सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

अधजल गगरी छलकत जाय [व्यंग्य ]

अधजल गगरी छलकत जाय  [व्यंग्य ] 

                                     
       आखिर कब तक चलेगा ये सिलसिला   ? बिना सिर पैर के कुछ भी बको  ?  लल्लन जी आये दिन  नेताओ के उल्टे पुल्टे बयानों से  परेशान होकर कहने लगे कि  गीता मे भी कहा गया है ।" न हि ज्ञानेन संदृशं पवित्र मिह विद्यते " अर्थात् - ज्ञान से अधिक पवित्र संसार में कुछ भी नही है ।कलयुगी गीता में  अज्ञानी  और ज्ञानी के बिच में  तथाकथित महाज्ञानी का पाया  जाता है l वह  कबाब में हड्डी और प्यार में सेंडविच की तरह खटकता है l वो सब कुछ  जानता है पर आधा  अधूरा  ज्ञान बात का बतंगड़ बना देता है अपने अज्ञान को मनोरंजन और  की धकेल देता है  जिससे न्यूज़ चैनल तो अपनी  टीआरपी बढ़ा लेता है और  सोशल मीडिया पर टाइम पास का एक नया  विषय मिलजाता है l अच्छे -अच्छे की किरकिरी करने में सोशल मिडिया पर मोजूद   तथाकथित ज्ञानवान कोई कसर नही छोड़ते lजिस स्थान पर नदी गहरी है, वहां का जल शांत होगा। इसके विपरीत जहाँ पानी कम होता  है हमेशा शोर करने वाला होगा।  यह  शाश्वत  सत्य है !   ज्ञानशील  मनुष्य हमेशा  शान्ति लिए रहता है  औए  अज्ञानी  शोर करता है  l
                    उनकी बात बिच में  काटकर वर्मा जी कहने लगे   "अधजल गगरी छलकत जाय  "पूरा भरा घड़ा कभी छलकता नही है परन्तु घड़ा जब आधा भरा हो तो वह छलकने लगता है । यही  हाल आजकल हमारे नेताओ का है l किसी भी विषय पर अध कचरे  ज्ञान से उलूल जुलूल बोलना राजनीति में फैशन सा हो गया है जनता भी चटखारे लेती है l बची कुछी कसर  डिजिटल  युग में विडियो से छेड़छाड़ कर उसे अगल ही दिशा में मोड़ दिया जाता है पूरा ही अज्ञानी बना दिया जाता है l  जो बोल दिया वो ही सही है उससे  टस में मस नही होते है अपनी बात पर अडिग रह कर यह  यह शोआफ़ करना चाहते है में सही सही हूँ l तर्क नही कुतर्क करता है  और सामने वाला सतर्क हो जाता है l अज्ञानी  से ज्यादा  खतरनाक होते - जबरन के  ज्ञानी बनने वाले l जबरन के ज्ञानी एक विशेष प्रकार के प्राणी अधिकतर  स्थान पाए जाते है जो  ज्ञानियों के स्पीड ब्रेकर का काम करते है l
यह इनका एक विशेष प्रकार का जूनून होता है --जबरन ज्ञान  बघारने का मोह छुटे नाही  इनसे l
                                     मैंने   कहा आप दोनों सही कह रहे है बड़बोले समझते है की उनके ज्ञान के आगे सब कुछ गलत है और इर्द- गिर्द मंडराने वाले  चमचे उनके झूटे ज्ञान पर वाह वाह करके चने के झाड़ पर चढाते और उसके मुगालते में और  वृद्धी करके उसे कहीं का नहीं छोड़ते है l जोश खरोश से वह अपने स्वयम अपने ज्ञान का कायल हो जाता है और उसमे महारथी हो जाता है l वह इतिहास बदलने से लेकर देश में विज्ञान के चमत्कार की तरह  कई चमत्कारिक  ज्ञान देता  फिरता है l वह ज्ञान बाटना  अपना अधिकार  समझता है  और  कोई ग्रहण करे या  न करे , हंसी का पात्र बनकर भी बेशर्म की तरह खीसे निपोरता है और अपने ज्ञान के  अहम में अँधा  होकर जीता है lरावण   , दुर्योधन  को भी को अपने ज्ञान का  घमंड था  पर   हश्र  क्या  हुआ ? सबको पता है  घमण्ड कांच के बर्तन की तरह होता है कभी चटक सकता है l  एक लोकोक्ति है कि बिना सोच विचार के जो बोलता है  वह अन्त में  दुखी होता है  पर इधर कुछ ऐसा नही है  l बोलना है तो  बोल दिया , हम तो बोलेंगे lइनका   कर भी क्या सकते हो  ?-जब अधजल गगरी छलकत जाय l

संजय जोशी "सजग "

विकास दिखता क्यों नहीं -- [व्यंग्य ]

विकास दिखता क्यों नहीं -- [व्यंग्य ]

                                         विकास दिखता  क्यों नहीं ?  महसूस होता नहीं  ?तो आखिर विकास क्या है  ? मैंने अर्थ शास्त्री से पूछा  तो उन्होंने बताया कि  देशों, क्षेत्रों या व्यक्तिओं की आर्थिक समृद्धि के वृद्धि को आर्थिक विकास कहते हैं  रोनाल्ड रीगन के अनुसार -विकास की कोई सीमा नही होती, क्योंकि मनुष्य की मेधा, कल्पनाशीलता और कौतूहूल की भी कोई सीमा नही है।वे आगे कहने लगे कि विकास तो एक सतत प्रक्रिया है पर राजनीति  के अन्धो को विकास दीखता ही नहीं है या यूँ कहे की पक्ष -विपक्ष को एक दूसरे का विकास सुहाता ही नहीं है l  जहाँ भूख से मरने वाले हो , भूखे सोने वाले हो सिर पर छत न  हो ,हाथो को काम न हो , ,शिक्षित बेरोजगारों की बड़ी फौज हो ,और किसान को अपनी उपज   का सही मूल्य न मिले ,ऐसे  विकास को  क्या कहेंगे ?
                     वे आगे कहने  लगे कि -योजनायें  कागज  तो पर बन पर  क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार रूपी दीमक योजनाओं को चट  कर जाती है और विकास धरा पर यूँही धरा रह जाता है और वहीं यक्ष   कि प्रश्न कुछ विकास  हुआ ही नहीं?विकास की गंगा  बहा देंगे पर विकास  की गंगा सूखने लग जाती है और सिर्फ सूखा ही सूखा नजर आता है l रोड़ो का विकास तो दीखता है  पर बाकी  क्षेत्र रोड़े ही रोड़े अटकाए जाते है lअफसर और अधिकारी स्पीड ब्रेकर का रोल निभाते हैंl
   कल्लू बाबा से पूछा की विकास  दिखाई देता है तो  मुँह बिचकाकर और कंधे उचकाकर कहा कि 
पेट खाली हो तो कोई विकास क्या ,कुछ भी नहीं दीखता हैं  सिर्फ रोटी दिखती है l भूख और विकास का गहरा संबंध है  जिसकी  भूख  शांत नहीं  होती है उसे विकास देख  क्या  मिलेगा ? सबकी अपनी -अपनी भूख है   वह   उसे ही शांत करने में लगा है किन्तु एक कटु सत्य है कि भूख कभी मिटती नहीं है और भूख के अंधे  को हर और भूख और भूख ही नजर आती है l विकास भी एक भूख ही है जो   कभी संतुष्ट नहीं होती है और सही भी है संतुष्टि ही मृत्यु है l 
           हमारे  मोहल्ले  में राजू भइया है जो बेरोजगारी से परेशान है जब उनसे पूछा की  विकास हो रहा है दीखता है की नहीं तो कहने जब हमरा विकास होगा जब देखेंगे और  समझेँगे  की विकास किस बला का नाम है l अभी तो सब देख कर भी अनदेखा करते है  आप ऐसे प्रश्न पूछकर दिमाग की घंटी बजा देते हो l मार्निग वाक  पर सीनियर सिटीजन  से पूछा विकास दीखता है कि नहीं तो वे कहने लगे आम जनता से ज्यादा विकास तो नेताओं का  का हो रहा है  ,रोड़पती पार्षद ही करोड़पती बनकर इठला रहे है और बड़े नेताओं का क्या कहना आप सब उनका विकास तो जानते   ही हो l  और विकास  वहीं  का वहीं  रेंग रहा है और रेंगता रहेगा l व्यक्तिगत विकास और सर्वागीण विकास अलग अलग बात है l
 नगर के समाज सेवी   बांकेलाल जी जो पर्यावरण प्रति , बहुत जागरूक है उनसे जब जब पूछा तो कहने लगे विकास तो हो रहा है पर पर्यावरण तो ताक में रखकर किया गया विकास ,विकास नहीं विनाश है प्रकृति से खिलवाड़  की सजा जब वह देती है तो विकास डरावना लगता है सोचने को मजबूर करता है  कि आने वाली पीढ़ीको हम रसातल ले जारहे तो विकास को क्या कहेंगे l


                                मैंने कहा की विकास तो हो रहा है दिन   दूनी और  रात चौगनी रफ्तार से हो रहा है  दिखना या न दिखना दृष्टी दोष हो सकता है  नजरे  बदलने से नजारे बदल जाते है और विकास  ही  विकास दिखने लगता है पर कोई अपनी नजर तो बदले पर कोई बदलने को तैयार ही नहीं है इसलिए विकास दीखता नहीं है और दिखेगा भी नहीं lमैंने  अपने मित्र से प्रश्न  दागा  कि विकास क्या होता है तू  क्या जाने -----l तो वह कहने लगा जानना भी नहीं -मुझे क्या करना विकास से मेरा विकास तो तेजी से हो रहा है l विकास होता तो निरन्तर है पर दीखता नही सब की समस्या है l बाप द्वारा किया विकास  ओलादो को  गले नही उतरता है  तथा सरकार द्वारा किया गया जनता को l  और चाहिए का सिंद्धांत कभी पूरा नही होता है l असंतृप्त प्राणियों की भीड़ बढती जा रही है इस धरा पर -----विकास को अनदेखा करने वालो की l

