिलेगी , अभी जिनके पास है
वे अपने आप को  अच्छा और विकसित मानते है और जिनके पास नही है  उन्हें तुच्छ और पिछड़ा माना जाता है वे कहने लगे अधिकतर मनुष्य नाम के प्राणी अपने आप को ज्यादा  तनाव मुक्त वहीं  पाते होंगे  I  देश की हर समस्या का चिन्तन  उसी आत्म चिन्तन केंद्र  में करते होंगे शायद तभी विवादित बयानों की  इतनी बौछार होती है  बेचारा  वह क्या  चिंतन करेगा जिसके पास चिंतन केंद्र ही नही है उसके लिए तो यह अभिशाप है वैसे यह चिन्तन केंद्र  आजकल बहुतायत में पाए जाते हैं  पर सबका स्वरूप भिन्न -भिन्न  होता है जेसे वी . आई .पी .लोगों  .का पांच सितारा , .जन सामान्य का  साधारण .गरीबों  का सार्वजनिक ,और बाकी  बचे हुए  लोग  खुले  स्थान  की और रुख करने को मजबूर है l  खुले में चिंतन करने में  प्रकृति  के दृश्य विघ्न पैदा करते है ,और जीव जंतु का भय  सताता सो अलगl
  
         अत: चिंतन  का दायरा भी अलग अलग होता है  एक मंत्री ,नेता ,कवि ,लेखक ,पत्रकार ,व्यापारी ,अधिकारी और  सबका अपने  चिन्तन का विषय अपने  कार्यानुसार होताहै I  मैंने  कहा बेचारा गरीब आदमी ...तो अपनी रोजी -रोटी और बढती  महंगाई का चिन्तन कर दुखी होता है और चारा ही क्या है,आजादी की बाद से ही यह मुख्य मुद्दा रहा है सबने भुनाया और बाद में भुलाया  , फिर भी ढाक के तीन पात l  लगातर उनका चिंतन का बखान जारी था उनका कहना थी कि सरकारें   केवल चिंता  करती है और ठोस योजना का अभाव ही रहता है , इस समाचार के मुताबिक सबको यह सुविधा मिलेगी ऎसी  आशा अधिक  व विश्वास तो कम ही   है कि ऐसा  हो पायेगा बायचांस अगर हमारे देशवासियों के पास १०० प्रतिशत ऐसे केंद्र हो तो सब चिंतनशील हो जायेंगे  और सरकार के  हर कदम का  चिंतन  करेंगे ओर जिससे कर्णधारों  को सबसे ज्यादा  नुकसान होगा वे इस दर्द को समझते है  लेकिन  इसके प्रति चिंता को दर्शाना  उनका कर्तव्य है और  चिंता की रस्म  अदायगी कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेते हैं  l
                  ऐसे केंद्र समाज और देश के विकास का आयना होते है मैंने  उन्हें कहा कि
आपने जो अपना चिंतन बताया है उससे लगता है कि  निंदक नियरे राखिये की बजाय चिंतक नियरे राखिये जिससे कुछ नया ज्ञान प्राप्त  होता रहें  l और आत्म चिंतन पर चिंतन की प्रेरणा का प्रदुर्भाव होता रहें  l
                                   
 
                     
संजय जोशी "सजग " [ व्यंग्यकार ]

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

सियासत का बढ़ता डिग्री सेल्सियस

सियासत का बढ़ता डिग्री सेल्सियस
          
      डिग्री -डिग्री के शोर  में सियासत के  तापमान को कई डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया l सियासत में डिग्री का सामान्यतया कोई ज्यादा महत्व नहीं  रहता  है और न  ही कोई जरूरत महसूस की गई  यह व्यथा  डिग्री धारी  अधिकारी की है कि  पंच से लेकर देश के सबसे बड़े पद के लिए आवश्यक शिक्षा और उम्र का  कोई मापदंड नहीं  है और न रहेगा  क्योंकि  बगैर डिग्री,  नेतृत्व देने वाले नेताओं  की एक परम्परा है कोई  इसे कैसे तोड़  सकता है ? सरकार चलाने वाले पर्दे के पीछे  अपना  काम करने वाले  डिग्री धारी अधिकारी कड़वा घूँट पी कर अपनी डिग्री को कोसते है कि  हमसे  अच्छे तो ये है पर इनके  बीच काम करना  हमारी  मजबूरी है हो सकता है कि  हमारे पूर्व जन्म  के  पाप  का नतीजा हो  पर सहना तो पड़ता है  भारी मन से और  हमें लगता  भी है कि  कुछ नहीं  होने वाला है l  पुराने लोग हमेशा यह उक्ति कहा करते थे कि  ,पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब ,खेलोगे  कूदोगे बनोगे खराब ,वर्तमान के संदर्भ में -पढ़ोगे लिखोगे बनोगे खराब ,खेलोगे  कूदोगे बनोगे नवाब l ,क्रिकेट में तो यह सच साबित हो रहा है बिना डिग्री के ही कहां  से कहां   पहुँच गये और हीरो  बन गए l सियासत में भी यही हाल है डिग्री की कोई वेल्यू नहीं  है फिर भी सियासत का डिग्री सेल्सियस  डिग्री के कारण चरम पर  है सियासत  में रोज -रोज के तापमान का डिग्री  सेल्सियस उतार चढ़ाव  के नित नए आंकड़े छूता है l
             एक युवा नेता ने कहा कि  थ्योरी और प्रेक्टिकल में भारी  अंतर को समझकर  कबीर दास जी सब डिग्री वालों  को  पहले ही निपटा गए और कह गए पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पंडित हुआ न कोय इसका  सीधा मतलब है कि कितना भी  पढ़ लो सर्वज्ञ नही हो सकते है l और कहने लगे डिग्री तो आपके ज्ञान को सीमित  कर एक ही विषय का विशेषज्ञ  बनाती है हमारे देश के  कर्णधार इस बात को बखूबी  समझते है जब तो डिग्री के पचड़े  में न पड़कर अपने आप को हर विषय का जानकार  याने की   सर्वज्ञ समझ कर किसी भी विभाग का  जिम्मा ख़ुशी -ख़ुशी लेकर देश की जनता की सेवा करना  अपना कर्तव्य   समझते है मैंने  कहा सही फ़रमाया जनता को एक प्रयोगशाला  समझ कर प्रयोगधर्मी हो गए ,अच्छा हुआ तो हमने  किया और बुरा हुआ तो देश की जनता जागरूक नहीं  है l देश में सियासत की डिग्री सेल्सियस को और उच्चतम करने में हमारा दृश्य मिडिया भी कोई मौका नही छोड़ता  है पर जब डिग्री पर ही डिग्री   सेल्सियस बढ़ने लग जाय तो ऐसे में  ए.सी में भी दिमाग काम करना बंद कर देते है l जिनके पास डिग्री नहीं  है वे भी दुखी और जिनके के पास है वे भी दुखी l किस्मत अपनी -अपनी घोड़ो को घांस भी नसीब में नही और गधे गुलाब  जामुन ही नहीं  च्वयनप्राश खा रहे है l कुछ बनियान में इतनी ताकत है कि पहनने से लक बदल जाता है पर यहां तो सरकार बदलने पर भी लक नहीं  बदलता है हमारी विडंबना है l डिग्री कुछ मेहनत व ज्ञान से तो  कुछ जुगाड़ से प्राप्त करते है जब से व्यापम घोटाला बहुत चर्चित हो गया है उसके बाद से बेचारे डिग्री वाले को बुरी नजर से देखते है कि  कहीं  जुगाड़ की तो नहीं  है l डिग्रियों की दुर्दशा यह है कि  डिग्री सही रोजगार देने में बुरी तरह विफल हैl नेता और अभिनेता  दोनों का ही डिग्री से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं  ,जो चल गया सो चल गया l
                    कब्र में पांव लटकाये एक नेताजी कहने लगे कि  राजनीति में जितना सोशल इंजीनियरिंग का जानकार होगा उतना ही सफल होगा इसकी कोई डिग्री नहीं है फिर अपने आपको डॉ समझने  वाले भी  कम नही है ,सियासत तो तजुर्बा मांगती है और डिग्री  केवल शिक्षा  देती है तजुर्बा नहीं   l तजुर्बे वाला चलता नही दौड़ता है l मैंने कहा कि  कब तक दौड़ेगा और डिग्री धारी कब तक   रेंगता रहेगा l उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और चर्चा का अंत हुआ l

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

पत्र हिंदी के नाम [व्यंग्य ]

पत्र हिंदी के नाम [व्यंग्य ]

