सोमवार, 31 मार्च 2014

अप्रेल फूल और चुनावी बयार [व्यंग्य ]



                                   अप्रेल फूल और चुनावी बयार
[व्यंग्य ]

                     एक अप्रेल को अंतर्राष्ट्रीय   मूर्ख दिवस याने कि अप्रेल फूल मनाया जाता है वेलेंटाइन  डे  के बाद अप्रेल फूल का आना यह सोचने को मजबूर करता है कि शायद यह प्यार की  परकाष्ठा ही है जो इस  दिवस कि उत्पत्ति  हुई, ढाई अक्षर के इस  शब्द में गजब की  शक्ति है यह मूर्ख बनने  और बनाने में उत्प्रेरक का कार्य करता हैl मूर्खता हमारा जन्मसिद्द अधिकार है जब तक  धरा पर मनुष्य प्रजाति विद्यमान रहेगी तब तक मूर्ख भी l पढ़ा लिखा मूर्ख एक अनपढ़   मूर्ख से ज्यादा खतरनाक होता है l

                     थ्री इडियट फ़िल्म जबसे हिट क्या हुई सभी मूर्ख ,अपने आप को सम्मानित महसूस करने लगे है और इस पर कालिदास ने भी स्वर्ग  में जश्न मनाया होगा अप्रेल फूल हास्य और व्यंग्य का महापर्व है जब  सभी मूर्ख और महामूर्ख सक्रिय हो जाते है और जिनको अपनी अवस्था का भान नहीं  है उन्हें अवगत कराने का ठेका इनके पास ही है और मूर्खो का यह पर्व चुनावी वर्ष में आ जाये तो फिर क्या कहना जनता और नेता दोनों एक दूसरे को मूर्ख ही समझते है जनता वोट देकर पूरे पांच  साल के लिए मूर्ख बन जाती है और नेता पूरे पांच साल तक मूर्ख बनाने  का लायसेंस लेकर  झूठे वादे ,आश्वासन और सुनहरे सपने दिखा जाता है l

                        एक नेताजी चुनावी रंग में पूरी तरह डूबे हुए थे। मैंने उन्हें मजाक में
"अप्रेल फूल  क्या कह  दिया ,चुनाव के समय में  उन्होंने उसे गंभीरता से लेते हुए कड़े तेवर में  कहा कि नेता नहीं  जनता मूर्ख है वो हमें  चुनती है हमारी क्या गलती है मैंने उन्हें चिढ़iने के अंदाज में  कहा  कि ये सही फरमाया आपने जनता  कभी सांपनाथ और कभी नागनाथ को चुनती है ,आपका कोई दोष नहीं  हैl चमचों  से घिरे नेताजी में से एक स्मार्ट सा चमचा परिस्थिति  को भांपते हुए  --अप्रेल फूल फ़िल्म का गाना गाने लगा  नेताजी को खुश करने क लिए। ……
             अप्रेल फूल बनाया तो उनको गुस्सा आया
             इसमें मेरा क्या कसूर जमाने का कसूर
              जिसने दस्तूर बनाया
चमचे ने नेताजी को कहा ठीक हैं दादा ..चलता है . नेताजी  ने उसकी पीठ थपथपाने लगे और जहरीली मुस्कान फेंक कर …कहा कि ये मूर्ख बनाने का उसूल  हमनें   तो नही बनाया .हम तो केवल फालो करते है। मैंने  कहा  कि किसी ने  सही कहा  है कि मूर्खो पर शासन करना आसान होता है ,जनसेवा तो बहाना है सिर्फ  मेवा खाने मे ही सिद्ध हस्त होते है तो …जैसे तैसे पिंड छुड़वाया नेताजी ने ।
           जाने -अनजाने में मूर्खता करना हमारा प्रकृति प्रदत्त  एक लक्षण है अप्रेल फूल तो  फ़िल्म का टाइटल मात्र है और जब मूर्खता  खुलेआम करने का दिन मुक़रर्र  किया है तो आईये  क्यों न मिलकर मूर्खता के महान  दिन हम मूर्खता जरुर करें अपने आप को इससे वंचित न रखें  और अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दें  l
                              
   क्योंकि मूर्ख ही महान है जिनके  कण -कण में मूर्खता   रची-बसी है इसके   कई उदाहरण भरे-पड़े है अत: महानता के लक्षण को बनाये रखें आओ मिलकर  अप्रेल फूल बनाए l