संजय जोशी "सजग " [ व्यंग्यकार ]

प्यारे लगे बंगला --- (व्यंग्य)

प्यारे लगे बंगला ---   (व्यंग्य)



                             सरकारी महकमे में उच्च पद पर आसीन थे  शिखर जी  l उन्हें सरकारी क्वाटर  मिला हुआ था , उससे असंतुष्ट थे , वे बंगले के शौकीन थे l वे एक अदद सरकारी बंगले की जुगाड़ में लगे रहते थे l अपने कर्तव्य से ज्यादा समय बंगले को  हतिया कर  बीबी के सपने को पूरा करने के लिए जी जान से जुटे रहते थे l जिस पर उनकी निगाह होती थी ,उस बंगले पर  उनके साहब  डेरा डाल देते थे ,l वे  बेचारे ठन ठन गोपाल  बने  रहते  l बीबी बच्चो के ताने सुन सुन कर हताश और निराश रहते थे ,l इस टेशन में  कार्य  में गलती की अधिकता से  वे बड़े  साहब  को अप्रिय और खलने लगे  थे ,इसी कारण वे बंगले से दूर  होते  गये l  जब  भी मौका आता बड़े सर अपने  परम् प्रिय को  अलाट करवा देते  l शिखर जी को  मिलता बाबाजी का ठुल्लू l सरकारी बंगला क्यों लगता है इतना प्यारा ? तो वे कहते बिजली पानी और भी सुविधा  फ्री और झांकी  दिखती सो अलग ,  मैंने  कहा वाह रे झांकी बाबू   सलाम l 
                                   देर है पर अंधेर नहीं आखिर उनका सपना पूरा होता है  उन्हें नए साब की कृपा के  पात्र  हो जाते है , एक बंगला मिल जाता है  l  उसकी हालत देख कर उनका मन मसोस जाता है l अब वे उसे दुरुस्त और रंग  रोगन के  लिए सरकारी जुगाड़ में लग जाते है l येन केन प्रकारेण सफलता पा  ही लेते है l   शुभ मुहर्त में  "बंगला  प्रवेश "कर  जाते है l परिवार  में हंसी ख़ुशी का माहौल रहने लगता है l  उनके ऑफिस  के  छोटे बड़े अधिकारी जब उस बंगले में आते है तो जी भर के तारीफ करते है , वे  ऊपर से फुले नहीं समाते और अन्दर  ही अन्दर भय भीत होते रहे कि राजनीती चाल  चल कर  कोई इसे हतिया न ले l  सरकारी तंत्र ऐसे ही दाँव चलते  रहते है एक बंगले के लिए l नौकर शाही और लोक शाही सरकारी बंगले  का विशिष्ट  स्थान है l सबकी चाहत  सरकारी  बंगला  मुझे पर्मनेन्ट मिल जाये l इतना  प्यारा लगता सरकारी बंगला   मोह छूटे नाही l 
                            राजनीति में  चुने हुए और हारे हुए  प्रतिनिधियों में बगंला दवंद एक रूटीन  प्रक्रिया है  तू हटे तो में   फंसू  l पद मुक्त होने वाले नेता भी बंगले पर  कुण्डली  मार कर अंगद के पांव जैसे  डटे रहते है जब तक को सख्त  आदेश  न हो l सरकारी बंगले से इतना  प्रेम क्यों ? नियम कानून  है तो पालन  क्यों  नहीं करते ?बाद किरकिरी जरूरी लगती है ? केंद्र से लेकर राज्यों तक ऐसे  ही हालत क्यों है ? सरकार और जनप्रतिनधि दोनों ही   जिम्मेदार  है ?नैतिकता को ताक  में क्यों रखते है  ?उत्तर प्रदेश के बंगले रोज सुर्खियों में है l इसका सीधा साधा कारण यह है जनता और  सबको  फ्री फोकट का जो मिलता है उसी में सुकून मिलता है l आप का घर/बंगला  कितना भी अच्छा हो पर सरकारी बंगले का सुख  तुम क्या जानो रमेश बाबू  ? इस लिए सबको अच्छा लगता है सरकारी बांगला l इसीलिए तो सब कहते है सरकारी  बंगला ही मोहे प्यारा लगे l 

संजय जोशी 'सजग 

कदम का दम [व्यंग्य ]

कदम का  दम [व्यंग्य ]
                              
                        फूँक फूँक कर कदम ' रखने  के बाद भी  कदमो को पीछे करना कदमो की तोहीन है  ? ,जिसके कदम में दम  है  उसका क्या ? कदम का ही दम  निकल जाए तो कदम बढ़ाने वाले  दोष क्या ?,जरूरी ही नहीं की हर कदम  ठोस हो जो  टस से मस ही न  हो ,कड़े  और ठोस कदम कभी आगे पीछे नहीं होते l इसलिए  कड़े कदम उठाने की रिस्क  बिरले लोग ही उठाते है l आगे कुआं  और पीछे खाई हो  , तो कदम सहम जाते है l दोनो  हाथो में लड्डू हो तो कदम लचर हो जाते है l ये तो अच्छा है  कि  हमारे कदमो  में ट्यूब लेस टायर ईश्वर की देंन है नहीं तो उनके कदमो  की हवा  तो रोज निकलती है वैसे ही  हमारी  भी निकलती रहती l हमारे कदम  मार्निगवाक्  लायक भी नहीं रहते l जहां कदमो और मुकदमो की भरमार हो वहां कदम  ठहर जाते या बहक  जाते है l बढ़ते  कदम " कदम चूमना " की और अग्रसर हो जाते है l   खर्राटे   लेने वालो की  नीद उड़ा  देती है,  कुछ कदमों की  आहट l 

                              अब प्रश्न ये उठता है  कि कदम किसके इशारे से चलते  है ?मन की शक्ति कदमो को आगे और भय पीछे हटाता है l सीधे  सरल कदम मंजिल तक आसानी से पहुंचते है l शराबी के कदम लड़खड़ाते है उसे गटर में धकेल  देते है l  कदमो के प्रति ईमानदारी कदमो को  थकने नहीं देती है l चोपाये और दो पाये के कदमो का उदेश्य अलग अलग होता है  स्वार्थ अपना - अपना l चोपाये के कदम जब दौड़ लगाते है तो हमला और बचाव दोनों समाहित होता है l दोपाये  के कदमो  की दौड़ सिर्फ होड़ के लिए होती है l कुछ तो सिर्फ दुबला बने रहने के लिए अपने कदम बढ़ाते है l राजनीति में अपने  कदमो  की अपनी अपनी व्यख्या दी जाती है चाहे वे  उलट -पलट दिखे l इनके कदम कभी थकते भी नहीं है और मंजिल पर भी  पहुंचते  नहीं है l मुक्ति बोध के शब्दों में --
मुझे कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए !! 


 इसी तरह   कदम कदम पर  मुँह  फाड़े  खड़ी है समस्याएं  ,को दूर करने के लिए समय  समय पर कई तरह के कदम उठाये जाते है एक साथ   उठाये गए कदमो की ताल में  वे बेताल हो जाते है l  बेताल कितना उलझाता  है विक्रम को चक्रम  बना देता है ,तो जन सामान्य  का  क्या ?वह  पहले ही उलझा हुआ है l  कदमो की ताल के  शोर जनहित के मुद्दे  यूँ ही  दब जाते है l किस्म किस्म के कदम है जैसे -कड़े कदम,  बड़े कदम ,तेज कदम ,भरी कदम ,ठोस कदम ,पहला  कदम ,आखरी  कदम ,असरदार कदम ,सोचा समझा कदम  और साहसिक कदम आदि , छोटे कदम आदि ,ऐसे कदमो का कोई अंत नहीं  है  कदम दर -कदम चलते रहते और कब उनका  दम निकल बेदम हो कर  ये निरीह हो जाते है और हम ठगे  से रह जाते है l 
              एक कविता के बोल है कदम कदम बढ़ाये जा, खुशी के गीत गाये जा यही उसूल होना चाहिए ,जीवन में बढ़ते कदम का बहुत महत्व है l निरशा या  डर में ही आदमी  अपने कदम पीछे करना मजबूरी  हो सकता है  या कोई  नई  खुरा  पात   ही हो  l कदमो का   चलना जगागरूकता का  संदेश देता है l जाग  कर  रुक जाना ही  जागरूकता है क्या ?

