शुक्रवार, 25 मार्च 2016

भंग की तरंग में लठ्ठमार के बजाय लाईकमार होली [ व्यंग्य ]

मल्हार मिडिया में मेरा व्यंग्य ---जरूर पड़े मित्रो और लाइक मार होली खेले -----
भंग की तरंग में लठ्ठमार के बजाय लाईकमार होली [ व्यंग्य ]
=============संजय जोशी ‘सजग।’==================
होली पर चंदा लेने आये मोहल्ले के कुछ भिया लोग ,टीवी पर जड़ी बूटी का विज्ञापन देख कर कहने लगे कि इतनी जड़ी बूटियों की दवाई से तो अपनी शिव बूटी ही अच्छी। मैंने उन्हें घूरती नजर से देखा कि भिया क्या कह हे हो तो ,विकास भिया कहने लगे कि भांग को शिव बूटी ,शिव प्रिया ,और कुछ ने तो इसे अमृत बूटी कहना चालू कर दिया अब वे शिव बूटी पर अपना ज्ञान बघारने लगे और कहने लगे कि -भंग की तरंग में होली का अपना मजा कुछ और है एक फिलम के बोल हैं ‘ भंग का रंग जमा हो चकाचक़ ” सही है। सब कुछ भूलकर इसकी तरंग में चकाचक हो जाते हैं किसी ने सही ही तो कहा है कि होली और रंगपंचमी के दिन भांग न खाने और इसकी तरंग के बिना झूमने से जीवन की गति मंद हो जाती है। इसलिए अपने मोहल्ले में इसकी व्यापक व्यवस्था की गई है और भांग मांगती है भोजन, अत: नाश्ते और खाने की भरपूर व्यवस्था रखी है।बेचारी महिलायें खेलने के बाद किचन में घुसें यह एक अन्याय ही है। अभी तक की चर्चा चुपचाप सुन रही मेरी पत्नी विपक्ष की नेता की तरह बहस में कूद पड़ी और कहने लगी भिया इतनी भूमिका क्यों बना रहे हो? ज्यादा चंदा नहीं मिलेगा ,महंगाई का नशा ही इतना चढ़ गया है कि भांग की कोई जरूरत नहीं है यूँ ही दिन में तारे नजर आ रहे हैं और भांग की तरंग में वाट्सएप और फेसबुक का क्या होगा हम तो डिजिटल होली खेलेंगे। वे कहने लगे कि रंग से होली खेलना अपनी परम्परा है कैसे छोड़ दें , भाभी आप सब जानती हो ,चने के झाड़ पर चढ़ाने का प्रयास सफल हुआ और श्रीमती जी मुस्करा दी।
परकास भिया मेरी पत्नी की हाँ में हाँ इसलिए मिला रहे थे कि भाभीजी खुश होकर पिछली बार से ज्यादा दिलवा दें तो अच्छा रहेगा और वो ही हुआ जिसका मुझे अंदेशा था। वह मुझे कहने लगीं कि साल भर में एक बार तो आती है होली दे दो ये भी क्या याद रखेंगें। उनकी मुराद पूरी हुई और वे विजयी मुस्कान लिए मुझसे ज्यादा,मेरी श्रीमती को धन्यवाद दे रहे थे और मैं मूक दर्शक बन देख रहा था। हद तो तब हो गई वे होली खेलने और भांग के प्रसाद के लिए श्रीमती जी को विशेष तौर पर निमंत्रित कर गए। उनको लगा कि पंगा नहीं लेने का, अगले बरस फिर चंदा जो चाहिए।
भिया लोग समझते हैं कि अर्थ बिना सब व्यर्थ है ,चंदा करना भी हर किसी के बस की बात नहीं है यह राजनीति की नर्सरी है। बांकेलाल जी का आगमन हुआ, वे तो दिन भर ही भंग की तरंग में रहते हैं उन्हें भंगेड़ी कह देता हूँ वे उसे गर्व से स्वीकार करते हैं। भंग की पिन्नक में कुछ आन—भान नहीं रहता है। उनका कहना है कि भंग की तरंग में छोटा ,बड़ा ,अमीर , गरीब का भेद भूलकर फुल मस्ती में होली का मजा लेता है और थकान भी महसूस नहीं करता।
अपने आप को राजा मानकर होली का मजा लेता है कई फिल्मों के होली गानों में भी भंग की तरंग छायी रहती है। मैंने बांकेलाल जी से कहा कि मैंने भी पिछले साल शिव बूटी का रसपान कर लिया था मै तो संपट ही भूल गया ,बिल्डिंगे उलटी दिखने लगी ,धरती घूम रही है या ख़ुद घूम रहा हूँ दिशा भूल होकर ढोल थाप पर इतना डांस कर डाला कि पूरे जीवन में भी नहीं किया वह भी रंग बरसे भीगे चुनर वाली गाने पर। तरंग में जो लत लग जाये वही करने लगता है तरंग में सब समस्या को भूलकर टेशन मुक्त होजता है। ए
क भांग की गोली दिखा देती होली के कई रंग और मस्ती के बेढंग। होली और भंग की गोली जब खाती भोली भाली तरंग में कहती है दिल तो होली है जी ,और दिल वालों की होली है। एक मशहूर गीत है ‘तन रंग लो जी, सन रंग लो’ पर आजकल तो सोशल मीडिया को तंन,मन से रंगने में लगे हुए है ,यानी की अपरोक्ष होली में मस्ती ले रहे हैं। लट्ठ मार होली की जगह लाईक मार ली चल रही है वह भी भांग की तरंग के ।
बिन भंग होली लगती सून
तरंग में ,उसकी हो ली सुन

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें