बुधवार, 23 अप्रैल 2014

पराधीन सूख सपनेहूँ नाही [व्यंग्य ]

   पराधीन  सूख सपनेहूँ  नाही [व्यंग्य ]


    हम सब राजनीतिक पराधीनता से ग्रसित और व्यथित है हमे राजनीतिज्ञ जो सपने दिखाते है उसे देख कर हम अपने भविष्य का ताना  बाना बुन लेते हैं और सपने देखने में तल्लीन हो  जाते है और हमारा  मीडिया अपनी निष्पक्ष छवि को कायम रखने में गच्चा खा जाता है या ऐसा अहसास कराता  है क्योंकि  वह भी सच से दूरी बनाकर सपनों  को मसालेदार और चटखारेदार बनाकर परोसने का काम करता है जिससे जन -जन सब भूल कर उन सपनो में खो जाता है और हसीन सपने देखने लगता है l सपने दिखाना राजनीति का हिस्सा है और देखना हमारा प्रकृति प्रदत्त एक गुण है जो केवल  मानव के पास ही है अत; वह इसका पूरा दोहन करता है lचायना के  माल की तरह देश की राजनीति का कोई भरोसा नही है ...देश के विकास के लिए कसमें खाना आसान और निभाना बहुत दुरुह  है ..दूसरों  की गलती का फायदा  ये लोग कब तक उठायेंगे  है तो सभी एक थैली के चट्टे  -बट्टे  I

                    वर्तमान में कई लोग मुंगेरीलाल की तरह हसीन सपने देखने में लगे है कि अच्छे दिन आने वाले है इससे कई लोगों को तो संपट पड़ना बंद हो गया और वे स्वप्न लोक में विचरण करने लगे है ,सब अपने -अपने स्वप्न अपनी कल्पना के आकार  के अनुरूप  हसीन सपने देखने में मशगूल है कुछ ने तो अभी से ही काम करना बंद कर दिया कि सबके  अच्छे दिन आ ही रहे है बाकि सब बाद में देख लेंगे अभी तो खाओ पियो ऐश करो की राह पकड़ ली है युवा तो इस कदर भ्रमित  है कि  नया सोचना ही छोड़  दिया है  कुछ युवा तो सब कुछ छोड कर फेस बुक ,ट्विटर  और वाट्सएप  के  माध्यम से  अपने सपने ढूंढ रहे है युवा शक्ति और युवा जोश से अपना होश खो कर हर हाथ शक्ति और हर हाथ  काम के सपने को अपने दिल में समाये  बैठे  है  तो कोई  है कि  सब चीज फ्री  पाने  की जुगत और बिना मेहनत के जीने के सपने में व्यस्त और  मस्त है सभी दलों ने कुछ -कुछ सपने दिखाए  है l आप और हम जानते  ही हैं कि  सपने कितने सच होते है l एक गाने के बोल भी है सपने तो सपने कब हुए अपने आँख खुली और टूट गए l
                                 
   जिस दिन से  चुनावी महासमर का आगाज हुआ उसी दिन से मीडिया ने भी कमर कस ली , पर हर किसी के बस में नही कि  राजनीति  को इतना  झेला जाये टीवी आँन  करते ही रैली का रेला ,रोड़ शो ,अनाप शनाप बयान  और आकषर्क विज्ञापन जो तरह -तरह से वोट की गुहार कर रहे है  कहीं हवा , कहीं आंधी ,कहीं लहर , कहीं  सुनामी की खबरों ने करीब करीब सबको पका दिया है , आखिरी  दिन तक ऐसा ही चलेगा जिसमें   हर दल स्वहित की बात करेंगे और उन सपनो में जनहित के  मुद्दे इतने शोर में यूँ ही दब जायेंगे  कि  पता नही  चलेगा सपने किस करवट पर बैठेंगे। तुलसी दास जी ने सही ही कहा  है …

              पराधीन सूख सपनेहूँ नाही l
              सोच -विचार देखि मन माहि l l            

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

घोषणा पत्र का झुनझुना [व्यंग्य ]

