दायित्व,कर्त्तव्य और अधिकार के प्रति रहो हमेशा सजग.... [इसको व्यक्त करने का माध्यम मेरे लिए ---शूलिका(किसी बात को कम शब्दों मे कहना और उससे मन मे चुभन का अहसास हो) एवं व्यंग्य]
गुरुवार, 31 जुलाई 2014
सोमवार, 28 जुलाई 2014
ऐ - होमवर्क तूने तो बचपन ही छीन डाला
ऐ - होमवर्क तूने तो बचपन ही छीन डाला
संजय जोशी "सजग " [ व्यंग्यकार ]
तकरीबन पढ़ने वाला हर बच्चा ,चुन्नू -मुन्नू हो या गिन्नी -बिन्नी होमवर्क नाम की बीमारी से ग्रसित है
बच्चों की डिक्शनरी में होमवर्क शायद सबसे डरावना शब्द है। बेताल की तरह
यह भी इनका पीछा ही नहीं छोडता घर में प्रवेश करते ही आधुनिक मम्मियों
द्वारा यक्ष -प्रश्न कितना होमवर्क दिया ? बेचारा बच्चा हताश होकर बताता है
कि इतना -इतना दिया है उसके बाद उसकी मम्मी की सुपर प्लानिंग चालू जाती है में एक घंटे सो रही हूँ तुम सब होमवर्क
पूरा कर लेना नही तो खेलने नही जाने दूंगी बेचारा बच्चा खेलने जाने के मोह
में जी तोड़ मेहनत कर होमवर्क पूरा करता है खेलने जाने के लिये मानसिक
रूप से अपने आप को तैयार करता है और अगला आदेश फिर प्रसारित कर दिया
जाता है जल्दी आना....ट्यूशन जाना है इससे बच्चों की क्रिएटिविटी,
सोचने-समझने की क्षमता और कल्पनाशक्ति तेजी से
घट रही है। वे समझने के बजाय रटने का तरीका अपना रहे हैं।यूरोपीय देश तो
होमवर्क से इतना ऊब चुके हैं कि उन्होंने इसे पूरी तरह खत्म करने की दिशा
में प्रयास शुरू कर दिया है l हमारे देश में और भी कई समस्या है इसके बारे
में कौन सोचे ? बच्चा वोट देता है क्या ?हम तो उसकी ही सोचते हैं जो वोट
देता है तुम बच्चो कौन से खेत की मूली हो ?
तनाव में खेलने का प्रयास करता है,अगला टारगेट जो उसे पूरा करना है
अब वह मम्मी की गिरप्त से छूट कर पापा के कटघरे में आ जाता है फिर रिविजन का
प्रोग्राम चालू हो जाता है …क्या करे हैरान परेशान है इस होमवर्क ने तो पूरा बचपन ही
धो डाला। समर वेकेशन हो या कोई सा वेकेशन होमवर्क का खतरा हमेशा मंडराता रहता है यह होमवर्क नाम की बीमारी ने बच्चो को क्या माँ और बाप की आजादी के साथ भी कुठराघात कर रखा है l कोर्स से ज्यादा होमवर्क l चुन्नू -मुन्नू हो या गिन्नी -बिन्नी का कहना है कि होमवर्क नहीं करो तो पनिश्मेंट मिलता है और बच्चों और टीचर के सामने
धो डाला। समर वेकेशन हो या कोई सा वेकेशन होमवर्क का खतरा हमेशा मंडराता रहता है यह होमवर्क नाम की बीमारी ने बच्चो को क्या माँ और बाप की आजादी के साथ भी कुठराघात कर रखा है l कोर्स से ज्यादा होमवर्क l चुन्नू -मुन्नू हो या गिन्नी -बिन्नी का कहना है कि होमवर्क नहीं करो तो पनिश्मेंट मिलता है और बच्चों और टीचर के सामने
इमेज खराब का डर सताता रहता है ,हमारा तो बचपन ही छीन डाला सही
है बच्चो की व्यथा से मैंने भी सहमति जताई की सुनहरा बचपन---दुःख भरा हो
रहा है l
एक पीड़ित आधुनिक माँ ने अपने भाव प्रकट करते हुए कहा कि
बच्चों पर मानसिक दबाव कम करने के लिए हवाई किले तो बहुत बनाये जाते है