संजय जोशी 'सजग '
७८ गुलमोहर कालोनी रतलाम [मप्र]

मालवी दिवस [गुडी पड़वा ]


                                   मालवी दिवस [गुडी पड़वा   ]
    दूसरी भाषा के प्रभाव ने क्षेत्रीय भाषा और बोलियों को गौण सा कर दिया है ,ये भाषा और बोलियाँ हमारी संस्कृति का मुख्य आधार है ,अब धीरे-धीरे लुप्त होने की कगार पर है Iशासन और प्रशासन इनके संवर्धन के लिए सिर्फ औपचारिकता ही निभाते है , मालवा अंचल में बोली जाने वाली सुमधुर बोली .'मालवी "का भी यही हश्र हो रहा है मालवा अंचल में गुडी पढ़वा को मालवी दिवस के रूप में मनाने का पुनीत कार्य -पिछले ३ वर्षो से चल रहा है ,जिससे मालवी को अपनी पहचान बनाने में सफलता मिल रही है जिसमें प्रिंट मिडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है l मालवी दिवस को गुडी पढ़वा के दिन मनाने की शुरुआत ,करने पर जन सामान्य के दिलों दिमाग पर यह प्रश्न उठाना स्वाभविक है इस दिन को क्यों चुना गया ? , विक्रम संवत के नये साल का शुभारम्भ इसी दिन गुडी पढ़वा से होता है ,विक्रम संवत की स्थापना मालवा से ही हुई अत: यह दिवस 'मालवी दिवस " के लिए उपयुक्त है इसके लिए प्रेरणा स्त्रोत डॉ शेलेन्द्र कुमार शर्मा उज्जैन है इस अभियान में , झलक सांस्कृतिक न्यास उज्जैन और हल्ला -गुल्ला सहित्य मंच रतलाम का महत्वपूर्ण योगदान है इसे प्रारम्भिक स्तर पर शुरू करने का कार्य इनके माध्यम से ही हुआ है मध्य प्रदेश शासन से भी इस हेतु सकारात्मक पहल कि अपील की है l मालवा के भू-भाग का म.प्र. ही नही पूरे विश्व में गौरवशाली स्थान है ,धार्मिक उदारता सामजिक समभाव ,आर्थिक निश्चितता, कलात्मक समृद्धि संपन्न, विक्रमादित्य भर्तहरी भोज जैसे महानायकों की यह भूमि जहाँ कालिदास, वराहमिहिर जैसे दैदीप्यमान नक्षत्रों ने साधना की एवं कृष्ण भगवान की शिक्षा स्थली मालवा ही तो है विश्व का केंद्र स्थान महाकाल मालवा की पहचान है मालवी का लोक साहित्य समृद्ध है परन्तु उचित संरक्षण प्रचार एवं प्रसार के अभाव में मालवी साहित्य और संस्कृति का लोप होता जा रहा है अतः गुडी पढ़वा को मालवी दिवस के रूप मे मनाने से यह लोक संस्कृति को नव स्पन्दन प्रदान करेगा l वर्त्तमान में मालवी में कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है और विक्रम विश्वविद्यालय में कई छात्र और छात्राएं मालवी बोली में शोध कार्य कर रहे है l गत वर्ष मालवी दिवस का आयोजन लगभग ५० स्थानों पर इस बार यह करीब ७५ स्थानों पर और घर -घर मनाया जायेगा सभी मालवी प्रेमियों से निवेदन है कि इस अभियान में आहूति देकर इस मीठी बोली को एक नई पहचान देने का संकल्प लें तभी यह दिवस सार्थक होगा l समस्त मालवा प्रेमियों को मालवी दिवस व गुडी पड़वा की हार्दिक बधाई l . .