संजय जोशी 'सजग 

ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती---[व्यंग्य ]

ओस  चाटने से प्यास नहीं बुझती---[व्यंग्य ]
                                      ओस चाटने से जिस प्रकार प्यास नहीं बुझती उसी प्रकार एक पैसा कम करने से बुझती नहीं आस l जब रूपये का ही  अवमूल्यन हो गया तो बेचारे पैसे की क्या औकात होगी ? दो कौड़ी के आदमी से बदतर हालत तो एक पैसे ने  कर दी,इतनी कम कीमत तो sms  भेजने की भी नहीं है l जो अर्थ का ज्ञान रखता है  वह जरूर हताश और निराश हुआ होगा कि  एक पैसा कम करके हमारी इज्जत को ही बट्टा लगाया, पर क्या करें ? पैसा बाजार से गायब,अब तो रूपये का जमाना है lआज तो दादाजी भी फॉर्म में आ गए कहने लगे हमारे समय का गाना  है" एक पैसा दे दे बाबू" अब तो  भिखारी भी भीख रूपये में मांगने लगे है और यहाँ   एक पइसे की लालीपॉप देकर हम सबके मंसूबो पर पानी फेर  दिया है  एक तरफ तो  भीषण गर्मी में   मानव के साथ -साथ मशीनों को भी लू  लग रही है और सरकार पानी फेर कर पानी की बर्बादी कर रही है l इस एक  पइसे  के चक्कर  सोशल मीडिया और मीडिया पर कितने लोगों  ने अपनी कितनी ही कैलोरी ऊर्जा का नाश किया होगा इसकी कल्पना मुश्किल है  l पढ़ने वालों को पसीना  आया पर पर फिर भी   कानों  में जूं  तक नहीं रेंगी न कोई उत्तर आया कि एक पइसा गलती से कम  हुआ या जनता के दिल में  लगी आग में और  तेल डाला l 
           सबसे  बड़ी  उपलब्धि यह रही कि  एक पैसे का सिक्का नई पीढ़ी को  देखने को मिला की एक पैसे का सिक्का  भी होता था जो अब पुरातत्वीय सामग्री  बन चुका है अचानक इसकी किस्मत  चमकी  जिधर देखो और सुनो  एक पैसा ही दिखने और सुनाई देने  लगा l हमारी बचपन की बहुमूल्य  मुद्रा को समाचार पत्रों  की हेडलाइन  बनता देख दिल आज बाग  बाग़  हो गया l  गर्मी में भी ठंड का एहसास हुआ l 

इस एक पैसे की कमी से देश में  हताशा के माहौल को कुछ  दिलदार लोगों  ने मनोरंजक ना  दिया -कुछ ने तो इस बचत से म्यूचल फंड में निवेश करने तो कुछ ने इस राशि की  एफडी बनाने का मन बना लिया  तो किसी को फिल्म  का डायलॉग  याद आने लगा -एक पैसे की कीमत क्या  समझो  रमेश बाबू ,एक महाशय ने लिख  डाला कि  - 1 पैसा पेट्रोल सस्ता करना वैसा  ही है,जैसे-"तूने " काजल लगाया और रात हो गयी। परेशानी भी बहुत है इस बचत को  कहाँ इन्वेस्ट करे सीए  भी नहीं  बता पा  रहे है l 

अर्थशास्त्री  हक्के बक्के है अनर्थ शास्त्री भी भौचक्के  है कि  आखिर गलती से इतनी  बड़ी 
छूट देने की गलती कैसे हो गई चुनाव के पास  आते आते कच्चे तेल के भाव का बढ़ना ,जिससे ऐसी आग लग जाती है अच्छे -अच्छे  झुलस जाते हैl जो भी हो किस्मत तो  जनता की ही खराब रहती है दूध की जली  छाछ को फूंक -फूंक  पीती है फिर भी जल ही जाती है ,तेल की आग हो या मंहगाई की आग l 
              यह गाना जनता को  मुँह  चिढ़ाता है पैसा पैसा  क्या करती है पैसे पे क्यों मरती है ? और  जमाने  के  लिए -न बाप बड़ा न भईया सबसे बडा  रुप्पया l तो फिर जनता के साथ भद्दा मजाक क्यों ?एक पैसे का क्या हिसाब ?

  संजय जोशी 'सजग "

होमवर्क का हेडेक [ व्यंग्य ]

होमवर्क का हेडेक  

 [ व्यंग्य   ]



      होमवर्क  का हेडेक गर्मी की  छुट्टियां  में भी भी पूरी  की -पूरी छुट्टी में बच्चो को बेचैन करता है  l  तकरीबन  पढ़ने वाला  हर  बच्चा ,चुन्नू -मुन्नू हो या गिन्नी -बिन्नी  होमवर्क नाम की बीमारी से ग्रसित है  बच्चों की डिक्शनरी में होमवर्क शायद सबसे डरावना शब्द है। बेताल की तरह यह  भी  इनका पीछा ही नहीं  छोडता घर में प्रवेश करते ही आधुनिक मम्मियों द्वारा यक्ष -प्रश्न कितना होमवर्क दिया ? बेचारा बच्चा हताश होकर बताता है कि  इतना -इतना दिया है उसके बाद उसकी मम्मी की सुपर प्लानिंग चालू  जाती है में एक घंटे सो रही हूँ तुम सब  होमवर्क  पूरा कर लेना नही तो खेलने नही जाने दूंगी बेचारा बच्चा खेलने जाने के मोह में जी तोड़ मेहनत कर होमवर्क पूरा करता है खेलने जाने के लिये मानसिक रूप से अपने आप  को तैयार करता है और  अगला आदेश फिर प्रसारित कर दिया जाता है जल्दी आना....ट्यूशन  जाना है इससे बच्चों की क्रिएटिविटी, सोचने-समझने की क्षमता और कल्पनाशक्ति तेजी  से घट रही है। वे समझने के बजाय रटने का तरीका अपना रहे हैं।यूरोपीय देश तो होमवर्क से इतना ऊब चुके हैं कि उन्होंने इसे पूरी तरह खत्म करने की दिशा में प्रयास शुरू कर दिया है l हमारे देश में और भी कई समस्या है इसके बारे में कौन सोचे ? बच्चा वोट देता है क्या ?हम तो उसकी ही  सोचते हैं जो वोट देता है तुम बच्चो कौन  से खेत की मूली हो ?

  
                     तनाव में खेलने का प्रयास करता है,अगला टारगेट जो उसे पूरा करना है 
अब वह मम्मी की गिरप्त से छूट  कर पापा के कटघरे में आ जाता है फिर रिविजन  का 
प्रोग्राम चालू  हो जाता है …क्या करे हैरान परेशान है इस होमवर्क ने तो पूरा बचपन ही
धो डाला। समर वेकेशन हो या कोई सा वेकेशन  होमवर्क का खतरा हमेशा मंडराता रहता है  यह होमवर्क नाम  की बीमारी ने बच्चो को क्या माँ और बाप की आजादी के साथ भी कुठराघात कर रखा है l कोर्स से ज्यादा होमवर्क l चुन्नू -मुन्नू हो या गिन्नी -बिन्नी का कहना है कि  होमवर्क नहीं  करो तो पनिश्मेंट  मिलता है और बच्चों और टीचर के सामने 
इमेज खराब का  डर सताता रहता है ,हमारा तो बचपन ही छीन डाला सही है बच्चो की व्यथा से मैंने  भी सहमति जताई की सुनहरा बचपन---दुःख भरा हो रहा है l 

  एक पीड़ित  आधुनिक  माँ ने अपने भाव प्रकट करते हुए कहा कि बच्चों  पर मानसिक दबाव कम करने के लिए हवाई किले तो बहुत बनाये जाते है इसके लिये  न जाने कितने सेमिनार  और वर्कशाप के आयोजन होते है पर सिर्फ औपचारिक होकर रह जाते है तनाव तो बच्चों  के हिस्से में ही रहता है ,घर वाले सोचते है कि  ज्यादा  देर तक स्कूल  में  रहे ताकि घर में शांति रहे और स्कूल  वाले सोचते है पढ़ाई का काम स्कूल  में कम से कम हो और बच्चे के पेरेंट्स  ही सब करवा दे lआज बच्चों का होमवर्क व  प्रोजेक्ट वर्क पेरेंट्स के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है l इसीलिये  तो आजकल एडिमिशन के समय पेरेंट्स की योग्यता  ,और जेब कितनी भारी है यहीं देखा जाता है l 
    निजी स्कूल के टीचर  जी का कहना है कि कोर्स तो  आराम से  पूरा हो जाता है होमवर्क तो बच्चो में कैलिबर बढ़ाने के लिए देते है और सरकारी स्कूल के मास्टर जी का  कहना है हमारे यहां तो न स्कूल में कुछ करवाते है और न ही होमवर्क देने का समय है हमारे पास दूसरे सरकारी काम भरपूर है सब  छात्र  तो ईश्वर पर आश्रित है l 

                   कई बच्चे तो उच्च शिक्षा प्राप्त करने के पहले ही डिप्रेशन के शिकार हो जाते है l ये होमवर्क ने बच्चो का सुख चैन  सब  छीन रखा है और बच्चे कोसते होंगे  कि 
है  होमवर्क का चलन चलने वाले मैकाले ,तूने बच्चों  पर कितने सितम ढहाये,तुझे क्या मिला बच्चों  का बचपन छीनने वाले चेहरे  की हंसी को मत समझ हकीकत-
ऐ होम वर्क  तुझसे  कितने परेशां  है हम सब -----l 
                            
                            
संजय जोशी "सजग " [ व्यंग्यकार ]

गधे और गुलाब जामुन [व्यंग्य ]

गधे और गुलाब जामुन [व्यंग्य ]