इसके लिये न जाने कितने सेमिनार और वर्कशाप के आयोजन होते है पर सिर्फ
औपचारिक होकर रह जाते है तनाव तो बच्चों के हिस्से में ही रहता है ,घर
वाले सोचते है कि ज्यादा देर तक स्कूल में रहे ताकि घर में शांति रहे
और स्कूल वाले सोचते है पढ़ाई का काम स्कूल में कम से कम हो और बच्चे के
पेरेंट्स ही सब करवा दे lआज बच्चों का होमवर्क व प्रोजेक्ट वर्क पेरेंट्स
के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है l इसीलिये तो आजकल एडिमिशन के
समय पेरेंट्स की योग्यता ,और जेब कितनी भारी है यहीं देखा जाता है l
निजी स्कूल के टीचर जी का कहना है कि कोर्स तो आराम से
पूरा हो जाता है होमवर्क तो बच्चो में कैलिबर बढ़ाने के लिए देते है और
सरकारी स्कूल के मास्टर जी का कहना है हमारे यहां तो न स्कूल में कुछ
करवाते है और न ही होमवर्क देने का समय है हमारे पास दूसरे सरकारी काम
भरपूर है सब छात्र तो ईश्वर पर आश्रित है l
कई बच्चे तो उच्च शिक्षा प्राप्त करने
के पहले ही डिप्रेशन के शिकार हो जाते है l ये होमवर्क ने बच्चो का सुख
चैन सब छीन रखा है और बच्चे कोसते होंगे कि
है होमवर्क
का चलन चलने वाले मैकाले ,तूने बच्चों पर कितने सितम ढहाये,तुझे क्या मिला
बच्चों का बचपन छीनने वाले चेहरे की हंसी को मत समझ हकीकत-
ऐ होम वर्क तुझसे कितने परेशां है हम सब -----l
बुलेट बनाम लेट [व्यंग्य ]
बुलेट बनाम लेट [व्यंग्य ]
बुलेट ट्रेन चलने की सुगबुगाहट जोरों पर है इनकी गति का भारत में कीर्तिमान बनेगा अब तक की सबसे तेज चलने वाली होंगी ये बुलेट ट्रेनें ,यह देश की प्रगति की सूचक बनेंगी लेकिन धीरे और लेट चलने वाली लोकल आम आदमी की ट्रेनों के हालात तो बद से बदतर हैं लेट -लतीफी में बड़े -बड़े कीर्तिमान है अब बुलेट ट्रेन अपनी तेज गति का मापदंड स्थापित करेगी l बहुत बड़ा वर्ग इनसे अछूता ही रहेगा सिर्फ दर्शन मात्र से ही अपने आप को धन्य समझेगा ओर हक्का बक्का रह जाएगा और कुछ मिनट के लिए अपनी सब तकलीफें त्याग देगा उसे देख्नने की खुशी में l सभी लोकल ट्रेनों को बुलेट में बदलना अगले चुनाव की लालीपाप होगी l
ट्रेनों में जन सामान्य वर्ग के साथ अपडाउन करने वाला एक विशेष वर्ग होता है जो नींद मे भी जागता रहता है और हमेशा ट्रेन के लेट होने के दर्द से विचलित होकर रेलवे को कोसता रहता है वह रेलवे की कारगुजारियों व खामियों के साथ देश की समस्त घटित और अघटित घटनाओं का विशेषज्ञ होता हैं ट्रेनों का लेट होना उसके ज्ञान में वृद्धि करने में सहायक होता हैl ट्रेन के लेट होने की महामारी से उसे ब्लड प्रेशर जैसी गंभीर बीमारी गिफ्ट के रूप में प्राप्त हो जाती है , और आफिस में रोज -रोज लेट पहुँचने के बहाने बनाकर तंग आ जाता है ऐसे ही एक महाशय ने अपना अर्जित ज्ञान बुलेट ट्रेन की चर्चा के दौरान उड़ेल डाला की बुलेट जेब पर भारी होगी और लोकल ट्रेन लेट होने से समय पर भारी है,रेल के लेट होने की नियति की कोई सीमा नहीं जहां चाहे रोक देतें हैं पड़े रहो घंटो , फ़ास्ट ट्रेनों को निकलते हुए निहारते रहो ,जिसने लोकल गाडी में और लोकल कोच में यात्रा की हो वहीं जानें, रेलवे के नीति निर्धारकों को भी लोकल ट्रेन व कोच में यात्रा करनी चाहिए तो अनुभव होगा की क्या जरूरी है और क्या नहीं lबुलेट ट्रेनों की गाज तो सभी ट्रेनों पर गिरेगी और लोकल ट्रेन व आम आदमी इससे और त्रस्त हो जाएगा अभी क्या कम है ?