सोमवार, 9 जून 2014

स्कूल गए हम [व्यंग्य ]




                                     स्कूल गए हम  [व्यंग्य ]


    आओ स्कूल चलें  हम  --अभियान के प्रचार प्रसार से प्रभावित होकर हम कुछ मित्रों ने स्कूलों  के भ्रमण का प्रोग्राम  बनाया कि  ऐसा क्या है आखिर इतना प्रचार किया जा रहा है और लोग बाग कन्नी काट रहे है ,कुछ तो नया होगा जब  इतना ही  ढोल पीटा जा रहा है सबने  सोचा चलो कुछ   नया अनुभव लें जिससे   अपनी सरकारी स्कूल  के प्रति धारणा  को बदलने में सहायता  मिलेगी ,और  फिर  हम दूसरों की   बदलेंगे --.  कि   कितना  है  दम   " आओ स्कूल चले हम.…… अभियान में l
                           हमारी मित्र मंडली ने एक दिन स्कूल के नाम पर ही समर्पित
कर   दिया कि   फ़टे में टांग अड़ा  फंसा कर ही रहेंगे , क्योंकि शिक्षा हमारी आने वाली पीढ़ी की  नींव है और वे राष्ट्र की अमूल्य सम्पदा  है  हमने कई स्कूलों की खाक छानी  और  कई छात्रों ,शिक्षकों  , व पालको से इस बारे में  चर्चा कर अपने दिमागी जाले झाड़ने  तथा ज्ञान और मत को बढ़ाने की चेष्टा की और उसमे सफल भी हुए l  सत्य हमेशा कड़वा ही होता है और सत्य परेशान हो जाता है पर पराजित नहीं  ,इसी बात को मद्दे- नजर रख कर प्रतिक्रिया देने का मन बनाया l जो किसे कड़वा,या  किसे मीठा लगेगा  क्या पता l हम सभी मित्रो के अनुभव का निचोड़ इस प्रकार है

                       हमने इस  पवित्र अभियान के उदेश्य के बारे में विचार विमर्श किया कि  आख़िर इसकी  जरूरत  क्या  है  ? एक मित्र बोला कि  यह एक कानून है कि हर बच्चे को शिक्षा मिले कोई  अनपढ़  न रहे   ,दूसरा मित्र बोला की स्कूलों  की दशा और दिशा सही कर ले तो भीड़ आ जायेगी , तीसरा बोला आज के महंगाई के युग में कौन   पसंद  करता है बच्चों  को निजी स्कूल में भेजना। पर क्या करें  एक पिता होने के नाते वह अच्छी शिक्षा देकर अपना फर्ज पूरा करता है और सरकार  का  केवल दिखावा मात्र है यह अभियान lजन नेताओं को सरकारी स्कूल से मतलब ही नही  उनके  बच्चे तो विदेश जाते है शिक्षा ग्रहण करने l
                      सरकारी स्कूल तो केवल औपचारिकता  मात्र रह गए है सरकार अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है , निजी स्कूलों में भारी भीड़   ,सीट  भी खाली नही है एक -एक सीट के लिए  जद्दोजहद ,प्रवेश बंद का बड़ा बोर्ड लगा है ताकि और डोनेशन की प्राप्ति हो सके और सरकारी  स्कूल खाली और वीरान पड़े है तभी आओ स्कूल चले हम जैसे अभियानों पर सरकार करोड़ो रुपये व्यय कर रही है पर   स्थिति वहीं ढाक  के तीन पात l कभी -कभी डर  लगता है कि कहीं सरकारी स्कूल विलुप्त न हो जाये  नहीं तो आने वाली पीढ़ी के लिए यह  पुरातत्व की सामग्री हो  कर  इतिहास का हिस्सा बन जायेगी , जैसे  हमारे प्रदेश मे से रोडवेज  गायब ही हो गई,उसी तरह  स्कूल  भी गायब न हो जाए l
    मध्यान्ह  भोजन भी सरकार का छात्रों की संख्या बढ़ाने का उपाय  हैं पर  यह भी विफल हो गया और छात्रों और पालकों  का विश्वास उठ गया कब  कौन सा जीव जंतु   निकल जाये खाने में l पालक कहते  है खाना ही सही न दे सके सरकार तो  वह शिक्षा क्या देगी l सरकारी योजनाओं  के नाम मोटे दर्शन खोटे ,हकीकत  से कोसों दूर l
                  स्कूलों की हालत बहुत खराब है गदंगी  की भरमार है भवन है तो शिक्षक नही है ,शिक्षक है तो भवन नही है अगर दोनों हैं तो छात्र नही है l कई जगह जान हथेली पर  रखकर जाना पड़ता है जब तक बच्चा वापस न आये  पालक परेशान रहते है l बेचारा शिक्षक ,सभी सरकारी काम  के बोझ तले दबा हुआ है पढ़ाने  के अलावा  सभी कार्य करना है किसी ने सही कहा  है कि  शिक्षक राष्ट्र निर्माता  होते है तभी तो शिक्षा के अलावा सभी कार्य  करना उसका कर्तव्य है उसका ही है  जहां  शिक्षक  का शिक्षा से कोई वास्ता नही ,पालक कैसे अपने बच्चे को ऐसे स्कूलों में भेजे ,  मूलभूत सुविधा का अभाव,ड्रेस ,किताबों  ,व अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ जरूरत मंद को नही मिलना ,पग -पग पर भ्रष्टाचार  ने कइयों  के हक को मारा है यह खेल बदस्तूर चालू रहता  है यह  हमारी विडंबना ही  है और   "जब स्कूल  गए  हम , इस अभियान में नही है दम --,जन -जन का विश्वास हो गया है कम --छात्र, पालक ,शिक्षक को हरदम रहता  भरम ।

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