घोषणा पत्र का झुनझुना [व्यंग्य ]

                आम तौर  पर छोटे बच्चे को बहलाने फुसलाने के लिए झुनझुने का प्रयोग
किया जाता है उसकी आवाज और आकृति बच्चे के मन और मष्तिष्क पर इस कदर
प्रभावशाली होती है या यूँ कहे कि वह उससे सम्मोहित हो जाता है और वह  अपनी पुरानी
अवस्था से बाहर निकल कर  सबकुछ भूलकर खुश होकर आशावान हो जाता है कि सब अच्छा होगा l चुनाव में  घोषणा पत्र झुनझुने कि भूमिका में होता है ,हर पार्टी इस झुनझुने के सहारे नैया पार करने कि अभिलाषा रखता है यह केवल आश्वासन का पुलिंदा  मात्र होता है जेसे बच्चो के लिए अलग -अलग डिजाइन और अलग -अलग आवाज वाले झुनझुने होते है उसी की  तर्ज पर घोषणा पत्र भी स्वार्थ के मुताबिक और लोक लुभावन होते है जनता इस झुनझुने से अपने सब दुःख दर्द भूलकर नई  उम्मीद कि किरण खोजती है शॉर्ट टर्म  मेमोरी होने कारण  फिर माया जाल में फंसकर वही गलती कर बैठती  है  हमेशा की तरह , सिर्फ लेबल बदलने से कुछ नही होता है l
                 
                       हर चुनाव में भांति -भांति  के झुनझुने बजाने का काम किया जाता है
आजकल फ्री याने मुफ्त में बांटने कि होड़ लगी है हर कोई इस ब्रम्हास्त्र का उपयोग करने
को उतारू है स्वार्थ  कि भावना  कूट -कूट कर  जो भरी है बस उन्हें तो केवल वोट चाहिए और येन केन प्रकारेण सत्ता चहिये इसलिए घोषणा पत्र का झुनझुना बजाते है और अपने आप को गर्वित महसूस करते है तब यह भूल जाते है कि  देश में खाद्यान्न  का उत्पादन करने वाला किसान आत्महत्या क्यों करता है उत्पादन और  वितरण के बीच में कितनी बड़ी खाई है यह हमारे  देश की  राजनीति कि विडंबना है कि बड़े -बड़े दावे और वादों  के  बीच  उसकी चीख सुनी नहीं  जाती है या उससे कोई सारोकार ही नहीं   है l इस कला में वे इतने निपुण हो गये कि हम  सब को बौना  ही समझते है l
                  अभी तो घोषणा पत्र का झुनझुना बजाकर अपना उल्लू सीधा कर लेते है और हम सबको  अगले चुनाव तक उल्लू बनकर रहना पड़ता  है यह तो उनका चुनाव जीतने का हथकंडा  मात्र है जीतने के बाद में तो आँख दिखाकर कदम -कदम
पर अत्याचार ,शोषण ,भ्रष्टाचार ,वादा खिलाफ़ी के ढोल बजाने  लगेगे और पास के ढोल
हमारे कान पर कहर  बरसाएंगे l बुद्धिजीवियों   और श्रमजीवियों का जुमला  है कि कोई भी जीते कोईभी हारे हमें  क्या फायदा सही भी है इतने सालों  का तजुर्बा सबको  हो चुका है l कितनी सटीक कहावत है कि "कोई नृप होय हमें  का हानि "l

रविवार, 13 अप्रैल 2014

सोशल नेटवर्क साईटस प्रदूषण की शिकार

आलेख                       सोशल नेटवर्क साईटस प्रदूषण की शिकार
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 सोशल नेटवर्क साईटस की कल्पना  विराट  सोच का नतीजा है इसका उपयोग ईमानदारी और समझदारी से किया जाये तो सब के लिए बहुत उपयोगी है परन्तु ईमानदारी तो बची ही नहीं ओर समझदारी के क्या कहने जरूरत से ज्यादा हो गई ,जिसके परिणाम स्वरूप ये प्रदूषण का शिकार  हो गई है

