शुक्रवार, 21 मार्च 2014

सीटों की आपाधापी [व्यंग्य ]


                                       सीटों की आपाधापी
[व्यंग्य ]
        सीट की जद्दोजहद  में  आम से लेकर खास तक  सभी को अपनी शक्ति व  सामर्थ्य का उपयोग करना पड़ता है ,भारतीय  रेल के जनरल कोच में जिसने यात्रा  की  हो वही  जान सकता है कि एक अदद सीट  पाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते है,राजनीति   में सीट  पाने कि जुगत में जिंदगी लग जाती है कुछ बिरले ही होते है जिनकी सीट जन्म के समय से  ही पक्की हो जाती है

           सीट की आपाधापी  या मारामारी इतनी है कि सीट  न मिलने पर लोग  नैतिकता कि सभी हदें  पार कर  जाते है जो सीट  पर जमे है वे तो टस से मस भी नहीं  होते और यदि  कोई याचना भरी निगाह से  उस सीट  कि ओर  देख भी ले तो सामनेवाला चिढ़ाने  के अंदाज में घूरता है लेकिन  यदि स्वयं के परिजन या मित्र आ जाये तो  ठसाने  की  सफलतम कोशिश करता है रेलवे में रिजर्वेशन के बाद भी सीट के कितने जतन होते है ,वेटिंग ,आरएसी  ,पसंद की  सीट, अपने वालों  के पास ,नीचे की ,ऊपर की  न जाने कितने जुगाड़ व इन सबके  लिये टीटी से मिन्नते करना आम है खैर  रेलवे में इतनी इंसानियत तो है कि सीनियर सिटीजन को आरामदायक सीट  मिल जाती है  राजनीति में तो सीनियर सिटीजनों को एक तरफा निपटाने  कि कवायत चलती रहती है ,कब्र में पैर  लटकाये बैठे लोगों  पर भी  रहम नहीं  करते उन्हें तक सीट पाने के लिये न जाने क्या -क्या खटकरम करने पड़ते है
     सीट कबाड़ने की  हमारी बेसिक कमजोरी है ,स्कूल से कॉलेज  तक सीट  पाने के लिए  क्या क्या  हथकंडे अपनाये जाते है ,सरकारी  विभागों  में  मालदार और मलाईदार  सीट के लिये क्या क्या जतन  नहीं  होता है कितना भ्रष्टाचार कि  लाखों  में बिकती है और करोड़ो का खेल दिखाती  है तो राजनीति इससे अछूती कैसे रह सकती है एक बार सीट  मिली और जीत  गये तो  वारे-न्यारे हो जाते है सात पीढी तक का इंतजाम हो जाता है
     सीट कि महिमा इतनी  है जो कल तक अपने थे वे आज बेगाने हो जाते है और अपनी
पार्टी के लिए सब कुछ न्योछावर करने वाले एक सीट  के लिये  सब कुछ भूलकर सबक सीखाने  के लिए विभीषण बन जाते है और इन्हे सर आँखों पर उठाकर रखने वाले  हर दल है बागी का   पलक पावड़े  बिछाकर  स्वागत करने  की  होड़ लगी रहती  है चाहे वो दागी ही क्यों न हो
                  सीट कि आपाधापी के लिए हर दल और नेता में जुबानी जंग का तूफ़ान
चल रहा है नेता मन ही मन कहते है अभी तो यह अंगड़ाई है  आगे और लड़ाई है l  पेराशूट उम्दीवारों  ने कईयों के मनसूबों  पर पानी फेर दिया है और अरमानों  को शूट कर  दिया है सीट का संघर्ष अपने उत्कर्ष पर है जनता मूक दर्शक बन  देखने के अलावा
कर  भी क्या सकती है ,बस  उसके पास  तो एक ही दिन है . जिस दिन उसे  बटन दबाना है.और पांच साल रोते ही रहना है



संजय जोशी 'सजग '

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