मुआवजा या मजाक
बांकेलाल जी आज सुबह अख़बार की कतरन दिखा कर कहने लगे कि प्राकृतिक आपदा के कारण फसल बर्बादी पर मिलने वाले मुआवजे की राशि पर ऊंट के मुँह में जीरा की लोकोक्ति सटीक बैठती है l सैकड़ा और दहाई से भी कम मुआवजे का चेक जब किसान के हाथ में जाता है तो उसका सर शर्म से झुक जाता है कि भिखारी से भी बदतर बना दिया है सरकार ने l भिखारी को सिक्के मिलते है और किसान को चेक और किसान को तो उसकी राशि भी कुछ अंतराल के बाद ही मिलती है वे रुआंसे होकर बोले ऐसा मुआवजा बांटने से तो अच्छा है, नहीं बांटना l
[व्यंग्य ]
बांकेलाल जी कहने लगे पहले सर्वे किया सर्वे की रिपोर्ट भी सरकार अपने हिसाब से बनवा लेती है जिसमें कई बार विरोधाभास की स्थिति बनती रहती हैं करोड़ों का मुआवजा बांटने की खबर जब ब्रेकिंग न्यूज़ बनती है तो लगता है की सरकार किसानों के प्रति चिंतित तो है l मुआवजा बांटने की लिए भी बड़े -बड़े आयोजन कर लिये जाते है और उसमें होने वाले खर्च भी इसी बजट में शामिल होता है नेता और मंत्री जब मुआवजे के चेक बांटते है तो उनके चेहरे पर विजयी मुस्कान रहती है और जो ग्रहण करता है उसकी उदासी और बड़ जाती है क्योंकि जो मजा इंतजार में रहता है वह मुआवजा का चेक मिलते ही काफूर हो जाता है l
कोई भी प्राकृतिक आपदा हो उसके बाद मुआवजा घोषित करना सभी सरकारों की राजनीतिक ,सामजिक मजबूरी हो जाती है राशि जब घोषित होती है बहुत बड़ी लगती है और जब मिलती है न के बराबर लगती है l बांकेलाल जी कहने लगे शर्म तो तब आती है जब किसान बोलता है इतने बड़े ओले गिरे
तो सरकारी नुमाइंदे ओलो के सबूत मांगते है l बेचारा कहां से लाये ओलो का सबूत
हास्यास्पद और दुखद लगता है कि सर्वे है की मजाक ?मुआवजा शब्द कटे पर नमक छिड़कने जैसा लगने लगा है या यूँ कहे कि दुःखी को और दुःखी करने वाला सरकारी शब्द l
मैंने बीच में बांकेलाल जी को टोंकते हुए कहा कि लगातार बढ़ती प्रकृतिक आपदा ने जंहा किसानों को मौत के मुंह में धकेल दिया है वहीं किसानों के नाम पर हर कोई राजनीति में लगा है सब अपनी -अपनी रोटी सेंकने में मस्त है और किसान रोटी के लिए मोहताज है l अपन तो केवल सुनने से ही थर्रा जाते है जिसके ऊपर यह सब बीतती है वह ही जानता हैं ,घायल की गति घायल जाने l जिन्हें न खेत और खलियान से वास्ता वे ही खेलते ऐसा खेल सस्ता l कब तक ये मुआवजा यूँ करता रहेगा शर्मसार ?
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