सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती---[व्यंग्य ]

ओस  चाटने से प्यास नहीं बुझती---[व्यंग्य ]
                                      ओस चाटने से जिस प्रकार प्यास नहीं बुझती उसी प्रकार एक पैसा कम करने से बुझती नहीं आस l जब रूपये का ही  अवमूल्यन हो गया तो बेचारे पैसे की क्या औकात होगी ? दो कौड़ी के आदमी से बदतर हालत तो एक पैसे ने  कर दी,इतनी कम कीमत तो sms  भेजने की भी नहीं है l जो अर्थ का ज्ञान रखता है  वह जरूर हताश और निराश हुआ होगा कि  एक पैसा कम करके हमारी इज्जत को ही बट्टा लगाया, पर क्या करें ? पैसा बाजार से गायब,अब तो रूपये का जमाना है lआज तो दादाजी भी फॉर्म में आ गए कहने लगे हमारे समय का गाना  है" एक पैसा दे दे बाबू" अब तो  भिखारी भी भीख रूपये में मांगने लगे है और यहाँ   एक पइसे की लालीपॉप देकर हम सबके मंसूबो पर पानी फेर  दिया है  एक तरफ तो  भीषण गर्मी में   मानव के साथ -साथ मशीनों को भी लू  लग रही है और सरकार पानी फेर कर पानी की बर्बादी कर रही है l इस एक  पइसे  के चक्कर  सोशल मीडिया और मीडिया पर कितने लोगों  ने अपनी कितनी ही कैलोरी ऊर्जा का नाश किया होगा इसकी कल्पना मुश्किल है  l पढ़ने वालों को पसीना  आया पर पर फिर भी   कानों  में जूं  तक नहीं रेंगी न कोई उत्तर आया कि एक पइसा गलती से कम  हुआ या जनता के दिल में  लगी आग में और  तेल डाला l 
           सबसे  बड़ी  उपलब्धि यह रही कि  एक पैसे का सिक्का नई पीढ़ी को  देखने को मिला की एक पैसे का सिक्का  भी होता था जो अब पुरातत्वीय सामग्री  बन चुका है अचानक इसकी किस्मत  चमकी  जिधर देखो और सुनो  एक पैसा ही दिखने और सुनाई देने  लगा l हमारी बचपन की बहुमूल्य  मुद्रा को समाचार पत्रों  की हेडलाइन  बनता देख दिल आज बाग  बाग़  हो गया l  गर्मी में भी ठंड का एहसास हुआ l 

इस एक पैसे की कमी से देश में  हताशा के माहौल को कुछ  दिलदार लोगों  ने मनोरंजक ना  दिया -कुछ ने तो इस बचत से म्यूचल फंड में निवेश करने तो कुछ ने इस राशि की  एफडी बनाने का मन बना लिया  तो किसी को फिल्म  का डायलॉग  याद आने लगा -एक पैसे की कीमत क्या  समझो  रमेश बाबू ,एक महाशय ने लिख  डाला कि  - 1 पैसा पेट्रोल सस्ता करना वैसा  ही है,जैसे-"तूने " काजल लगाया और रात हो गयी। परेशानी भी बहुत है इस बचत को  कहाँ इन्वेस्ट करे सीए  भी नहीं  बता पा  रहे है l 

अर्थशास्त्री  हक्के बक्के है अनर्थ शास्त्री भी भौचक्के  है कि  आखिर गलती से इतनी  बड़ी 
छूट देने की गलती कैसे हो गई चुनाव के पास  आते आते कच्चे तेल के भाव का बढ़ना ,जिससे ऐसी आग लग जाती है अच्छे -अच्छे  झुलस जाते हैl जो भी हो किस्मत तो  जनता की ही खराब रहती है दूध की जली  छाछ को फूंक -फूंक  पीती है फिर भी जल ही जाती है ,तेल की आग हो या मंहगाई की आग l 
              यह गाना जनता को  मुँह  चिढ़ाता है पैसा पैसा  क्या करती है पैसे पे क्यों मरती है ? और  जमाने  के  लिए -न बाप बड़ा न भईया सबसे बडा  रुप्पया l तो फिर जनता के साथ भद्दा मजाक क्यों ?एक पैसे का क्या हिसाब ?

  संजय जोशी 'सजग "

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