मंगलवार, 7 जुलाई 2015

जहां सोच नही वहां,,,,,,,?"[व्यंग्य ]

  जहां सोच नही वहां,,,,,,,?"[व्यंग्य ]
        
         बांकेलाल जी जो हर  समय कुछ -कुछ सोचते रहते है यह जानते हुए कि  ज्यादा सोचना दुखों  का कारण होता है फिर भी सोचते है आज वो एक सरकारी विज्ञापन के पीछे पड़ गए और उसका  शल्य चिकित्सक   की तरह आपरेशन ही कर डाला  वे कहने लगे कि विज्ञापन की दुनिया में  होड़ मची  है कैसे -कैसे  विज्ञापन  दिखाए और सुनाये जाते है एक विज्ञापन देख -देख कर दिमाग सठिया गया है वह कभी किसी भी समय टपक जाता है और जब खाने के समय आ जाता है तो लोगों  के चेहरों पर शिकन सी उभर जाती है  वह है ही कुछ ऐसा मुंह  से पेट तक का माहौल ख़राब कर जाता है और सोचने को मजबूर कर जाता है की जहां सोच है वहां शौचालय और जहां सोच नही वहां क्या ?यह बहस चल रही थी कि  वे कहने लगे  वेरी   सिंपल   जहां  सोच नही वहां से  राजनीति शुरू होती है l 
                 बांकेलाल जी जब बोलना शुरू करते है तो सब की बोलती बंद कर देते है कहने लगे कितनी घटिया हो गई ये कलमुंही राजनीति ,चुनाव के पहले तो सेवा के बड़े -बड़े वादे और चुनाव जीतने के बाद कौन? आम और आम ख़ास और ख़ास हो जाते है 
और नेता  पद कि लालसा अपने चरम पर होती है और यहीं  सोच राजनीति 
का दल -दल बन जाती है और आप हम अरमानों   के पूरे होते  देखने  को तिल-तिल घुटते रहते है और फिर  यह अहसास होने लगता है कि  कुछ नहीं  बदला सब वैसा ही तो है जो सब्जबाग दिखाए थे वो तो केवल चुनाव जीतने के लिए थे पहले की सोच और बाद की सोच का अंतर ही तो समस्या बन जाती है क्या करें ? जनता यह जानते हुए कि  कुछ नहीं  होना है फिर भी विकल्प  में से अच्छा चुनती है पर राजनीति  की धारा ही कुछ ऐसी है कि  जो जीता वह अपने को सिकंदर मानने  लगता है l 
                           जहां  जनता के हितों  की सोच नहीं वहां,,,,,, चुनावी वादों  को जुमला कह  दिया जाता है और जुमलों पर जुमलों का कहर चलता रहता है और जनता दो पाटों के बीच पिसती रहती है और पांच साल यहीं सोच कर सोचती रहती  है की हमने  क्या सोच कर वोट दिया इससे नाटो ही अच्छा था l         
    जहां सोच नही वहां  बंटाधार होने लगता है और सोच का सर्कस देखते  रहो और मन बहलाते  रहो l अगर सोच सही रूप से काम कर जाये तो क्या कुछ नही हो सकता 
पर सोचने  और करने के बीच का अंतर ही सोच को खत्म कर देता है और स्वार्थ की सोच चालू हो जाती है अपनी खिचड़ी अलग पकाना चालू हो जाती हैऔर  जैसे कुएँ में भाँग  घुली हो  सभी  एक जैसा व्यवहार सभी करने लगते है। जन हित की सोच में जमीन आसमान का संबंध हो जाता है और आशा पर कुठाराघात हो जाता है सभी एक ही थेली के चट्टे-बट्टे है    जहां सोच नही वहां,,,,,,,जनता की दुखो का अम्बार तय शुदा हो जाता है l

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