 संजय जोशी 'सजग '
 ७८ गुलमोहर कालोनी रतलाम [मप्र]

अप्रैल फूल ==[व्यंग्य]

                               == अप्रैल फूल ==[व्यंग्य]

मेरे मित्र जो पेशे से सरकारी स्कूल में हेड मास्टर के पद पर पदासीन है ,चर्चा ही चर्चा में अप्रैल फूल यानि मूर्ख दिवस 1 अप्रेल को ही क्यों मनाया जाता है इस विषय ने तगड़ी बहस को जन्म दे दिया और  बहस चल पड़ी , मै सहजता से पूछ बैठा की मूर्ख की क्या परिभाषा है? आपके दैनिक जीवन में इस शब्द का महत्व पूर्ण स्थान है ,कहते ही मास्टर जी बगले झांकने लगे और कहने लगे कि  कभी गम्भीरता  से इस पर  चिन्तन नहीं  किया, मैंने कहा यूँ  भी  क्या चिन्तन का आपके पेशे से दूर-दूर तक वास्ता नहीं है  या वक्त ही नही मिलता है सरकार के अधिकारी  है जो कहे वो ही तो करना है आपको I मास्टर जी को जब  पता नहीं  तो बाकि का क्या हाल होगा ,बेचारे बच्चे क्या जाने ,रोज सुनते है सुनना उनकी नियति है I

आपना खुद का सामान्य ज्ञान भी कहाँ ज्यादा  है सोचा थोडा बड़ा लिया जाय .,मेरे पास उपलब्ध पुस्तकों  को उल्टा-पलटा तो विदुर नीति  से सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त हुआ ,आप तो जानते ही  है महाभारत काल का  हश्र।फिर भी मुझे तो मास्टर जी को अपना किताबी ज्ञान बाँटना  ही था सो उन्हें विदुर नीति के अनुसार मूर्ख किसे कहते है  बताने लगा मास्टर जी ने  जिज्ञासा भरी नजरों  से मुझे घूरा  ..मैंने  उन्हें कहा की विदुर नीति के अनुसार ...ऐसे लोगों  को मूर्ख कहते है - जो शास्त्र शून्य होकर भी अति घमंडी है ,बिना कर्म के धन प्राप्त करता हो ,अपने कार्य को छोडकर शत्रु के पीछे दौड़ता हो ,मित्र के साथ कपट व्यवहार ,मित्र से द्वेष, विश्वास घात ,झूठ बोलने वाला ,गुरु ,माता ,पिता और महिला का अपमान करता हो,आलसी हो ,बिना किसी काम का  हो  वह मूर्ख की श्रेणी में आते है I स्वयं दूषित आचरण करता हो और दूसरों  के दोष की निंदा करता हो वह महामूर्ख कहलाता है I मास्टर जी बोले इस प्रकार  धरा पर कोई भी इससे अछूता  नही है, ,हम बेचारे छात्रों को अपमानित करते रहते है पढ़ा लिखा मूर्ख अनपढ़ मूर्ख से अधिक मूर्ख होता है , हमारा देश मूर्खो और महामूर्खो से भरा पड़ा है I

हमारे देश में एक जुमला प्रसिद्ध है की मूर्ख मकान बनाते है और बुद्धिमान उसमे रहते है एक बार मकान किराए पर लेकर जिन्दगी भर मकान मालिक को मूर्ख बनाते  रहते है  और कोर्ट तक चप्पले घिसवाते है Iचुनाव में वोट  के लिए चापलूसी कर फिर जनता को पांच साल तक  मूर्ख बनाते है और हम सहते रहते है , मंदी की मार का खौफ़  बताकर और  कीमतें  बड़ाकर  सरकार जनता को आये दिन मूर्ख बनाती है ईमानदार टैक्स चुकाता  है और मूर्ख  न चुका कर उसका आनन्द लेते  है I मूर्खता की भांग देश में घुली पड़ी है हर एक दूसरे को मूर्ख बनाता है ओर समझता भी है I

मास्टर जी  को हताश होते देख कर उन्हें बताया कि  देश में कुछ बुद्धि जीवी है जो  अपने आप को  कालिदास के वशंज मानते है वे फिर अपने तेवर में आ गये ,और देश के नेताओं  और सरकारी तन्त्र के सरकारी अफसरों को कोसने लगे इन्हीं  सबने मिलकर देश का बंटाधार   कर दिया ,मूर्खता पर नोबल पुरुस्कार यदि होता हो तो देश के किसी  नामी गिरामी मूर्ख   को ही मिलता ,उनका आवेग देख कर उन्हें रोकने के लिए "थ्री इडियट "फिल्म का उदाहरण देकर सामान्य करने की   कोशिश करने का  प्रयास किया कि  इस फिल्म ने यही धारणा को उजागर किया की मूर्ख महान होते है वे ईश्वर की सर्वोतम कृति है देश में यह किस्म बड़ी तादाद में  पाई जाती है