           सोशल  नेटवर्क साईटस, सोशल न होकर भड़ास निकालने की  साईट हो गई है और रही सही कसर राजनीति की घुसपैठ ने पूरी कर दी  जहाँ -जहाँ राजनीति में दल-दल है सोशल नेटवर्क  साईटस भी  इसके दुष्परिणाम  से अछूती  नही रही ,इन साईटस  पर घटिया राजनीति का दौर चल रहा है  जिससे आम यूज़र्स अपनी  रचनात्मकता को खो बैठा है और सकारत्मक उपयोग  करने वाले महिला और पुरुष धीरे-धीरे इससे मुँह मोड़  कर  कन्नी काटने लगे है क्योंकि इस विचारों के मंच को प्रदूषित कर दिया है वह दिन दूर नही इसे केवल राजनीति वाले ही उपयोंग करे ,आजकल जन सामान्य का राजनीति के प्रति घृणा के  भाव चलते ये  भी अछूती  नही रहेगी और  ये सोशल न होकर केवल राजनीतिक साईट  न बन जाये पर एक विचारणीय पक्ष यह है की  हमारे देश की अधिकांश जनता गाँवों में निवास करती है और शिक्षा का स्तर भी कम है ऐसे में इन साइट्स पर राजनितिक वार  का  आम जन पर क्या प्रभाव पड़ेगा समझ से परे है सभी  पार्टियों ने अपना  संदेश  फैलाने के लिए कमर कस ली है और इसकी मूलभावना पर कुठाराघात कर रहे है l

फर्जी नाम ,फर्जी आई.डी.फर्जी फोटो के  और कट पेस्ट के  मायाजाल के दौर में शुद्ध
रचनात्मक लेखक व रचना कर अपनी पहचान  खोते जा रहे है इन सब को रोकने की लिए सकारत्मक प्रयासों की गम्भीरता पूवर्क विवेचना जरूरी है l

  अश्लीलता ने संस्कारो को लील लिया है निरंतर सांस्कृतिक मूल्यों का हास हो रहा है
जिसके कारण इनकी लोकप्रियता पर बुरा असर पड़े बिना नही रहेगा इन सब के चलते हमारी जीवनशैली में बदलाव आगये है सामजिक मेल मिलाप में कमी के  कारण आजकल हम  अपने सामजिक सम्बन्ध  की कड़ी भी इनके  माध्यम से जोड़े हुए है आजकल ये टाइम किलिंग मशीन हो गई है  .सोशल नेटवर्क साईटस जहाँ ..एक तरफ लोगों को मिलाने का काम  कर रही है वहीं दूसरी तरफ एक तरह की असभ्यता का विस्तार भी कर रही है l

इस सामाजिकता ,रचनात्मकता और उर्जावान विचारो के मंच को दूषित कर दिया है इसे स्वार्थ व उद्देश्य पूर्ति का साधन न  मानकर  उच्च सामाजिक दायित्व का  निर्वाह करते हुए हम सब मिलकर अपनी नैतिक जिम्मेदारी का परिचय दे और इसे  विश्वनीय बनने  हेतु अपनी आहूति देकर  इन्हें  सिर्फ  सोशल नेटवर्क  साईटस  बनाये रखने में अहम भूमिका निभाए l

                          फैल रहा है इसका  जाल
                           बन न जाये जी का जंजाल



----संजय जोशी 'सजग "

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

रस बरसे [व्यंग्य ]

                रस बरसे [व्यंग्य ] 