                    बात भी अब सही लगने लगी है कि घोड़े को घास नहीं  और गधे गुलाब जामुन और च्यवनप्राश खा रहे है l घोड़ों  और गधों  की अपनी अपनी किस्मत है l घोड़े  के पिछाड़ी और बॉस के अगाड़ी नही आना चाहिए,गधे के बारे में ऐसा  नही कहा है जबकि दुल्लती तो गधा घोड़े से ज्यादा  ही मारता है फिर भी  घोड़ा  ही बदनाम है l जो है नाम वाला वही तो बदनाम है l शहरों में  असली गधे तो विलुप्त से हो गए है लेकिन फिर भी इसकी प्रजाति के लोग बहुतायत में पाए जाते है कालिदास के शहर  में गधा पुलिया है और  आज भी इस  नाम से जाना जाता  है यह पुल l कितनी ही ,नगर सरकार  आयी और चली गई पर किसी  ने इस नाम को बदलने की हिम्मत नही जुटाई और गधों  की याद में आज भी प्रसिद्ध है और तो और गधो का मेला भी लगता है जिसमे  नेता, अभिनेता के नाम के गधे  बिकने आते है ,उनकी फोटो शॉप  होती है और समाचारों और न्यूज़ चैनल की हेड लाइन बनती है l मनुष्य और  गधों  का गहरा  नाता है ,हर मनुष्य में गधे  का अंश हो सकता है पर  मनुष्य का अंश गधे में नही l 
  गधे हमारी प्राचीन  धरोहर है  होली में इसका  विशेष महत्व रहता है  बिना इसके होली खेलने वालों  को मजा नही आता हैl  होली में आदर्श की तरह  कोई अपने आप में   गधा  होने में संकोच नही करता है l ज्ञानवान का प्रतीक रावण भी गधे के मोह से  अछूता नही था उसके सर पर गधे का मुँह इठलाता रहता था l अपने आपको  शेर मानने में शर्म नहीं  आती है तो गधे  जैसे कर्मशील प्राणी से परहेज क्यों ? प्राइवेट  सेक्टर में काम करने वाले को, बेचारे को गधा  समझ लिया जाता है  बस काम और काम l राजनीति  में  भी कार्यकर्ता को यही प्राणी समझा  जाता है और जनतन्त्र में जनता को गधा माना  जाता है जो सिर्फ वोट दे बाकि हम है ना l 
  कभी -कभी लगता है कि काश गधे नही होते तो लोकोक्ति और मुहावरे की कमी हो जाती -
जैसे -काबुल में गधे नही होते,ज्ञान तो दिया नहीं लेकिन गधे का उपनाम देकर जीवन भर के लिए उपकृत भी  कर दिया। झगड़े में एक दूसरे को कहने में नही चूकते की गधा समझ रखा है मेरे दोस्त के पिताश्री हमेशा यह कहते पाए जाते है कि गधे   ही रह जाओगेl गायब होने लिए -जैसे गधे के सिर से सींग लोकोक्ति ठोक दी जाती हैl एक और नाइंसाफी देखिये- जरूरत के समय गधों को भी बाप कहना पड़ता है। एक  सीरियल में  गधाप्रसाद  भी हैl  शिक्षा ,संस्कार , मनोरंजन  और राजनीति  में भी यह अपनी गहरी  पैठ रखता है l गधा सबसे भारी  शब्द है शेर  से नही आजकल गधे से डर  लगने लगा है l  
 इस बार  गधा छा गया और भूचाल आ गया गधे की ताकत का अहसास हो गया सब मुद्दे धराशयी हो गए और चल पड़ी गधों  पर बहस मतदाता  टुकुर टुकुर देख रहा है  हो सकता है इस बार गधा न बने गधो की बहस ने आँखे खोल दी होगी ?
        गधे की महिमा अपरम्पार है इसके बिना जीवन अधूरा है माड़साब व मास्टरनियों का तकिया कलाम है बच्चे उन्हें गधे ही नजर आते है l गधा एक निरीह बोझ तले दबने वाला प्राणी  है  कदम कदम पर इस बिरादरी के गुण  वाले पाए जाते है स्त्रिलिग़ और पुर्लिग दोनों में ही  इसके गुणों का समावेश रहता हैl  यह प्रकुति प्रद्दत गुण है किसी में  बोझ सहने की अपार क्षमता होती है तो किसी में बोझ देखकर दुल्लती और  ढेंचू  ढेंचू  करने लगते है l बॉस को बोझ सहने वाले गधे ही पसन्द आते है ढेंचू  ढेंचू करने वाले नहीं l 

संजय जोशी 'सजग 

ऑटोग्राफ बनाम सेल्फी [ व्यंग्य ]

ऑटोग्राफ बनाम सेल्फी  [ व्यंग्य ]

                          ऑटोग्राफ प्लीज..... की जगह अब  प्लीज  वन  सेल्फी ने ले ली l सेल्फी का  कमाल  तो देखिये कुछ ही  सेकंडो  में वायरल  हो जाती है  ऑटोग्राफ तो डायरी में दफन हो जाते थे , सेल्फ़ी  हमेशा मुस्करा कर स्मार्ट में इठलाती रहती है l आप  भूल  भी जाओ तो मुख पुस्तिका आपको हर  वर्ष याद दिलाती रहती है l ऑटोग्राफ को  सेफी ने  भुला सा दिया है l जब से ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने 'सेल्फ़ी' (Selfie) को 'वर्ड ऑफ़ द ईयर' चुना है तब  से इतने कम समय में  इस सेल्फ़ी शब्द के  लाइम लाइट में आने  पर आश्चर्यचकित  होना स्वाभाविक था जब स्वयं के लिए सेल्फ  शब्द उपयोग करते थे उसमे  कुछ नयापन नही लगता था पर  इसने यह सोचने को मजबूर किया सेल्फ़ी में क्या है?अंग्रेजी  में तो  शब्दों को शॉर्ट में बोलने का  फैशन है तो  सेल्फिश से भी सेल्फ़ी बन सकता है वैसे भी सेल्फ़ी लेने में  स्वार्थ की  हद पर कर जाते है और डिलीट पर डिलीट करते है अपने संतुष्टि  के लेबल के आने तक l 


सेल्फ़ी यानी खुद से खींची हुई तस्वीर अपना हाथ जगन्नाथ ,सेल्फ़ी लेने का चलन जोरों  पर है चुनाव में कइयों ने अपनी सेल्फ़ी खींची ,कुछ सेल्फ़ी विवादित भी हुई तब लगा की एक सेल्फ़ी भी  राजनीति  में  इस तरह भूचाल ला सकती है और लायी  भी l सेल्फ़ी में है दम ,पर इन सब के बीच सेल्फ़ी इस कदर लोकप्रिय होगी किसी को अंदाज नही होगा l कुछ लोगों  ने सेल्‍फी के जरिए प्रसिद्धि पाने का माध्यम बना लिया है खुद को अपडेट रखने के लिए यूथ में इन दिनों सेल्फी  का शौक बढ़ता जा रहा है…उसके  एडिक्ट हो गए है यह कहां  तक जाएगा  ?यह तो भविष्य के गर्त में छुपा हुआ है l  ऑटोग्राफ का  ये आलम है लोगो के पास पेन डायरी की जगह एक स्मार्ट फोन पाए जाने लगा है l 
                                 अब तो  सेल्फ़ी  का  ही जमाना आ गया  है  इस दौर में सेल्फ़ी का भूत सब पर हावी है हॉलीवुड से बॉलीवुड ,देशी और विदेशी नेताओ पर सेल्फ़ी का क्रेजचढ़ चुका है,वाह सबको  सेल्फ़ी  ने क्रेज किया रे ,l गिरेंगे -पड़ेंगे न आगे न पीछे देखेंगे पर  फिर सेल्फ़ी तो  जरूर लेंगे l  सेल्फ़ी  आधुनिकता की निशानी और नशा दोनों हो गया हैl एक फेसबुकिया राजा बाबू  का कहना है कि कुछ तो करेंगे सेल्फ़ी नही करेंगे तो सोशल नेटवर्किंग साइटस खाली -खाली लगेगी  और इसके बिना सब बोरिंग लगेगा जब तक लाइक और कमेंट  की बहार न आ जाये ,क्या करें दिल है कि  मानता ही नही ,मेरी  सेल्फ़ी के साथ कभी   ना  इंसाफी मत करना मेरे दोस्तों , में तुम्हारी सेल्फ़ी पर लाइक  और कमेंट करूंगा तुम भी मेरी सेल्फ़ी पर करना ,मेरी  गर्ल फ्रेंड को इंप्रेस करने में सहायता मिलेगी l आओ मिलकर कल फिर नई  सेल्फ़ी नए अंदाज में वॉल  पर टांग कर टेगासुर बन कर फेसबुक को आबाद करेंगे जो नहीं  देखते उन्हें देखने को मजबूर करेंगे , बेचारे  साहित्य सृजन करने वाले तो टेगासुरों  के खौफ   से यूँ  हीं भयभीत रहते है l  

सेल्फ़ी  फोटो  ने अपना रुतबा  इतना बड़ा लिया सबकी चहेती बन गयी सेल्फ़ी में सेल्फ कॉन्फिडेंस  गले -गले तक भरा रहता है सेल्फ़ी में आपको कोई प्लीज  स्माइल नहीं  कहता और न ही एक आँख बंद करके आपको घूरता है सभी झझंट से मुक्ति देती है सेल्फ़ी l   सेल्फी तस्वीरों की खासियत यह है कि कैमरे की नजर को  थोड़ा ऊपर से नीचे की तरफ सेट करके सेल्फ़ी में मोटापा छिपाया जा सकता है  फोटो खींचने वाला अपनी वही शक्ल क्लिक करता है, जो उसे खुद को  सबसे अच्छी लगती है,भले ही  दूसरों को नही l सेल्फ़ी ने सबको  अपने मूड का मालिक बनाया जब मूड़  हो तब  ले लो सेल्फ़ी l कै मरे वाले मोबाईल बनाने वालों  ने  सपने  में भी  नहीं   सोचा होगा सेल्फ़ी  के इतने  आदि होकर  सेल्फ़ी  के फेन हो जायगे l सेल्फ़ी ने फेसबुक  तो  क्या ट्विटर और वाट्सएप  को  भी सेल्फ़ी युक्त कर दिया l लोगों  के फर्जी फोटो से उम्र का पता ही नहीं  चलता l 
        रोज -रोज की सेल्फ़ी  की प्रवृति से वह दिन दूर नही  जब सेल्फ़ी को मानसिक बीमारी मान लिया जाएगा ,तारीफ पर तारीफ पाने की लत के लिये कोई कुछ  भी करेगा पर जी नहीं  भरेगा  तब तक सेल्फ़ी पर -सेल्फ़ी करेगा, मनुष्य प्रजाति में कुछ नस्ल ऐसी भी है जो अपनी फोटो देख कर कभी संतुष्ट नही होती है कैमरा आईने की तरह सच कम ही  बोलता है पर जो है सो है l कांच तो फोड़ने से रहे पर --फोटो  तो नया ले लेंगे क्लिक ही तो करना है l ऑटोग्राफ प्लीज  सुनंने को  कान  तरसते होंगे जिन्हे ऑटोग्राफ देने का शोक था l हर तरफ सेल्फी ही सेल्फी का शोर है और जोर है l सेल्फ़ी ने सबको  क्रेजी  किया रे.…… l अभी  भी कुछ ऐसे है जो   ऑटोग्राफ और सेल्फी दोनों को ही  महत्व दे रहे है l 