मूर्खता करना हमारा  जन्म सिद्ध अधिकार है जब तक सूरज -चाँद रहेंगे मूर्ख ओर मूर्खता जिन्दा रहेगी ,मास्टर जी गर्वित होकर बोले हम तो बचपन से ही ऐसी  प्रतिभा को पहचान लेते है और मूर्ख कह देते है बनना तो निश्चित है हम  भावी पीड़ी  के  जनक  जो ठहरे इनकी नींव  स्कूल ,कॉलेज  ..से ही शुरू होती है हम जैसे  बुद्धि जीवी इसके दाता है I मैने कहा धन्य है मास्टर जी मुझे आज पता चला है कि  आप मूर्ख प्रदाता है इस देश को I मुझे मूर्खता से इतनी तकलीफ नहीं  होती ,जितनी इसे ही अपना गुण समझने वालों  से ,केवल मृत व्यक्ति और मूर्ख  ही अपनी राय नहीं  बदलतेIमूर्खता  के अलावा कुछ  पाप नही होता है Iमूर्खता सब कर लेगी पर बुद्धि का आदर कभी नहीं  करेगी ,अत: मास्टर जी सोचो हम कहाँ है ?

मूर्ख और मूर्खता को  सहेजने के लिए देश में कई मंचो ने  अनेक कार्यक्रम लांच कर रखे है जो मूर्ख और मूर्खता को स्वीकार करने में नही हिचकते और पूरी मुस्तैदी  से वर्ष भर अंजाम देकर एक दिन उसको अभिव्यक्त करते नही थकते जेसे मूर्ख ,महामूर्ख .टेपा खांपा,कबाड़ा गुलाट , आदि सम्मेलन है  इनका जन्म भी  इसीलिए  हुआ  जो अपने आप को मूर्ख मान कर उपहास करने  का उपक्रम करते है .मूर्खता का अंत सम्भव नही लगता है और हम एक अप्रैल  को अप्रेल फूल यूँ   ही मनाते रहेंगे I जो मूर्ख की श्रेणी में आते हो और अपने दिल से माने ..उन सभी को..अप्रैल  फूल की बधाई .....I


 
 

संजय जोशी 'सजग '

शुक्रवार, 21 मार्च 2014

सीटों की आपाधापी [व्यंग्य ]


                                       सीटों की आपाधापी
[व्यंग्य ]
        सीट की जद्दोजहद  में  आम से लेकर खास तक  सभी को अपनी शक्ति व  सामर्थ्य का उपयोग करना पड़ता है ,भारतीय  रेल के जनरल कोच में जिसने यात्रा  की  हो वही  जान सकता है कि एक अदद सीट  पाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते है,राजनीति   में सीट  पाने कि जुगत में जिंदगी लग जाती है कुछ बिरले ही होते है जिनकी सीट जन्म के समय से  ही पक्की हो जाती है