लोकल ट्रेनें लावारिस सी लगती हैं और ख़ाने -पीने के कचरे का ढेर ,बदबू व मच्छरों की भरमार , भीड़ खचाखच ,कर्कश आवाजें ,गुत्थम -गुत्था ऐसा होता है आम आदमी की रेल का सीन ,यह सब सहकर दिमाग चक्कर घिन्नी होता हैं और ऊपर से लेट पर लेट l लेट लतीफी और सफाई पहले इस पर काम होना चाहिए फिर बुलेट का सपना साकार करना चाहिये l
संजय जोशी 'सजग "[ व्यंग्यकार ]
बुलेट ट्रेन चलने की सुगबुगाहट जोरों पर है इनकी गति का भारत में कीर्तिमान बनेगा अब तक की सबसे तेज चलने वाली होंगी ये बुलेट ट्रेनें ,यह देश की प्रगति की सूचक बनेंगी लेकिन धीरे और लेट चलने वाली लोकल आम आदमी की ट्रेनों के हालात तो बद से बदतर हैं लेट -लतीफी में बड़े -बड़े कीर्तिमान है अब बुलेट ट्रेन अपनी तेज गति का मापदंड स्थापित करेगी l बहुत बड़ा वर्ग इनसे अछूता ही रहेगा सिर्फ दर्शन मात्र से ही अपने आप को धन्य समझेगा ओर हक्का बक्का रह जाएगा और कुछ मिनट के लिए अपनी सब तकलीफें त्याग देगा उसे देख्नने की खुशी में l सभी लोकल ट्रेनों को बुलेट में बदलना अगले चुनाव की लालीपाप होगी l
ट्रेनों में जन सामान्य वर्ग के साथ अपडाउन करने वाला एक विशेष वर्ग होता है जो नींद मे भी जागता रहता है और हमेशा ट्रेन के लेट होने के दर्द से विचलित होकर रेलवे को कोसता रहता है वह रेलवे की कारगुजारियों व खामियों के साथ देश की समस्त घटित और अघटित घटनाओं का विशेषज्ञ होता हैं ट्रेनों का लेट होना उसके ज्ञान में वृद्धि करने में सहायक होता हैl ट्रेन के लेट होने की महामारी से उसे ब्लड प्रेशर जैसी गंभीर बीमारी गिफ्ट के रूप में प्राप्त हो जाती है , और आफिस में रोज -रोज लेट पहुँचने के बहाने बनाकर तंग आ जाता है ऐसे ही एक महाशय ने अपना अर्जित ज्ञान बुलेट ट्रेन की चर्चा के दौरान उड़ेल डाला की बुलेट जेब पर भारी होगी और लोकल ट्रेन लेट होने से समय पर भारी है,रेल के लेट होने की नियति की कोई सीमा नहीं जहां चाहे रोक देतें हैं पड़े रहो घंटो , फ़ास्ट ट्रेनों को निकलते हुए निहारते रहो ,जिसने लोकल गाडी में और लोकल कोच में यात्रा की हो वहीं जानें, रेलवे के नीति निर्धारकों को भी लोकल ट्रेन व कोच में यात्रा करनी चाहिए तो अनुभव होगा की क्या जरूरी है और क्या नहीं lबुलेट ट्रेनों की गाज तो सभी ट्रेनों पर गिरेगी और लोकल ट्रेन व आम आदमी इससे और त्रस्त हो जाएगा अभी क्या कम है ?लोकल ट्रेनें लावारिस सी लगती हैं और ख़ाने -पीने के कचरे का ढेर ,बदबू व मच्छरों की भरमार , भीड़ खचाखच ,कर्कश आवाजें ,गुत्थम -गुत्था ऐसा होता है आम आदमी की रेल का सीन ,यह सब सहकर दिमाग चक्कर घिन्नी होता हैं और ऊपर से लेट पर लेट l लेट लतीफी और सफाई पहले इस पर काम होना चाहिए फिर बुलेट का सपना साकार करना चाहिये l