संजय जोशी 'सजग "

आस्था के लुटेरे फ्रॉड बाबा [व्यंग्य]

आस्था के लुटेरे  फ्रॉड बाबा   [व्यंग्य]
  

                      समाज शास्त्र के प्रोफेसर  शर्मा जी आज जब मिले, तो उनके चेहरे पर दुःख के भाव झलक रहे थे ,मेरा पूछना  हुआ कि  क्या  हो गया  दादा ?इससे उनका  गुबार फूट पड़ा  और अपनी व्यथा  को यूँ   बताने लगे  समाज में इसी तरह गिरवाट चलती रही तो क्या होगा ? हम कहां जा रहे है ? सामान्यतया बाबा ,बड़े-बूढ़ों के लिए आदर सूचक सम्बोधन है धीरे धीरे संतो को  ही बाबा  कहा  जाने लगा , क्योकि  संतो  की भीड़ में असन्तों  को पहचानना मुश्किल होने लगा  और बाबाओं  का नया स्वरूप आया जिसमे असली बाबा और नकली बाबा दोनों बढ़ते गए l बाबा शब्द आजकल समाज को चुभने लगा है l  धिरे धीरे   ही सही फ्राड बाबा कानून के शिकंजे में आ तो  रहे है l मीडिया सजा को भी सजाकर दिखाता है l 
एक विशेष किस्म के बाबाओं ने भक्तो की आस्था पर अतिक्रमण कर नीचता  की हद कर दी lभक्त गुलाम  होने लगे ,आस्था के  कुचक्र में फस कर निशब्द होने लगे और अपना जीवन समर्पित कर दलदल को बढ़ाते गए l आस्था के गहन अंधकार में परिवार सहित विलीन हो गये l फ्रॉड  बाबा फ्रॉड  पर फ्रॉड  करते रहे है l सरकारों को बनाने बिगाड़ने का खेल खेलने लगे ,नेता /अधिकारी इनके हाथ की कठपुतली बन गये l फ्रॉड  बाबाओं के हौसले बड़ते गए ये लोकतंत्र को खोखला को करने का काम करते रहे l डेरे और आश्रम व्यभिचार के अड्डे बन गए l शासन -प्रशासन इनके सुरक्षा चक्र हो गए lइनकी सुरक्षा का जिम्मा सरकार लेने लगी  और व्यक्ति विशेष का दर्जा मिलने लगा ,लोग इनमे चरण चाटुकार  हो गये l झूठी चकाचौंध  में हर अनैतिक काम करने लगे पर यह लोकोक्ति कि  पाप का घड़ा  भरता है ,बकरे की माँ कब तक खैर  मनायेगी ,कभी ऊंट पहाड़ के नीचे आता ही है आखिर सोच से सामना करा ही देती है पर अंध भक्त तो  फिर भी फ्रॉड  बाबाओ की भक्ति नहीं छोड़ते l आस्था के  लुटेरे है फ्रॉड  बाबा l अखाड़ा परिषद ने फर्जी बाबाओं की लिस्ट जारी की ,  जिसमे सिर्फ   १४  बाबा फर्जी घोषित किये  गये ,बात  हजम नहीं हुई  
लिस्ट और लम्बी हो सकती है ,फर्जी / ढोंगी बाबाओ से पटा पड़ा  है हमारा देश l बाबा एक परजीवी प्राणी है जो आस्था पर फलता फूलता है और आस्था की छत्र छाया मेँ सभी समाज विरोधी कार्य करता है बाबा एक मुखौटा है जब वह  उतरता है तो मुँह  खोटा लगता है l 

उनकी व्यथा निरंतर जारी थी - फ्रॉड बाबा घिरे  होते हैं  हुस्न सुंदरियों से ,और ईश्वर में आस्था के प्रवचन देते  और भक्त झूमते है l ऐसे  बाबाओं  का   इतिहास  जब खुलता है   तब  लगता है  कि  दुष्ट  अपनी दुष्टता, लुच्चा अपनी लुच्चता और टुच्चा अपनी टुच्चता नहीं छोड़ता है l बहुरुपिए के वेश में धर्म का नाशकर अधर्म  को बढ़ाते है l मीठी-मीठी बातों  में  उलझाकर वो और उनके दलाल ऐसा स्वांग रचते है कि  फ्रॉड  बाबा  ईश्वर से भी बढ़कर  लगने लगे  हैं l शिकारी की तरह  जाल बिछाकर  तन मन और धन से उसे अपने  ताने  बाने  में फंसाकर  उसकी आस्था और श्रद्धा का दोहन साम , दाम  दंड और भेद से करता है l 

 आगे कहने लगे कि बाबाओं का देश है, हर धर्म में बाबाओं  का बोलबाला है सच्चे बाबा बिरले ही है जिनका काम तप और जन कल्याण होगा ?  सबके अपने अपने डेरे, जमात आश्रम हैl  फ्रॉड बाबाओं ने असली बाबाओं  का मान कम किया है अब तो आमजन बाबाओं  को शंका की नजर से देखने लगा है l ऐसा कोई  यंत्र नहीं सच्चे और फ्रॉड  बाबा में भेद कर सके l समाज के लिए अच्छे सन्तों  का होना बहुत जरूरी है जो सही दिशा दे सके पर एक मछली सारे तालाब को गंदा  करती है  यहां तो   कई मछलिया तालाब को  गंदा कर  सड़ा  रही है ,  सड़न समाज को विकृत  कर  रही है l  फ्रॉड बाबाओं  से बचो और बचाओ l सही और गलत  में अंतर समझना होगा ? सच्चे संत समाज के हितैषी होते है पर सच्चे संत की खोज एक कठिन काम है l बुध्दि और विवेक का मिलाप ही  इसका समाधान  है l 

संजय जोशी 'सजग "

आये थे हरि भजन को ....... [व्यंग्य ]

आये थे हरि भजन को .......  [व्यंग्य ]
                                   
                      आज एक धर्म समागम में बाबाओ के मंत्री बनने की खबर  से वातावरण गर्म था और  प्राकृतिक गर्मी अपना असर अलग दिखा रही थी l  चल पड़ी बहस इस विषय पर l एक वरिष्ठ नागरिक  मुकुंदबिहारी जी हमेशा  बाबाओ से खफा  ही रहते है आज उनका खफायपन चरम पर था l 
                               वे कहने  लगे कि बाबा क्या है ?बाबा एक सम्मान  सूचक शब्द है l इसीलिए तो संत /महात्मा को  'बाबा "कहा  जाता है याने  कि  वे श्रद्धा के पात्र है lसच्चे बाबा अब कहां  है ? बाबा और भक्त अपने अपने स्वार्थ में उलझे है l बाबाओ ने ऐसा कोई क्षेत्र न छोड़ा होगा  , जहां घुसपैठ न की हो l घुसपैठिये बाबा समाज का क्या भला करेंगे ? बाबा और  भक्त दोनों ही आत्ममुग्धता के मारे है l आये थे हरि  भजन को कुछ  और  ही गजब करने लगे l देशी बाबा के नाम विदेशी , संस्कारो की कर दी ऐसी तैसी l  संत कबीर कहते है --

साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं ।
धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं ॥ 
               धर्म समागम में तो सीनियर सिटीजन का  ही कब्जा रहता है पर आजकल इनकी  मोनोपॉली   खतम  होने की कगार पर है  ,युवा भी करे तो क्या करे ? पकोडे भी कितने तले चले आते है , ऐसी जगह l आधुनिक गाने  पर डांस पर डांस करते नहीं थकते आये थे हरि  भजन को करने लगे  भोंडे डांस l कहना था  जनक जी  का ,वे न युवा थे और न सीनियर सिटीजन l बाबाओ के क्रिया कलापो से अच्छे खासे  रोष में  थे अपना  होश  खोये जा रहे थे l तथाकथित बाबाओ ने धर्म के नाम पर भक्तो को ठगने का धंधा बना लिया है कुछ ने बाबियाँ भी पाल  रखी है शर्म तो जब आती है अच्छे अच्छे नेता चरणचाटन की क्रिया करते है जिससे तथाकथित बाबाओं  और बाबियों  के दिमाग सातवे आसमान पर पहुंच जाते है l 
                                              मुकुंदबिहारी जी फिर  सबकी बात काटते हुए कहने लगे                 बाबा क्यों बनते है ?और बन भी गए  थे तो अपनी आत्मा की शपथ  क्यों  भूल जाते है ?और उनका दिल मानता नहीं है और गजब गजब के कारनामे करते है l आये दिन बाबा काण्ड उजागर होते रहते है जनता फिर भी इनकी पिछलल्गू बनी रहती है कोई चमत्कार की आस मेंl  बाबा भी ऐसे ऐसे  चमत्कार करते है  की  भक्त भी शर्मसार हो जाते है l 
     भक्तो को ऐसे सम्मोहित करते है कि  भक्त भी  तन मन और धन से  समर्पित हो जाते है यह भी कला है और  बाबा  भी  इस  कला के कलाकारी में निपुण हो जाते है l कहावत है की सेर को भी सवा सेर मिलता है और पाखण्डी बाबाओं  की गुप्त करतुतो की पोलखोल कर उन्हें  सलाखों के पीछे भेज देते है l 
                            इसमें युवा शक्ति की आवाज आयी की कुछ बाबा   ऐसे  भी  है सरकार  की औकात   दिखाते दिखाते अचानक मंत्री बन जाते है  राजा के प्रति सब दुर्भाव   भूलकर उसके किये गए कर्म जो कल तक बुरे थे आज सराहे  जाने लगते है l लालीपाप से   बच्चो को पिघलते देखा था  अब साधु संत भी लालीपाप के शौकीन हो गए  ,इसे मिलते ही पलटी मार  देते है  बाबा भी  अब  पलटी मार भी होने लगे है और राजनीति शरणम गच्छामि करने लगे  है l भक्त भी बड़े कौतुक से इस घटना को देख कर  टेन्स  हो जाते है  l राजा  दशरथ  के राज्य में  साधु संत ने  कभी  मंत्री बनने की लालसा नहीं रखी l असली संत तो राज के ऊपर होता है और नकली संत राजा की दासता  स्वीकार कर उसके गलत कामो के सहयोगी बन जाते  है l पलटीमार बाबा क्या  हरी भजन कर अध्यात्म की अलख जगायेंगे ?
                                पढ़े लिखे मारे मारे  फिरे ,बाबा मंत्री आज l 
                                 कठपुतली  बन रह  गये ,अनपढ़ करते राज ll 
                                        