           सीट की आपाधापी  या मारामारी इतनी है कि सीट  न मिलने पर लोग  नैतिकता कि सभी हदें  पार कर  जाते है जो सीट  पर जमे है वे तो टस से मस भी नहीं  होते और यदि  कोई याचना भरी निगाह से  उस सीट  कि ओर  देख भी ले तो सामनेवाला चिढ़ाने  के अंदाज में घूरता है लेकिन  यदि स्वयं के परिजन या मित्र आ जाये तो  ठसाने  की  सफलतम कोशिश करता है रेलवे में रिजर्वेशन के बाद भी सीट के कितने जतन होते है ,वेटिंग ,आरएसी  ,पसंद की  सीट, अपने वालों  के पास ,नीचे की ,ऊपर की  न जाने कितने जुगाड़ व इन सबके  लिये टीटी से मिन्नते करना आम है खैर  रेलवे में इतनी इंसानियत तो है कि सीनियर सिटीजन को आरामदायक सीट  मिल जाती है  राजनीति में तो सीनियर सिटीजनों को एक तरफा निपटाने  कि कवायत चलती रहती है ,कब्र में पैर  लटकाये बैठे लोगों  पर भी  रहम नहीं  करते उन्हें तक सीट पाने के लिये न जाने क्या -क्या खटकरम करने पड़ते है
     सीट कबाड़ने की  हमारी बेसिक कमजोरी है ,स्कूल से कॉलेज  तक सीट  पाने के लिए  क्या क्या  हथकंडे अपनाये जाते है ,सरकारी  विभागों  में  मालदार और मलाईदार  सीट के लिये क्या क्या जतन  नहीं  होता है कितना भ्रष्टाचार कि  लाखों  में बिकती है और करोड़ो का खेल दिखाती  है तो राजनीति इससे अछूती कैसे रह सकती है एक बार सीट  मिली और जीत  गये तो  वारे-न्यारे हो जाते है सात पीढी तक का इंतजाम हो जाता है
     सीट कि महिमा इतनी  है जो कल तक अपने थे वे आज बेगाने हो जाते है और अपनी
पार्टी के लिए सब कुछ न्योछावर करने वाले एक सीट  के लिये  सब कुछ भूलकर सबक सीखाने  के लिए विभीषण बन जाते है और इन्हे सर आँखों पर उठाकर रखने वाले  हर दल है बागी का   पलक पावड़े  बिछाकर  स्वागत करने  की  होड़ लगी रहती  है चाहे वो दागी ही क्यों न हो
                  सीट कि आपाधापी के लिए हर दल और नेता में जुबानी जंग का तूफ़ान
चल रहा है नेता मन ही मन कहते है अभी तो यह अंगड़ाई है  आगे और लड़ाई है l  पेराशूट उम्दीवारों  ने कईयों के मनसूबों  पर पानी फेर दिया है और अरमानों  को शूट कर  दिया है सीट का संघर्ष अपने उत्कर्ष पर है जनता मूक दर्शक बन  देखने के अलावा
कर  भी क्या सकती है ,बस  उसके पास  तो एक ही दिन है . जिस दिन उसे  बटन दबाना है.और पांच साल रोते ही रहना है



संजय जोशी 'सजग '

गुरुवार, 13 मार्च 2014

होली ,,,,,,,है

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1

मिटाओ बैर
दिल से खेलो होली
रंगों जीवन
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2
थके से हम
रंगों से सरोबार
है उत्साहित
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3.
इन्द्रधनुष
जीवन सप्त रंग
उमंग संग
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4.
रंग पंचमी
धूम मस्ती के संग
अलग ढ़ंग
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5.
बच्चो की टोली
इन्द्रधनुषी होली
हंसी ठिठोली
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संजय जोशी "सजग "

बुधवार, 12 मार्च 2014

अपनी ढपली अपना राग [vyangy]


                            
                            
          अपनी ढपली अपना राग[ [ vyangy ]

    चिन्ता  करने वाले चिंतक हमारे देश में बहुतायत से  पाये  जाते है जो देश की राजनीति के ब्रह्मांड में घटने वाली  घटनाओं  का  बारिकी से चिन्तन करते है और  दुखी होते रहते है इसके अलावा बेचारे कर भी क्या सकते है चिंता और चिन्तन उनका मौलिक स्वभाव बन गया है  ऐसे ही  एक चिंतक श्री चिंतामणी ने  देश में घटित   अपनी ढपली अपना राग  की नौटंकी का बखान करते हुए अपनी चिन्तनशीलता प्रकट करते हुए  कहा कि  ...हमारे देश में फिल्म, दूरदर्शन व संचार  क्रांति ने जहाँ नाटक,नौटंकी को विलुप्त सा कर दिया,जो  हमारी प्राचीन परम्परा की विरासत है हम सब के रग -रग में बसी है हम कैसे भूल सकते है इसे  सहेजने का काम हमारे नेता ,.अभिनेता ,बाबा और तथाकथित समाज सेवी  करते  है और कोई- न कोई नौटंकी को हर रोज बखूबी अंजाम देते है और अपनी ढपली अपना राग अलापते है और हमारे दृश्य मिडिया इसमें  चार चाँद और   नमक मिर्च लगाकर चटकारे लेने में माहिर है क्या करें  देश में अच्छी चीजों  की कमी जो है ,चिंतामणी जी बड़े व्याकुल हो  रहे थे I
                
         देश में कुछ  प्रमुख दल जो  गिनती के है  और भी  कई छोटे -छोटे दल है जिनकी अपनी -अपनी नौटंकी रोज चलती है और गठबंधन के नाम पर ये छोटे दल जैसे  अधजल गगरी छलकत जाय की तर्ज पर  अपना रौब  झाड़ने और नौटंकी  करने को आतुर रहते है ,बड़े दल सब  नौटंकी सहने को मजबूर  रहते है बहुमत का आकड़ा जो पार करना रहता है