निरंतर अपनी बात कहे जा रहे थे ओर महाशय जी अब ट्रेन की तरह बेपटरी हो गये
और कहने लगे कि पटरियों का
ज़ाल बुलेट ट्रेन को नही सह पायगा और हम जैसे तो जान हथेली पर लेकर रोज घर
से निकलते है कि कोई अनहोनी न हो जाएं l प्लेट फार्म
पर उदघोषणा सुनकर कि 'ईश्वर आपकी यात्रा सफल करें " भय और बढ़ जाता है
कि
रेलवे भी यात्री को भगवान भरोसे छोड़ देते है ओर समय पर सुरक्षित पहुंचा
दे...... मतलब रेलवे की सुपर सेवा का क़माल। मैंने उन्हें रोकते हुए कहा
कि भाई बस करो में सब समझ गया और आपकी बात का कायल हो गया की बुलेट से
पहले लेट पर नियंत्रण जरूरी है आपकी पीड़ा सही है lजब तक है सांस तब तक है
आस...यही सोचकर जीते रहो l
संजय जोशी 'सजग "[ व्यंग्यकार ]
बुधवार, 23 जुलाई 2014
मानसून का आना ........... [व्यंग्य ]
आजकल मानसून भी बिना बुलाये कहाँ आता है ?झुलसा देनी वाली गर्मी को सहने , कई मिन्नतों ,देवी ,देवतओं को मनाने के बाद ही आता है और मौसम विभाग कम मानसून की भविष्य वाणी कर चिंता में डालने का काम आने के पहले ही कर देता है हर वर्ष इनके अनुमान गलत साबित हो जाते है क्या करें ?जैसा भी आये मानसून का आना जरूरी है यह समृद्धि का सूचक है इसके आने से जीवनं में आशा और उत्त्साह का संचार होता है पानी के लिए तरसती , बिजली के लिए परेशान जनता ,व किसानों के मायूस चेहरों पर चमक आ जाती है सूखी धरती हरियाली की चादर से ढँक जाती है सूखे नदी -नालों में भी जलप्रवाह होने लगता है l
नये प्रेमी युगल मानसून की वर्षा में भीगने का भरपूर आनंद लेते हुए पहली बारिश तू और में भीगकर आपनी हसरत पूरी करते है मानसून रोमांस में वृद्धि का कारक भी है,तभी तो बॉलीवुड ने ऐसे कई फिल्मी गाने दिए जैसे - छतरी की छाया में छुपाऊँगा तुझे , ऐसे कई गाने है जो रोमांस में वृद्धि के लिए टॉनिक का काम करते है इस मौसम में बस थोड़ा नॉटी होने की कोशिश करनी चाहिए तभी इस मौसम का मजा आएगा ऐसा लगता है साक्षात प्रेम के देवता इस मौसम में बारिश की बूंदो की जगह प्रेम बाण छोड़ रहे है बड़े शहरों में तो ऎसे लवर्स पार्क की कोई कमी नही हैl बारिश प्रेमी कवि अपनी लेखनी सक्रिय कर देते है बारिश , सावन और श्रृंगार पर लिख कर मादकता बढाने में उत्प्रेरक का काम करते है l प्रेम की झूठी कल्पनायें करना ऐसे कवियों का शौक रहा है लिखने में क्या बुराई है यूँ भी थ्योरी और प्रेक्टिकल में भारी अंतर है....ये इतनी आसानी से मानते कहां है मान ले तो कवित्व पर दाग लग जाए l
मानसून का आना तपन से मुक्ति देता है वही बिजली की मांग व बिल में कमी करता है . मानसून का आगमन .से ..वीरान पड़े ..पिकनिक स्थलों पर रौनक आ जाती है नदी .तालाबों ..में भरा जल जोश भर देता है जैसे ..इतना पानी ..कभी देखा ही नही और कभी शायद देखने को न मिले और कुछ तो जोश में होश खो देते है और अनहोनी हो जाती है l ..