      हर मौसम कि अपनी विशेषता होती है सब मौसम का रस अलग -अलग होता है गर्मी का मौसम आते ही  गन्ने  को पेल कर रस  निकालने की  मशीन रोड और चौराहे पर इठलाती है और मौन  होकर रस पान का निवेदन करने की  अनुभूति देती है आजकल इस रस के  साथ न जाने कौन कौन से रस जुड़ गए ,चुनावी रस का अपना अलग  ही मजा है,,वोट लेने कि जुगत में रस निकलने कि मशीन कि भाँति   हाथ जोड़कर वोट निकालने के लिए क्या क्या जतन  करने पड़ते है वो तो वहीं   जाने …?
                              नव रस के अलावा और भी कई रस है इसमे एक रस बनारस है
जिसने राजनीति में ऐसा रस घोल दिया  कि सब के सब उसी में लगे हुए है नेता ,जनता ,मीडिया , संत और बाबा  भी l यह  एक ऐसा रस है जिसमे सब को अपने -अपने मुताबिक रस आ रहा है ,किसी को  नारे  से ,तो किसी को पोस्टर जंग  में ,कोई काले झंडे ,अंडे और स्याही की चर्चा  के  रसपान में मस्त और व्यस्त है l
  सोशल मिडिया भी चुनाव  में रसीली हो गई  है  हर कोई विश्लेषक ,रायचंद और अपने विचार  को जबरन थोपने के काम में जुटा  है , तो कुछ तो  अपनी पहचान  छुपाकर धड़ल्ले से फोटो और कार्टून टैग -पर टैग कर रहे है कितने पेज और ग्रुप चुनावी मिठास और कड़वाहट का रस पीने को मजबूर कर रहे है l
                

                            रस के इस  रस भरे मौसम में आम जन भी राजनीति के  रस का पान कर अपनी जागरूकता को दिखाने की  भरसक नौटंकी करता है नेता तो रसपान में मजा लेते है और जनता बेचारी  कड़वे घूंट  पीकर यह तमाशा  देखने को मजबूर है चुनाव का आगाज होते ही  राजनीति में और कई रस का प्रादुर्भाव हो जाता है जो सामयिक होता है मान्यता प्राप्त  नव रस के साथ जिसमें कुछ और रस  जैसे बत रस ,निंदा रस और चिंता रस  का प्रदर्शन कर  सूखे हुए नींबू  से रस निकलने का प्रयास करते है उसी प्रकार अभावो से जूझती ,महंगाई कि मार से त्रस्त  आर्थिक असमानता ,जातिवाद ,भाषावाद ,क्षेत्रवाद से गसित   और हताश जनता को अपने -अपने पक्ष में मत देने के लिए  एड़ी चोंटी का जोर लगाते है उन्हें तो जीतने  के बाद सब रस का आनंद  जो लेना है रस पान में इतने मशगूल हैं कि आपनी नैतिकता और सिंद्धांत को मिलों पीछे छोड़
रहे है l

                      आम का मौसम भी आने की कगार पर है  और चुनाव में आम की पूछ परख   बढ़ना लाजमी है ये ही समय होता है  कि आम के ख्वाब पुरे शबाब पर होते है आम  करे  तो  भी क्या करें कच्चे की  चटनी और पके  का रस निकाला जाता है और वही स्थिति  आमजन की  भी है देश कि प्रगति का  दावा करने वाले केवल लोकल ट्रेन मे ही यात्र कर लें  तो पूरे देश कि आर्थिक व सामाजिक समस्या  से रूबरू  हुआ जा सकता है पर किसे क्या करना है  बस चुनाव जीतने  में ही रस है बाकी सब फुस्स है l
                       रस पान कि परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है पर भोले ने तो विष पान किया था जो कि आज  हम सब  के नसीब में है किसी न किसी रूप में रोज   इसका पान करना ही  पड़ता है और चुनाव में ऐसा रस बरसे  हैं  कि सब का जिया हरषे और नेता एक -एक   वोट  के लिए तरसे और चुनावी रस में मिडिया मसाले का काम करता है कि कही नीरस न हो जाए पूरी कोशिश रहती है l  जीतने वाला जीत कर  सरस होता है आम जन को फिर नीरस होकर फिर  पांच वर्षो का सफर तय  करना पड़ता है l

                 


संजय जोशी 'सजग '
७८ गुलमोहर कालोनी रतलाम [मप्र]
09300115151