           चिंता मणी जी ने अपनी  चिंता  को जारी  रखते हुए   कहा  कि 
राजनीतिक दलों की अपनी  ढपली अपना राग के कारण  देशहित और जनहित के कई  मुद्दे  यूँहीं  धरे के धरे रह जाते  है और  जनता के अरमानों  पर पानी फिरता  रहता  है हर दल जनसेवा की नौटंकी में लगे हुए है और अपने को सबसे बड़ा हितैषी  बताने के असफल प्रयास में लगे रहते है  जैसे उनके जैसा इस धरा  पर दूजा कोई नहीं  है कुछ तथाकथित , बाबाओं ने धर्म और सामाजिक परिवेश  को तार  -तार करने में कोई कसर बाकी नहीं  रखी  है देश की संस्कृति  को जितना नुकसान पश्चिम से नही हुआ उससे कहीं अधिक नुकसान  तथाकथित बाबाओं के  ढोंगीकरण की नौटंकी से हुआ जिसने  सामाजिक व  धार्मिक ताने  बाने को आहत किया I

                     नेताओ  के बयानबजी  की नौटंकी  सार्थक हो या निरर्थक l उस से उनको क्या लेना देना ,उलुल -जुलूल बयान देकर अपनी पहचान कायम करनी है  और बाद में खेद प्रकट  करने के हथियार का सहारा लेकर .थूक कर चाटने में भी शर्म के बजाय गर्व की अनुभूति होती है यह पब्लिक है सब जानती है I
             हाथ जोड़ कर अब सत्ता  सब करते स्वीकार  नही यहाँ ,
              मौन भाव से सब स्वीकारे , उसका आस्तित्व  नही यहांI
इसलिए नौटंकी  जरूरी लगती है। ।


          अभी देश में जनता को ,पानी ,बिजली ,खाने का सामान  ,कम से कम में बाँटने  की नौटंकी की होड़ सी मची है देश में फ्री में बाँटने  की प्रथा का चलन जोरों पर है आखिर कब तक यह नौटंकी चलेगी हर कोई जानता है हर चीज का अंत होता है पर ऐसी योजनाओं  से तो देश में मेहनत करने वालों का सरासर अवमूल्यन  होता है सब राज्यों में जोर -शोर से अपनी ढपली अपना राग चल रहा है I


            उनकी व्यथा निरंतर चल रही थी ,  कभी -कभी लगता है कि  हमारा देश नौ -टंकी प्रधान देश है विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश में जहाँ विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता   है विशालता से परिपूर्ण इस देश में जब अपनी ढपली अपना राग बेसुरा हो जाता है तब देश का  बुद्धिजीवी घोर मानसिक दबाव महसूस करता है वहीं यह सोचने को  मजबूर होजाता है कि  देश केवल नौटंकी के भरोसे ही चलता रहेगा वह ईश्वर  से प्रार्थना करता होगा कि  नौटंकी करने वालों  को सदबुद्धि दें  व इस नासूर  से ....मुक्ति दें .मैंने  कहा कि  आप और हम  क्या  करें कि देश के राजनीति के  कुएँ  में भांग  जो मिली हुई है वर्तमान में दिखावे की नौटंकी कुछ ज्यादा ही बढ़ रही है जैसे हाथी के दांत खाने के कुछ ओर   दिखाने के कुछ ओर  होते है सबकी कथनी और करनी में बहुत लम्बा फासला है जो कम होने के बजाय  दिन दूनी रात चौगुनी तर्ज पर बढ़ रहा है -


 



संजय जोशी 'सजग '
७८ गुलमोहर कालोनी रतलाम [मप्र]
09300115151

रविवार, 9 मार्च 2014

राजनीति के साइड इफेक्ट [व्यंग्य ]


                       राजनीति के साइड इफेक्ट
[व्यंग्य ]

              भारतीय राजनीति चुनावी महाभारत अपने पूरे  शबाब पर है सभी राजनी तिक दल अपना अपना  परचम लहराने के तानेबाने में व्यस्त है ,गुण ,अवगुण ,मान ,अपमान ,मतभेद ,मनभेद ,छोटा बड़ा सब कुछ भूलकर  गठबंधन में जोड़ने और जुड़ने का  क्रम जोरों पर है और कुछ क्यू में है ,जैसे -जैसे चुनाव नजदीक आयेंगें वैसे -वैसे  और नई  मिसालें और कई सारे   रंग देखने को मिलेंगे और साथ में राजनीति  के साइड इफेक्ट के  कई अनूठे नजारे देखने को मिलेंगे क्योंकि इतनी  उथल -पुथल जो हो रही है l