मानसून का आना एक नेक काम ओर करता है की भ्रष्टों की नीद उड़ा देता है निर्माण कार्यो की परीक्षा जो अपने आप हो जाती है बांध ,स्टाप डेम का बहना ,सरकारी नव निर्मित भवनों का रिसना ,सडक उखड़ना सड़के ऐसी हो जाती है सडक में गड्ढे या गड्ढों में सडक है ..पता हीं नही चलता और घटिया निर्माण की पोल खुल जाती है ..आरोप -प्रत्यारोप का दौर शुरू हो जाता है मानसून ..पूर्व ..की तैयारी का ढिंढोरा ऐसा जोर शोर से पीटते है कि सब कुछ तैयारी है पर मानसून के आने पर सब टायं-टायं फिस्स हो जाता है वही ..ढ़ाक के तीन पात .........
मानसून का कहर जहाँ निचली बस्ती में तबाही मचाता है भ्र्ष्टाचार का नया अध्याय शुरू हो जाता है .बाढ़ पीड़ितों के नाम पर मिलने वाली राहत किसे मिलती है भगवान ही जाने बाढ़ पीड़ितों के मासूम चेहरों ,दया की भीख भ्रष्टाचार ..के सामने बौनी लगती है ...
.
मानसून का आना कहीं.ख़ुशी कहीं गम लाता है .......
संजय जोशी "सजग "
मंगलवार, 24 जून 2014
गोल के लिए किक जरूरी है.... [व्यंग्य ]
गोल के लिए किक जरूरी है.... [व्यंग्य ]
फ़ुटबाल का गोल हो या अपने जीवन का कोई गोल हो किक का अपना महत्व है जिसने भी किक का महत्व नहीं जाना वह जीवन में गोल हो गया है और किक मारने वाला ही खिलाडी बाकी सब अनाड़ी समझे जाते है मानसिकता यह है कि गोल के लिए कुछ भी करेंगे और तुच्छ भी बन जायेंगे क्योकि हमारा तो केवल यहीं मकसद है गोल और गोल l किक मारने में शोहरत हांसिल करने के लिए सामजिक बंधन और मर्यादा को तोड़ना,स्वहित की भावना का विकास करना बहुत जरूरी है इनको नीति अनीति से ,मान अपमान से कोई फर्क नही पड़ता अपना गोल पूरा करने के लिए हर हथकण्डा अपनाने को हमेशा तत्पर और चौकस रहते है सामने वाले की मजबूरी ,कमजोरी व सीधेपन को भुनाने में कोई कसर नही छोड़ते l
एक नेताजी जो किसी जमाने में फुटबॉल खिलाड़ी थे मैंने उनसे पूछा की फुटबॉल खेलते -खेलते नेता कैसे बन गए तो नेता जी हसंते हुए बोले किक मारने की कला का उपयोग राजनीति में जितने अच्छे से किया जा सकता है उतना फुटबॉल में नहीं l खेल में तो भाई चारा रखना पड़ता है पर राजनीति में सब सिर्फ दिखावे का चाहिए जैसे हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते है जनता से वादे करो और खूब स्वप्न दिखाओ और बाद में सब को किक मार दो l फ़ुटबाल में तो खेल भावना होती है पर राजनीति में केवल स्वार्थ की भावना कूट -कूट कर भरी होती है और यही एक मात्र कारण होता हैं कि यहां किक मारकर गोल करने की भावना से कभी संतुष्टि नही मिलती और किक पर किक मारने और गोल पर गोल करने के बाद भी जी नहीं भरता l उनका कहना था कि हर जगह किक मारने का काम बखूबी होता है इतने दल-दल में भी चतुराई से किक मारकर गोल को अंजाम दे ही देते है l इसी कारण हम राजनीति के इस जहां में पड़े है l इसलिए तो हम फुटबॉल में पीछे है पर कोई गम भी नही है सिर्फ नाम के लिए टीम भेज देते है
की हमें किक मारकर गोल करना आता है सावधान ! हम कहीं भी किक मारकर गोल बना सकते है हमारी आदत में शुमार है l हमारे यहां तो हर सरकारी व निजी संस्थान में किक मारने का रिवाज हैl
नेताजी अपनी बात
झिलाये जा रहे थे कि फ़ुटबाल में तो पता होता है कि किसके विरुद्ध गोल