                        मेने भी अपनी जबान खोली  ताकि बहस का अंत जल्दी हो दुनिया में और भी है गम .. समय है कम  l   आजकल हर कोई अपने उदेश्य से भटककर  राजनीति  की अनीति को अपनाने लगता हैl  सब को नेतागिरी  का चस्का  जो लगा है ,अधिकारी ,बाबा ,व्यापारी और उद्योगपति अपनी  संभावना राजनीति  में ही तलाशते है l सियासत की चकाचौंध से प्रभावित  होकर  राजनीति  करने लगे है l  कुछ  व्यापारी हो   गये   l हमारी  संस्कृति  का आधार  संत ,मुनियो  से है वे धर्म और संस्कृति को बचाने का  काम  क़र  रहे है कुछ अपवाद तो हर जगह है जिन्होंने बाबा होने की  मर्यदा को   तार  तार कर  दिया  l   बाबाओ  से  डर  लगता है  ? क्योकि 
एक प्रसिद्द लोकोक्ति है --आये थे ह्री भजन को -ओटन लगे कपास ----l 

"एटीएम " का सूखना [व्यंग्य ]

"एटीएम " का सूखना  [व्यंग्य ]
                        भाग्यवादी सुख  ना  मिलने पर किस्मत को कोसते है और भोगवादी को समय पर पैसा न मिले तो " एटीएम "को,  बैंक और सरकार को कोसते है l आज न्यूज़ चैनल पर एटीएम  सूखने की  खबर से दिमाग चकरा  गया  कि इनका  सूखना भी कोई सू खना है इतना  हाहाकार क्यों  ? हर चैनल पर इनके सूखने की ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही है  l सब अपने -अपने पक्ष दे रहे है l देश में  भयंकर सूखे  से ज्यादा इनके सूखने की खबर है l इनका भी दोहन इतना हो रहा है सूखना तो है ही lप्रकृति  के अतिदोहन के दुष्परिणाम हम देख ही रहे है क्योंकि  स्वार्थ में अँधा होकर अपना मतलब निकल ही रहा है वैसे ही स्वार्थी लोग  " एटीएम "को सूखा रहे है इसको सूखने में अफवाह  भी  अपना योगदान दे रही है जिसे जरूरत नहीं है  वह  भी निकालने में भिड़ा हुआ है की केश की किल्लत  है और न्यूज़ चैनल इसे और हवा दे रहे है l यह कहना है बैंक बाबू चंद्रेश जी का  l 

बैंक बाबू कहने लगे  कि  देश बदल रहा है बचत की आदत तो लुप्त हो रही है पुराने समय में बचत करो और उपयोग करो अब लोन लो और चुकाओ नहीं तो दिवालिये हो जाओ l खाना ,पीना  ,मकान व गाड़ी का जुगाड़ सब तो लोन पर है l और फिर कहते है जिंदगी में   सुख ना है रातों  की नींद हराम है या यूँ  कहे कि नींद भी सूख चकी है lनदी -नाले  कुछ समय के   लिए सूखते है  मानसून आते है ही सब कुछ हरा  हो जाता है l पर यह सूखने की बीमारी विकराल है क्या क्या न सूखा है  ? आपसी रिश्ते, संवेदना,  मानवता ,भाई चारा और सहानुभूति ये सब सूख चुके है इसलिए तो  दिलो और दिमाग पर हावी है इन सब का सूखना मिटाने लिए  कोई मानसून नहीं आता है l मान हानि आती है जो समाज को और सू खने की और धकेलती है l खाली जेब और खाली पेट दुनिया की हकीकत से अवगत करा देता है कि व्यवहार भी सूख गया है l   काल करें सो आज कर, आज करे सो अब,. कवि कबीर जी ने कहा  तो कुछ लोग पालन भी कर  रहे है और  एटीएम  खाली हो जायेगा ,  जेब  भरेगा कब? वैसे एक कहावत है सावन के  अंधो को सब हरा हरा ही दिखता है अब इसमें हम भी क्या करें  ?

                   मैने कहा   आप सही कह रहे है कुछ स्वार्थी लोगों  ने एटीएम  सूखा  दिए एक तरफ  जल स्त्रोत सूखने का का दर्द और कमी थी  तो ये भी सूख गए  दुःख दुगना हो गया अब नोट  देकर पानी खरीदना भी मुश्किल हो गया है जब देश में सभी सूख रहा हैं तो हम खुश  कैसे रह सकते है l सूखा कोई भी  हो  इसका प्रबंधन जरूरी है l जैसे बिन पानी सब सून लगता है l सूखना कोई भी हो बुरा ही लगता है l उम्मीदों के सागर भी सूखने लगे है l सुख की  चाह में सुख  ही सूख रहा है तो एटीएम का सूखना कोन  सी बड़ी बात है l आँखों का पानी भी अब सूख रहा है l हर और सूखा ही सूखा होतो सूखने का दर्द   ज्यादा  ही होता है l जितनी राजनीति एटीएम सूखने की हो रही है l सकारात्मक भी कुछ हो जाए तो जीवन और देश में हरियाली आएगी l 


संजय जोशी 'सजग "

स्कूल गए हम [व्यंग्य ]

स्कूल गए हम  [व्यंग्य ]

    आओ स्कूल चलें  हम  --अभियान के प्रचार प्रसार से प्रभावित होकर हम कुछ मित्रों ने स्कूलों  के भ्रमण का प्रोग्राम  बनाया कि  ऐसा क्या है आखिर इतना प्रचार किया जा रहा है और लोग बाग कन्नी काट रहे है ,कुछ तो नया होगा जब  इतना ही  ढोल पीटा जा रहा है सबने  सोचा चलो कुछ   नया अनुभव लें जिससे   अपनी सरकारी स्कूल  के प्रति धारणा  को बदलने में सहायता  मिलेगी ,और  फिर  हम दूसरों की   बदलेंगे --.  कि   कितना  है  दम   " आओ स्कूल चले हम.…… अभियान में l 
                           हमारी मित्र मंडली ने एक दिन स्कूल के नाम पर ही समर्पित 
कर   दिया कि   फ़टे में टांग अड़ा  फंसा कर ही रहेंगे , क्योंकि शिक्षा हमारी आने वाली पीढ़ी की  नींव है और वे राष्ट्र की अमूल्य सम्पदा  है  हमने कई स्कूलों की खाक छानी  और  कई छात्रों ,शिक्षकों  , व पालको से इस बारे में  चर्चा कर अपने दिमागी जाले झाड़ने  तथा ज्ञान और मत को बढ़ाने की चेष्टा की और उसमे सफल भी हुए l  सत्य हमेशा कड़वा ही होता है और सत्य परेशान हो जाता है पर पराजित नहीं  ,इसी बात को मद्दे- नजर रख कर प्रतिक्रिया देने का मन बनाया l जो किसे कड़वा,या  किसे मीठा लगेगा  क्या पता l हम सभी मित्रो के अनुभव का निचोड़ इस प्रकार है

                       हमने इस  पवित्र अभियान के उदेश्य के बारे में विचार विमर्श किया कि  आख़िर इसकी  जरूरत  क्या  है  ? एक मित्र बोला कि  यह एक कानून है कि हर बच्चे को शिक्षा मिले कोई  अनपढ़  न रहे   ,दूसरा मित्र बोला की स्कूलों  की दशा और दिशा सही कर ले तो भीड़ आ जायेगी , तीसरा बोला आज के महंगाई के युग में कौन   पसंद  करता है बच्चों  को निजी स्कूल में भेजना। पर क्या करें  एक पिता होने के नाते वह अच्छी शिक्षा देकर अपना फर्ज पूरा करता है और सरकार  का  केवल दिखावा मात्र है यह अभियान lजन नेताओं को सरकारी स्कूल से मतलब ही नही  उनके  बच्चे तो विदेश जाते है शिक्षा ग्रहण करने l 
                      सरकारी स्कूल तो केवल औपचारिकता  मात्र रह गए है सरकार अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है , निजी स्कूलों में भारी भीड़   ,सीट  भी खाली नही है एक -एक सीट के लिए  जद्दोजहद ,प्रवेश बंद का बड़ा बोर्ड लगा है ताकि और डोनेशन की प्राप्ति हो सके और सरकारी  स्कूल खाली और वीरान पड़े है तभी आओ स्कूल चले हम जैसे अभियानों पर सरकार करोड़ो रुपये व्यय कर रही है पर   स्थिति वहीं ढाक  के तीन पात l कभी -कभी डर  लगता है कि कहीं सरकारी स्कूल विलुप्त न हो जाये  नहीं तो आने वाली पीढ़ी के लिए यह  पुरातत्व की सामग्री हो  कर  इतिहास का हिस्सा बन जायेगी , जैसे  हमारे प्रदेश मे से रोडवेज  गायब ही हो गई,उसी तरह  स्कूल  भी गायब न हो जाए l
    मध्यान्ह  भोजन भी सरकार का छात्रों की संख्या बढ़ाने का उपाय  हैं पर  यह भी विफल हो गया और छात्रों और पालकों  का विश्वास उठ गया कब  कौन सा जीव जंतु   निकल जाये खाने में l पालक कहते  है खाना ही सही न दे सके सरकार तो  वह शिक्षा क्या देगी l सरकारी योजनाओं  के नाम मोटे दर्शन खोटे ,हकीकत  से कोसों दूर l 
                  स्कूलों की हालत बहुत खराब है गदंगी  की भरमार है भवन है तो शिक्षक नही है ,शिक्षक है तो भवन नही है अगर दोनों हैं तो छात्र नही है l कई जगह जान हथेली पर  रखकर जाना पड़ता है जब तक बच्चा वापस न आये  पालक परेशान रहते है l बेचारा शिक्षक ,सभी सरकारी काम  के बोझ तले दबा हुआ है पढ़ाने  के अलावा  सभी कार्य करना है किसी ने सही कहा  है कि  शिक्षक राष्ट्र निर्माता  होते है तभी तो शिक्षा के अलावा सभी कार्य  करना उसका कर्तव्य है उसका ही है  जहां  शिक्षक  का शिक्षा से कोई वास्ता नही ,पालक कैसे अपने बच्चे को ऐसे स्कूलों में भेजे ,  मूलभूत सुविधा का अभाव,ड्रेस ,किताबों  ,व अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ जरूरत मंद को नही मिलना ,पग -पग पर भ्रष्टाचार  ने कइयों  के हक को मारा है यह खेल बदस्तूर चालू रहता  है यह  हमारी विडंबना ही  है और   "जब स्कूल  गए  हम , इस अभियान में नही है दम --,जन -जन का विश्वास हो गया है कम --छात्र, पालक ,शिक्षक को हरदम रहता  भरम ।
                  
