मंगलवार, 7 जुलाई 2015

" दिन" बनाम "डे"[व्यंग्य ]


                    " दिन"  बनाम  "डे
"[व्यंग्य ]

बात -बात में अचानक पत्नी से पूछ लिया अब क्या आयेगा ?.कड़े तेवर के अंदाज में वह बोली जो प्यार दिल से  करते है उनके लिए वेलेन्टाईन डे आने वाला है इस दिन को युवा अपने प्यार का इजहार करते है मैंने कहा जी, हम तो केवल  दिन  ही समझते है क्यों की दिन गिन -गिन कर काटना ही जिन्दगी हो गई है I
             
       दिन और डे....पर हमारी बहस चल  ही रही थी कि  इसी बीच  समाज सेवी वर्मा जी आ टपके और और अपना सामाजिक ज्ञान का पिटारा खोलकर  बहस को 
एक नया मोड़ दे दिया और कहने लगे आजकल हर  तारीख एक स्पेशल डे
होती है दिन और तिथि का  भान किसे रहता है वह तो केवल पंडित,पुजारी व
ज्योतिषी की मोनोपॉली  हो गई है उन्होंने ही  इसे बचाए रखा है वरना आजकल 
डे का चलन जोरों पर है I

               वर्माजी व्यथित होकर कहने लगे कि पश्चिमी  सभ्यता की उपासना  और रंग में इतने रंगीन हो गये हैं कि   हमारी संस्कृति व  परम्परा रंगहीन नजर आने लगी है बसंत पंचमी का प्रेमोत्सव छोड़ कर वेलेन्टाईन डे मनाने को  इस कदर लालायित है शब्दों में  बखान करना नामुमकिन है और इनको हवा देने में तथाकथित  सोशल मीडिया मुख्य भूमिका निभा कर एंटी सोशल बन गये है 

              वर्मा उवाच निरंतर जारी था किसी ने  सही कहा है पश्चिम में ढला तो अस्त हो गया उसी तर्ज पर हमारी युवा पीढ़ी पश्चिम में  ढलने की अधकचरी मानसिकता लिए आतुर है हमारी आदत  रही है जिस  डाल पर बैठो वहीं  काटो ,एसा ही हश्र हो रहा है कहते है दूर के ढोल सुहावने लगते है  और हर चीज इम्पोर्टेड ही अच्छी लगती है I
   
   अब देखो भाई वेलेन्टाईन डे की शुरुआत सात दिन पहले हो जाती है और बाद में सात दिन तक चलती है हम तो हमारा  विरोध केवल एक ही दिन प्रकट कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है पेपर और न्यूज़ चैनल की खबर बन जाती है ओर जनता में यह संदेश चला जाता है की इसे नापसंद करने वाले भी  बहुत है ,हम करें  तो क्या करें  लुका छिपी के इस  वेलेन्टाईन डे  को पूर्णतया कैसे रोके समझ ही नहीं  आता ,प्रेम की  अपार शक्ति भारी पड़  जाती है रोके नही रुकता प्रेम के वशीभूत होकर तो डाई,विग और नकली बत्तीसी वाले भी अपने आप को रोक नहीं  पाते  फिर युवा तो युवा  ही ठहरे  जैसे तैसे यह डे मना ही लेते है दिल है कि  मानता ही नहीं  ,प्रेम तो असीम  होता है उसकी कोई पराकाष्ठा  नहीं  होती I कबीर दास  ने जी लिखा है  -
                      "प्रेम न बाड़ी उपजी ,प्रेम न हाट बिकाय ,
                         राजा, परजा जेंहि रुचे सीस देई ले जाय I
प्रेम का उदय तो मनुष्य के दिल और दिमाग में होता  है और उसका सौदागर कोई भी  हो भले ही वह राजा हो ,प्रजा हो  शाह हो या तानाशाह या फकीर हो Iऔर चोरी छिपे अपना प्रेम इज़हार  करने में कोई पीछे नहीं  रहना चाहता. कभी -कभी बासी कड़ी में भी उबाल आ जाता है तो युवा पीढ़ी  का क्या दोष ......?प्रेम एक अजूबा है उसमें  कोई नियम नहीं  होता है I

        वर्तमान  की दुनिया में जहाँ चारों  और घृणा और हिंसा की बयार चल रही है 
ऐसे में ये डे कम से कम प्यार के बारे में  कुछ तो माहौल बना देता है और युवा जवाँ दिल जब मर्यादा व सीमा तोडकर प्यार के उत्सव को शक के दायरे में लाकर 
अभिशप्त कर देते है तो हम जैसे सामाजिक लोगों  का प्रयास रहता है कि ऐसे डे मनाने 
से तो  अपने दिन ही अच्छे  जो हमारी संस्कृति की जड़े और मजबूत करते है कितना भद्दा  लगता है जब प्यार इजहार करना भी हम पश्चिम से सीखेंगे, सोचने को मजबूर हो जाते है कि  हम क्या से क्या हो गये दिन को भूलकर डे मनाने में  व्यस्त और मस्त हो गये,हमने शांत चित्त से उनका दिन बनाम डे पर प्रभावी विचार के लिए आभार व्यक्त किया और उन्हें वचन दिया की हम दिन ही मनाएंगे  तब कहीं  जाकर  उनके प्रवचन पर विराम  लगा  I

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