    इस इफेक्ट  को  एक  सीनियर सीटिजन ने  यूँ   व्यक्त किया कि राजनैतिक घबराहट की हड़बड़ाहट में जो बड़बड़ाहट हो रही है उससे हमारे लोकतंत्र के नैतिक मूल्यों  के  पतन  का ग्राफ़ लगातार गिरता जा रहा है स्वार्थ और कुर्सी के मोह ने धृतराष्ट्र   सा  बना दिया है नैतिकता का चीर हरण जारी है भीष्म पितामह हर पार्टी में है सब मौन  है कोई भी इस नाजुक समय में कोई रिस्क लेना नहीं  चाहता है जो हो रहा है  होने दो बाद में देखेंगे इस लिए दुर्योधनों  के हौसले बुलंद  है ,शब्द  के  बाण अनियंत्रित  हो गये  हैं  और  एक दूसरे को छलनी करने में लगे हुए है ,कुछ तो जिस डाल पर  बैठे है उसे ही काट रहे है कुछ जड़ काटकर पानी दे रहे है और एक दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नही छोड़ रहे हैं  सब का एक ही उद्देश्य है   चुनाव की  नैया  पार करना  येन केन  प्रकारेण  सब यही सोच रहे हैं  कि हम किसी से कम नही l उधो कि पगड़ी माधो का सर कब तक चलेगा l


                   झूठे आश्वासन ,मुफ्त में बांटने कि होड़ में  धड़ाधड़ शिलान्यास ,घोषणाओं की  भरमार हो रही है  ,आचार संहिता के भय से l सभी दल बड़ी -बड़ी रैलियां कर  रहे  हैं नाम भी ऐसे कि जैसे आजादी कि जंग हो रही हो रोड शो और न जाने क्या क्या इन सब को झेलना तो  बेचारी आम  जनता  को ही पड़ता है जो  इन सबके  साइड इफेक्ट से त्रस्त है l

        न्यूज़ चैनलों  ने राजनीति की  गहमागहमी को कई गुना बड़ा दिया है रोज रोज के ओपनियन पोल ,रैलियों  और आम सभाओं  का सीधा प्रसारण और उसके बाद २४ घवो ही समाचार ,छोटी -छोटी बात पर घंटो की  बहस ने यह सोचने को विवश कर  दिया है कि ये न्यूज़  चैनल्स का अधिकतम समय केवल राजनीति  मे ही बर्बाद हो रहा है औरइस साइड इफेक्ट से ग्रसित  होकर रेडियो और प्रिंट मीडिया की और आकर्षण बड़ रहा है प्रिंट मीडिया ने  अपने उसूलों  को बनाये रखा है l
              अच्छा भला आदमी भी राजनीति के दलदल में फंसकर कई साइड इफेक्ट का शिकार हो जाता है स्वार्थ के वशीभूत भ्रष्टाचारी ,दलबदलू ,बागी,घोटाला किंग ,पाखंडी ,चाटुकार ,चमचा प्रेमी ,चंदा उगाना  ये सब अपने आप हावी हो जाते है और मुक्त होने कि चाह से भी मुक्त नही हो पाता , जुलूस  ,धरना ,रैली  और पुतला दहन उसकी कार्य  शैली बन जाती है और यह सब उसकी जागरूकता की  पहचान बन जाते है l



             सीनियर सीटिजन की  बात से सहमत होकर मैंने  उनसे कहा  कि क्या किया जाये इन साइड इफेक्ट का कोई इलाज है वे बोले मुझे तो यह लाइलाज बीमारी  लगती है ज्यों -ज्यों  इलाज किया त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता गया अब हरि  कि  इच्छा  पर निर्भर है कि इन सब राजनीतिक साइड इफेक्ट के चलते देश किधर जायगा ?  अब तो राजनीति  शब्द सुनकर मायूसी छा जाती है ऐसी कैसी राजनीति कि जनता ही हमेशा पिसती रहे अंत में कहने लगे कि ----कोई नृप होय हमें  का हानि .... यह सब सोच कर ही  दिमाग कि बत्ती गुल हो जाती है।


 संजय जोशी " सजग "