संजय जोशी 'सजग "[ व्यंग्यकार ]
 

फेसबुक बन गई थीफबुक [व्यंग्य ]

फेसबुक बन गई थीफबुक [व्यंग्य ]
                                              बचपन में जब  नैतिक शिक्षा पढ़ाई जाती थी  हमारे टीचर कहते थे कि ”चोरी करना पाप है”। बहुत समय तक एक ही गलतफहमी रही कि केवल चोरी करना ही पाप है। जैसे जैसे बड़े हुए तो ज्ञात हुआ कि  हमारे देश में पाप अब आम है और इसके बिना कोई काम ही नहीं हैl कदम कदम पर चोरी है टेक्स चुराने  के  बड़े  -बड़े महारथी और सलाहकार है चोरी की कविता  मंच पर पढ़ने वालों  का बड़ा हुजूम है, चोरी भी कई तरह की होती है  और चोरी करने वाले भी कई तरह के लोग होते है फिर भी कुछ चोरी करने वाले  भले मानुस कहे जाते है  और समाज में मान सम्मान मिलता है lये चोरियां  चोरी की गिनती में नहीं आती है l हर कोई कहता  हैं कि”अपना काम करता हूँ कोई चोरी करता हूँ ?आजकल चोरियाँ  भी शिद्धत से की जाती है l पर चोरी  तो चोरी होती है l 

          चित चोर का का अपना मजा है प्यार करने वाले कहते है कि प्यार किया चोरी नहीं की है चोरी चोरी दिल तेरा चुराएंगे l उसी प्रकार फेसबुक  की वॉल  से चोरी करने वाले कहते है चोरी नहीं की है कॉपी पेस्ट किया है पर अब तो  हद  ही हो गई की फेसबुक से पर्सनल डेटा  चोरी हो गया फेसबुक पर नित नयी  चोरी हो रही है या यूँ कहे कि  फेसबुक  अब थीफ  बुक बन गई है बेचारे ज़ुकरबर्क को जोर का झटका धीरे से दे ही दिया है कुछ ने अपनी प्रतिक्रिया में यह भी कह दिया कि  फेसबुक को डिलीट  करने का समय आ गया है  lडेटा चोरी हुआ सो हुआ उससे राजनीति  तो गरमा ही रही है, पक्ष और विपक्ष के आरोप जारी है l डिजिटल युग में  में डेटा  चोरी ,हैकर का हैक करना  लीलाएं  है l कलुयग में  डिजिटल युग का मिलन है कुछ ऐसा होना कोई चमत्कार नहीं है डेटा चोरी से  चुनाव पर प्रभाव की चिंता तो सबको है पर इनके प्रभाव से संस्कार और संस्कृति पर कुप्रभाव की चिंता किसे है ?
 नेटवर्क कम्पनियों द्वारा एक से दो  GB  डेटा  रोज देकर  देश के कई लोगो को रचनात्मक  काम में लगा  रखा हैl  माँ, बाप  कमाई से  बच्चे बड़े बड़े मोबाईल लेकर  मस्त है उन्हें न शिक्षा और न ही रोजगार की चिंता है लगे है सोशल मीडिया पर ,लगे रो मुन्ना भाई की तरह l सरकार और माँ ,बाप  भी शांति में है  जब  सोशल मिडिया अन लिमिटेड से लिमिटेड हो जायेगा  तो बेरोजगारों की भीड़ की संभालना मुश्किल हो जायेगा l   फेसबुक बन गई थीफबुक पर फिर  भी बडे काम की यह चेहरों कि बुक l कमाल तो किया इसने, कई बिछड़ो  को मिलाया है कई को  तो  लिखना तो कुछ को  लिखे  की चोरी करना सिखाया है  जब तह चलती है फेसबुक के गुण गाते जाओ और थीफ बुक  बनाये रखो l 

संजय जोशी 'सजग "

बॉस इज आलवेज राइट [व्यंग्य ]

बॉस इज आलवेज  राइट [व्यंग्य ]
          जहां जहां बॉस है वहां पर टेंशन का डेरा है l बॉस के  नीचे   वाले उदास है और मन के  दास बनकर झूठी मुस्कान फेककर बॉस को मोहित करने का असफल प्रयास करते है  l  यस बॉस  तो करना  ही है   l जिसने  न  किया उसके हाल हमारे जैसे हो जाते है यह व्यथा एक ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ  पदम जी की है l वे बेचारे काम के बोझ से दबे है, क्योंकि   बॉस से उनकी फ्रीक्वेंसी मैच  नहीं होती  है उसके बदले में उन्हें  जो काम कोई नहीं करता या बोरिंग  काम उन्हें सौंपा  जाता है   , जो कम से कम समय  में पूरा  करना होता है l क्योंकि  बॉस की गुड लिस्ट में वो नहीं है l वे  ऑफिस  का तनाव  लेकर घर जाते है  ,और घर वालो पर निकालते है और फिर घर वालों का तनाव ऑफिस में l या यूँ  कहे कि न घर के और न घाट के ,वे मारे है अपने बॉस के l  

          बॉस हर जगह पाया जाता है आफिस में बॉस ,अखाड़े में उस्ताद ,घर का बॉस बीबी ,नेतागिरी में भी आजकल बॉस ही चलता है,गैंग के मुखिया को बॉस कहते है l  सब जगह बॉस नाम का  इतना खौफ  है की  नीद में भी बॉस की याद आ जाये तो रात कई रातों  के बराबर  लगने लगती है l 

                हम मित्रों ने  कई बार पदम जी को   समझाया कि  आप भी  इसे अपने अंतर्मन में उतार लें , यह एक प्रसिद्ध उक्ति है कि    "बॉस इज आलवेज राइट "  l इसका  रहस्य जो जान गया है ,वह  सुकून में है उसकी चारो ऊँगली घी  में और  सर कढ़ाही  में है l यह वह  ब्रह्म ज्ञान है ,जिसकी  पूंछ पकड़ कर अपना उल्लू सीधा करना बहुत आसान हो जाता है l हर युग में  "बॉस इज आलवेज राइट " ही रहा जिसने गलत कहा वह ,अपमान और शोषण का पर्याय बन गया  l   वे कहने  लगे  कि  बॉस इज आलवेज  राइट मानना हर किसी की फितरत में नहीं होता है , और यदि मान भी लिया जाय तो  आत्मा कचोटती है l यही तो समस्या है हमारे देश की  बॉस  के ऊपर बॉस ,सब अपने बॉस से दुखी ,क्यों ?यह एक जटिल प्रश्न है ?बॉस भी कभी हम जैसा था पर सब भूल जाता है ऐसा क्यों होता है ? बॉस बनते ही वह अपने आप को  महाज्ञानी ,  लकीर  का फकीर   हो जाता है l हर बॉस की यही कहानी l  बॉस की परफार्मेंस को  हम  जैसा सबार्डिनेट ही अच्छा करवाता है l 
                    वे आगे कहने लगे कि आप लोगों   की बात  "बॉस इज आलवेज राइट "  को आत्मसात  कर  भी लूँ पर  वो नहीं कर सकता  बॉस अंदर से चाहता है -  सभी  गाये  बॉस चालीसा ,आस करें हमसे  सब गलत नहीं साखी गौरीसा l,बॉस इज आलवेज़ राइट ये ही रूल हर दम जतलाये ,काम की फिकर  का जिकर दिखलाये ,सुनकर गाली मन ही  मन मुस्काय  चमचे की तरह ,करे  न काम फिर भी  व्यस्तता दिखाये ,हर मीटिंग में बस  चाय और नाश्ते का रखे  ध्यान ,यस सर करके बात करें   जो बॉस हंसे तो हँसे  ,  हमसे ये सब नहीं हो पाता है इसलिए बॉस हम पर कुढ़ता है और  "बॉस इज आलवेज राइट " कहने वाला हम पर हसंता है और हम मुँह छुपा कर रोता  है l 

 उनकी हौसला अफजाई कर   कहा उन्हें बॉस की हर बात गलत नहीं मानना चाहिए  क्योकि बॉस भी एक इंसान है उसकी भी कुछ मजबूरिया होगी जो उसे इस स्तर पर ला देती है l वह  भी उसके बॉस से इतना ही दुखी होगा जितना आप अपने बॉस से  l 


संजय जोशी 'सजग '

आत्ममुग्धता का दीवानापन [व्यंग्य ]

आत्ममुग्धता  का दीवानापन [व्यंग्य ]       