मारने का कितना समय है l पर राजनीति तो अनिश्चितता का खेल है कौन
अपने गोल के लिए किसे किक मार दे l जैसे श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह
ज्ञान दिया था कि युद्ध के क्षेत्र में कोई अपना नहीं उसी
तरह राजनीति में भी कोई अपना सगा नहीं कोई कभी भी दे जाता है दगा l
नेताजी की बातों में दम दिख रहा था और उनके किक मारने के अनुभव का निचोड़
का रस मुझे स्वादिष्ट लग रहा था मैंने भी उन्हें चने के झाड़ पर चढ़ाते
हुए कहा कि वाह क्या ज्ञान दिया आपने हम तो आपके मुरीद हो गए l
किक मारने की प्रवृत्ति राजनीति में
जन्मजात होती है माँ की गोदी में भी हम किक मारते रहते थे l यदि अपवाद
स्वरूप किक मारने की प्रवृत्ति नहीं होती तो खिलाङी को तो कोच या
प्रशिक्षक सीखा देते है पर राजनीति में ठोकर खाकर और अति महत्वकांक्षा यह
सब करने को मजबूर करती है और यह किसी भी स्तर पर और किसी भी स्तर वाले को
अपनी गिरफ्त में ले लेती है l
गुरुवार, 19 जून 2014
वाह रे प्याज
भाव कम होतो किसान के बहते आंसू
बेचारे काटने वाले को भी देता आंसू महंगे खाने वाले को भी आते आँसू
विपक्ष भी बहाता है घड़ियाली आँसू
----------संजय जोशी 'सजग "------
बुधवार, 18 जून 2014
चाटुकारिता बनाम शिष्टाचारिता
चाटुकारिता बनाम शिष्टाचारिता
चाटुकारिता
हमारे देश की एक बहुत बड़ी लाइलाज समस्या है और वह सभी समस्याओं पर भारी व
कई समस्याओं की जड़ है ,हमारी विडंबना है कि किसी भी प्रकार से किसी भी
स्कूल या विश्व विद्यालय में इसका कोई डिप्लोमा या डिग्री कोर्स नहीं है
फिर भी इसके लिए स्किल्ड लोगों की एक बहुत बड़ी फौज खड़ी है उन्हें हर
परिस्थिति में इसका समुचित उपयोग करने की कला में महारथ हासिल है येन केन
प्रकारेण अपना काम बना लेंना या अपना उल्लू सीधा करना इनका प्रमुख गुण होता
है इन्हे सिर्फ अपने काम का टारगेट ध्यान रहता है इन्हे मान अपमान जैसे
शब्दों का ज्ञान तो भलीभांति रहता है फिर भी सब नजर अंदाज करने की
ईश्वरीय शक्ति से परिपूर्ण होते हैं lबुद्धि जीवियों और प्रतिभाशालियों
में यह अवगुण नहीं पाया जाता है इसलिए उनकी अलग पहचान होती है -और वे इस
मार्ग पर जाते ही नहीं है कविवर रहीम कहते है कि
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कोय
वर्षा ऋतु आते ही मेंढको की आवाज चारों तरफ गूंजने लगती है तब कोयल यह सोचकर खामोश हो जाती है कि उसकी आवाज कौन सुनेगा। चाटुकारों की बढ़ती पूछ परख से इसी तरह बुद्धिजीवी और प्रतिभाशाली भी मौन हो जाते है और चाटुकार प्रखर हो जाते है l हर क्षेत्र में इन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है l ये ऐडा बन कर पेड़ा खाने का काम करते है और मानते है कि -
चाटुकारिता में कई तरह की किस्में पाई जाती है ,पहले झूठी तारीफों से काम चलते है , विरोधी के दुःख या संकट की खबर देकर ,और यह काम न आवे तो चरण चाटन के ब्रम्हास्त्र का उपयोग किया जाता है चाटुकार तो मजबूरी में कुछ पाने की आशा में यह क्रियाकर्म करता है ऐसे लोग कुछ पाने की लालसा के कारण धनिकों, उच्च पदस्थ एवं बाहुबली लोगों की और ताकते रहते हैं और उनकी चाटुकारिता करने के लिये तैयार रहते हैं। उनकी चाटुकारिता में कोई कमी नहीं करते। उन्हें यह आशा रहती है कि