   ऋषभ जी  एक  हिंदी के लेखक है जो हिंदी की वर्तमान अवस्था से बहुत पीड़ित और दुखी है अपना दुःख बांटने के लिए राष्ट्र भाषा हिंदी को पत्र लिखने का निर्णय  लिया  और लिखा भी  लेखक लिखने के अलावा कर भी क्या सकता है उनका यह पत्र ----
 
                आदरणीय राष्ट्रभाषा हिंदी    ---शत -शत  नमन
               
                      आपकी सेहत तो दिनोंदिन  बिगड़ती जा रही है  या  फिर बिगाड़ने का प्रयास किया जा रहा है आये दिन समाचार सुनकर,देखकर ,पढ़ कर आपकी गिरती सेहत से आपको चाहने वाले दुखी और हताश है आजादी के लिए आपका भरपूर उपयोग किसी से छिपा नहीं है पर   उसके बाद पर जो सम्मान मिलना चाहिए व आजतक नहीं  मिला  और मिलने के आसार भी नजर नही आरहे है,जिसका मुख्य कारण कथनी और करनी में भारी अंतर   है आप को प्यार करने वालों  को  बुरी  नजरों  से देखा जाना आम बात है तथा उन्हें  पिछड़ा औए अविकसित माना जाता है और आपके सम्मान  के खातिर डंडे खाने और पुलिस के  अत्याचार पर भी  किसी को रहम नहीं  आता है lहिंदी का होता चिर हरण  तब हिंदी के भीष्म पितामह  भी क्यों  मौन हो जाते  है आज भी  है  कृष्ण की  आवश्यकता   l

  
    वादें  और कसमें  खाने में हम सबसे  आगे है   फिर भी स्वतंत्रता के बाद से  हिंदी को गौरवशाली स्थान न दिला  पाना हमारी  कमजोर  इच्छा शक्ति का परिणाम है लगता है प्रयास  हुए पर सिर्फ  रस्म अदायगी  तक  ही  सीमित  रह गए   लगता है दिल और दिमाग से नहीं  किया गया मात्र हिंदी प्रेमी होने का दिखावा किया  जाता रहा है जो आज भी लगातार  जारी है l माता -पिता भी तो मम्मी और डेड हो गए l तभी  हिंदी के सब सपने डेड हो गए है  साथ ही ड्रेस, व खान-पान भी विदेशी जैसे पिज्जा ,बर्गर ,हॉटडॉग ,और नूडल्स के  क्रेजी हो गये l बदली भाषा ,बदले तेवर और रंग ढंग lहम उस देश के वासी है जहां तथाकथित अपने आप को आधुनिक समझने वाले बच्चो के हिंदी में बात करने पर अपने आप को अपमानित समझते है l देश की विडंबना है कि अंग्रेजी  माध्यम के बच्चों  को सौ  तक के अंक भी हिंदी में नहीं  पता  होते है l

            आपके परम भक्त पद्म जी कह रहे थे कि  किसी की ये पंक्तियां  " अपनों ने  ही लूटा गैरों  में कहां दम था ,कश्ती  वहीं  डूबी जहां पानी कम था  " हिंदी की दुर्दशा के लिए सटीक है l कोई सा भी क्षेत्र अछूता नहीं है हर जगह हिंदी को महत्व न के बराबर दिया
जाता है l केवल राष्ट्र भाषा का बोर्ड लगाने मात्र से ही सब कुछ सम्भव नहीं  है दिल और
दिमाग से अपनाने से ही  हिंदी का उत्थान होगा l  हम क्यों आलसी और उदासीन रहते है
अपनी भाषा के प्रति? यह एक विचरणीय प्रश्न  है जिसका  उत्तर कभी भी आसानी से नहीं
मिल सकता उसमे भी आलस आ जायेगा या प्रतीक्षा  करेंगे कि दूसरा कोई दे ही  देगा l
                  एक पेशे से पत्रकार जो आपकी  प्रगति के लिए हमेशा तत्पर रहने वाले
ने अपनी व्यथा कुछ इस तरह बतायी कि  हिंदी समाचार  में "हेड लाइन "ब्रेकिंग न्यूज़ "
जैसे शब्दों का उपयोग करके हिंदी को गर्त में धकेलने में अपनी महत्व पूर्ण भूमिका का
निर्वाह कर रहे है जब तक भाषा के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं  समझेंगे उसका अपमान करते रहेंगे l
             
            हमें  आशा हीं  नहीं  पूर्ण विश्वास  है कि  अच्छे दिन के आने की बयार  में आपके भी अच्छे दिन आयेंगे  आप चिंता न करें  उम्मीद पर खरे ही उतरेंगे आपके चाहने वाले l
                                                                        आपका अपना
                                                                            ऋषभ
                                                                        हिंदी भक्त और लेखक
                
                          

रविवार, 3 अगस्त 2014

टमाटर की टर्र -टर्र

      टमाटर की टर्र -टर्र
        
                    अभी तो  टमाटर की टर्र -टर्र  चल रही है हर किसी की जुबान पर होकर
भी न होना बड़ी त्रासदी  है चुनाव में नेताओ की टर्र -टर्र आम बात है बारिश में मेंढक  की टर्र-टर्र होना स्वाभाविक है पर अचानक टमाटर के  टर्र -टर्र  होने  की खबर  मात्र से आम आदमी को टमाटर  सेवफल जैसा नजर आने लगता है क्योकि  सेवफल का आहार  तो  वह केवल बीमारी के समय ही डॉ सा के  कहने पर बेमन से  लेता है अब उससे टमाटर भी दूर हो जायेगा इस दुःख से तनाव के कारण वह ब्लड प्रेशर का मरीज हो गया l सबके दिन फिरते है सजीव हो या निर्जीव यह कुदरत  का खेल है जैसे कभी  नाव में गाड़ी तो कभी गाडी में नाव l वैसे ही आजकल टमाटर हर और छाया हुआ है बाजार में इसकी इमेज को चार चाँद लगे हुए है कुछ तो डॉलर और पोंड से ज्यादा कीमत से होने के कारण फुले नही समा रहे है ज्यादा भाव के कारण प्राकृतिक चिकित्सा वाले वाले भी सहम  गए है   कि  अगर टमाटर का प्रयोग बता दिया तो मरीज ही भाग जायेगा l
            निरंतर टमाटर  के  भाव बढ़ने पर  किसान से भाव पक्ष जानने के लिए,अपने  आपको आधुनिक किसान कहने वाले तेजु काका को कहा कि  टमाटर  के भाव ने तो आपके चेहरे  की और चमक और बड़ा दी --मेरा इतना कहना था की कहने लगे जब हमें  टमाटर के उचित भाव क्या लागत  भी नही मिलती  थी  तब हम उन्हें फेंक देते  थे  जब कौन आया था ?कहां थे न्यूज़ चैनल वाले,पक्ष ,विपक्ष के नेता आज तक फसल का उचित मूल्य मिला ही नही किसानों  को कभी। ऐसे ही कभी -कभी  गलती से किसानों  को कुछ फायदा मिल जाता है तो देश में हा -हा कर मच जाता है विधायक ,सांसद और  मंत्रियो के भत्ते तो आये दिन बढ़ते रहते है बेचारे किसान तो प्रकृति पर निर्भर रहते है , और प्रकृति के रुष्ट होने का मुआवजा मिलता ही नही है और बॉयचांस मिल भी जाता है तो ऊंट के मुह में जीरे की  भांति होता है l बेचारा  आम किसान  तो कर्ज में  जन्म लेता है और कर्ज में ही मरता है l
                टमाटर की टर्र -टर्र में  पक्ष और विपक्ष का गुण -धर्म  अलग- अलग  होता  है सबके पास अपना -अपना धर्म निभाकर घड़ियाली आंसू बहाकर सब को बहला -फुसलाकर अपना उल्लू सीधा कर लेने में महारथ हासिल रहती है l न्यूज़  चैनल  ने लोगो पर टमाटर की टर्र -टर्र का  ऐसा प्रभाव डाल दिया कि  टमाटर ही सब कुछ है बेचारी गृहणियों  को  टमाटर युक्त व्यंजन मांग कर  परेशान करने  वालों  कि  कमी नही है आजकल होटलों मे भी ये सलाद से नदारद है मांगने पर ही दिया जाता है   हमारी  प्रकृति ही कुछ ऐसी है जो  चीज महंगी व जिसकी कमी है वही  अच्छी  लगती है l और सरकार भक्तों  का तर्क है कि  टमाटर कुछ दिन न खाओगे तो क्या सेहत पर कुछ अंतर  पड़  जायेगा पर लोगो का दिल है कि टमाटर के बिना मानता ही  नहीं  है l और टमाटर की टर्र -टर्र जोरों  पर है कब तक चलेगी किसे पता ?