यह लोग उन पर रहम कर उनका उद्धार करेंगे लेकिन यह केवल भ्रम है। वह अपना काम निकालकर भूल जाते और चाटुकारिता की सेवा बदलें कुछ दे भी देते है तो वह भी न के बराबर। सच तो यह ऐसे चाटुकारों का जीवन का इसी तरह गुलामी करते हुए व्यर्थ चला जाता हैं। जो पॉवर में है वह अहंकार में है चाटुकार उनकी और ताकता हुआ ही जीवन गुजारता है और संकट होने पर साथ छोड़ने में भी कोई परहेज नही करता यह विचित्र प्रकार का मनुष्य होता है दूसरा करे तो चाटुकारिता और स्वयं करे तो शिष्टाचारिता मानने वालों की कमी नही है l चटुकारिता को पसंद और उसका आनंद लेने वाले जब पद विहीन होजाते है और न मिलने पर अवसाद के शिकार हो जाते है कई बड़े अधिकारी नेता ऐसे पीड़ित मिल जायेंगे l
संजय जोशी 'सजग "[ व्यंग्यकार ]
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कोय
वर्षा ऋतु आते ही मेंढको की आवाज चारों तरफ गूंजने लगती है तब कोयल यह सोचकर खामोश हो जाती है कि उसकी आवाज कौन सुनेगा। चाटुकारों की बढ़ती पूछ परख से इसी तरह बुद्धिजीवी और प्रतिभाशाली भी मौन हो जाते है और चाटुकार प्रखर हो जाते है l हर क्षेत्र में इन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है l ये ऐडा बन कर पेड़ा खाने का काम करते है और मानते है कि -
कानून मिले न कायदा l जी हजुरी में ही फायदा l l
चाटुकारिता में कई तरह की किस्में पाई जाती है ,पहले झूठी तारीफों से काम चलते है , विरोधी के दुःख या संकट की खबर देकर ,और यह काम न आवे तो चरण चाटन के ब्रम्हास्त्र का उपयोग किया जाता है चाटुकार तो मजबूरी में कुछ पाने की आशा में यह क्रियाकर्म करता है ऐसे लोग कुछ पाने की लालसा के कारण धनिकों, उच्च पदस्थ एवं बाहुबली लोगों की और ताकते रहते हैं और उनकी चाटुकारिता करने के लिये तैयार रहते हैं। उनकी चाटुकारिता में कोई कमी नहीं करते। उन्हें यह आशा रहती है कि यह लोग उन पर रहम कर उनका उद्धार करेंगे लेकिन यह केवल भ्रम है। वह अपना काम निकालकर भूल जाते और चाटुकारिता की सेवा बदलें कुछ दे भी देते है तो वह भी न के बराबर। सच तो यह ऐसे चाटुकारों का जीवन का इसी तरह गुलामी करते हुए व्यर्थ चला जाता हैं। जो पॉवर में है वह अहंकार में है चाटुकार उनकी और ताकता हुआ ही जीवन गुजारता है और संकट होने पर साथ छोड़ने में भी कोई परहेज नही करता यह विचित्र प्रकार का मनुष्य होता है दूसरा करे तो चाटुकारिता और स्वयं करे तो शिष्टाचारिता मानने वालों की कमी नही है l चटुकारिता को पसंद और उसका आनंद लेने वाले जब पद विहीन होजाते है और न मिलने पर अवसाद के शिकार हो जाते है कई बड़े अधिकारी नेता ऐसे पीड़ित मिल जायेंगे l
चाटुकार हमेशा शाश्वत सिंद्धांत का पालन करता है और वह केवल उगते सूरज अर्थात
हमेशा जो पॉवर और सत्ता में है उसी पर केंद्रित रहता है और जैसे तैसे उसका दामन
थाम लेते है l चाटुकारिता करने वाला और कराने वाला दोनों को ही
आनंद की अनुभूति होती है जब तक धरा पर ऐसे लोग रहेंगे तब तक "
-चाटुकारिता " अमर बेल की भांति
फैलती रहेगी और बुद्धिजीवी और प्रतिभाशाली को आत्म ग्लानि को महसूस करते रहेंगे , बेचारे कर भी क्या सकते है l संजय जोशी 'सजग "[ व्यंग्यकार ]
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