                        आत्मुग्धता मनुष्य  की प्रजाति के एक  प्रमुख गुण  के साथ वरदान भी हैं  l  यह गुण सभी में पाया जाता है,मात्रा कम या ज्यादा हो सकती है ,पर इससे अछूता  कोई नही हैl  राजा, महाराजा भी इसके कायल थे और आज के नेता भी है l राजकवि इस गुण को बढ़ाने में उत्प्रेरक थे , आज भी है  l रावण और दुर्योधन इस अतिरेक के प्रमुख पात्र  रहे है समय के साथ तरीके बदलते गए और यह गुण कब एक शौक में तब्दील हो गया ? सोशल मीडिया बनाम आत्ममुग्धता प्रदर्शित करने की साइट्स हो गई है l अपना गुण ज्ञान स्वयं करो और आत्ममुग्ध होकर  फूल क्र कुप्पा हो जाओ lमालवी बोली  में इसे कहते है खूब" पोमई " रियो है l  इस प्रक्रिया  में खड़ूस का चेहरा भी खिल जाता है ,इस थेरेपी से यही लाभ दिखता है l ईश्वर भी धन्यवाद देता होगा कि  अच्छा किया एक खड़ूस को खुश कर  नेक काम किया l 
                                 हम बहुआयामी संस्कृती के धनी है l  हम हर वस्तु और साधन  के  गहन दोहन करने में विश्वास करते है ,और जहां दिमाग लगाना चाहिये  वहां नही लगाते l क्योकि हम जुगाड़ में विश्वास करते है l  सीधे सच्चे काम में भी जुगाड ढूंढ कर पोमाने का अवसर तलाशते है और चाहते है कि  हमारी  हर कोई  हमारी तारीफ करे ,चाहे झूठी  ही सही l इस क्रिया से सीने  का नाप थोड़ी देर के लिये तो बढ़ ही जाता है और गर्दन भी  कड़क हो ही जाती है l 
         आत्ममुग्धता  का  दीवानापन  कहे  या इसे  रोग  कहें   समझ नहीं आता है  हमारे मोहल्ले  के बड़कू भिया   बहुत त्रस्त  है कि  फेसबुक और वाट्सअप  के आपरेटर ऐसे ऐसे चित्रों को  चेपते है की पहले उन विषयो पर चर्चा करने से जी चुराते थे  अब उन्हें  इस क्रिया में ही रस आता है और मन ही मन पोमाता  है और   आभासी मित्रों से ढेरो लाइक पाने की जुगत लगाता है l बच्चे युवा के अलावा महिला और  सीनियर सिटीजन भी इस प्रयोजन में आहुति बराबर दे रहे है l आज सीनियर सिटीजन ने अपनी फोटो उपलोड की जिसमे वे सारे घर के चप्पल पर जूते पालिश करते  मद मस्त हो रहे थे और सैंकड़ो लाइक पाकर गद -गद होकर  कमेन्ट पर कमेन्ट कर  रहे थे l तब लगा की इस क्रिया में एक पन्थ दो काज हो जाते है  आत्ममुग्धता के साथ  समय भी कट  ही  जाता है l  टीटीपीयों - का यह प्रमुख केंद्र है l टीटीपी [ttp]  याने  टोटल टाइम पास बनाम  सोशल मीडिया हो गए है अपवाद स्वरूप इनमें  कुछ कभी कभी रचनात्मकता का अहसास  भी कराते रहते है l 

                बड़कू  भिया  का कहना  है कि  फोटो चेपने के बाद का आनन्द कुछ और ही होता है कुछ सकारात्मक और नकारात्मक  सोचकर अपने विचार रखते है कुछ  तो सिर्फ  लाइक करने के नशे में ही चूर होते है और फेसबुक के अंधे की तरह केवल लाइक ही दि खता है और इतनी जल्दी में रहते है की बिना पढ़े लाइक ठोंकना उनकी आदत सी बन गई है  मौत  और गम  को भी लाइक कर अपने सोश्यल होने का धर्म निभाते है l पालतू पशु -पक्षी भी सोश्यल मिडिया की शान हो गए है l दो पाये के साथ  चौपायेभी इठलाने लगे है l सेल्फी  की खुमारी ने तो हद ही कर  दी है शवयात्रा में अर्थी के  साथ सेल्फी लेना और सोशल मिडिया पर अपलोड कर सामाजिकता का भोड़ा प्रदर्शन जोरो पर है l जो  कई प्रश्नों जन्म देता है -कि ऐसे फोटो डालने  की क्या मजबूरी है ?क्या  यह एक मानसिक रोग है ? संवेदन -हीनता  है या मजाक ?दिखावा  है या पोस्ट चेपने की  लत ?  दर्शन  
 करते समय ईश्वर की और  ध्यान कम ओर फोटो सेल्फी  लेने मे ज़्यादा l कुछ लोगो का  सृजन सिर्फ फोटो चेपना  ही एक मेव ध्येय  है उनको लगता  यह है यह इसी लिए है l फोटो चेपने वाले शाणपत  में कभी - कंभी  .हंसी के पात्र भी बन जाते है l पर करे तो क्या करे पोमाने   के लिए कुछ तो चाहिए l चितन और मंथन इसी में लगा रहता है कई बेरोजगारों की फ़ौज सोश्यल  मिडिया पर  अपनी आत्मुग्धता पर मुग्ध हैl बॉस  और नेता  को इसकी लत ज्यादा ही होती  है इसलिुए  उनके  गुणों का बखान कर  काम निकलवाने  के लिए इसे  ब्रह्मास्त्र की तरह प्रयोग किया  जाता है l कुछ बॉस इतने  पोमा जाते है कि ध्रतराष्ट्र  की तरह  अंधे हो जाते है , सम्पट भूल जाते है  बॉस को चने के झाड़ पर  चढ़ाने वाले अधीनस्थ  लम्बी छुट्टी आसानी से  ले लेते है वे  चमचे स्वरूपा  होते है l  भिया कहने लगे यह कथा अनंता हैl और जोर से बोलने लगे जब  तक सूरज चाँद रहेगा  और  मनुष्य  का जीवन  रहेगा  आत्ममुग्धता तेरा कमाल  चलता रहेगा l परन्तु यक्ष प्रश्न है कि पोमाना एक प्रवृति है या मानसिक बीमारी ?आओ  इसका पता लगायें l 

संजय जोशी " सजग "

विधानसभा में भूत [व्यंग्य ]

विधानसभा में भूत  [व्यंग्य ]
.                        विधानसभा  में भूत की चर्चा  जोरों  पर है l   भूत  पर एक संत  का चिंतन  पढ़ने  में आया।  संत ने अनुसार  भूत वो है जो भूतकाल का शोक करे। सत्ता से हटने के बाद नेता भी भूत का चाव नहीं छोड़ते और अपने नाम के साथ भूतपूर्व प्रधान, भूतपूर्व विधायक लिखते हैं। उन्होंने संदेश दिया कि भूत को भूलो और आज का आनंद करो। लोग मसान के भूतों से डरते हैं। जीवित व्यक्ति से डरो। जो मर गया वो तो देवता बन गया। तुम भूत, मैं महाभूत और हमारा नाथ भूतनाथ शिव। मैने भी मंथन किया इस बात पर भूतनाथ तो भोले भी है सब पर कृपा करते है फिर भी लोगो को भूत से डर  क्यों लगता है ? बेताल बर्षों से राजा विक्रमादित्य को अपनी चतुराई से मात देता आ रहा था  और उसकी बुद्धि को धता  बताकर मज़े में पेड़ पर उल्टा लटका रहता था. पर राजा विक्रम ने एक बार विजय पा ही ली l वैसे ही जनता के कंधो पर लटके सफेद पोश बेतालों से मुक्ति पाने का समय चुनाव के समय ही आता है और तब जो  कर्महीन हो  भूतपूर्व हो जाता है यही  भय का भूत इस सोच की और ले जाता है कहते है विधानसभा में भूत का साया है l  

         " खाली दिमाग भूत  का घर "   लगता है कि शायद  भूतपूर्व होने का डर सता  रहा होगा ?या पुराने  भूतपूर्वो   का खौफ  नजर आ रहा होगा ? ये तो वो ही जाने कि  भूत का मुद्दा  उठाकर  खुद  डर  रहा है  या दूसरों  को  डराने का कोई अभियान  है l भूत  से डरे वो   नेता ही क्या  ? अंतिम सत्य तो भूतपूर्व ही है कभी न कभी होना है न पद ,न कुर्सी अमर है, अमर  तो  सिर्फ कर्म है जैसा कर्म वैसा फल l अच्छे कर्म करने वाले भूतपूर्व ही अभूतपूर्व  होते है l 

हमारी शिक्षा में " मैकाले का भूत’" विद्यमान  है l   शिक्षा  को   आज भी   इस भूत  की  जकड़न से मुक्त नहीं पाये  पर विधानसभा  के काल्पनिक  भूत   की चर्चा में  पक्ष और विपक्ष दोनों ही लगे हुए है l एक वास्तु के भूत  ने तो विधानसभा  और पार्टियों के   कार्यालय ,नेताओं   की कुर्सी की दिशा और दशा  ही बदलवा दी l भूत  कहीं  है  तो मनुष्य के  मन और मस्तिक में रचा बसा है l भूत और भूतकाल से डरना  मानव की प्रवृति है पर नेता तो अपने आप को मानव नहीं  महामानव मानते  है l 
                  जो भगवान से नहीं डरते वे भूतो से क्या  डरेंगे यह  सिर्फ चर्चा में रहने और जनसमस्याओं  का रुख बदलने की एक कला भर है l जिन्दादिलों  की भावनाओं  पर ताण्डव करने वाले भूतो से डरते नहीं ,डराने का  माहौल बनाते है l विधानसभा में भूत  होते तो ,दिन में भूतपूर्व होने वाले नेता और रात में भूत की विधानसभा चलती होती l भूत भरम  है भूत वहम है l भूतनाथ भोले ही " न भूतों  न भविष्यति " है अत :भूत को भूलो ,जो काम भूले उनको  याद करो और  उन्हें करो  तो भूत  कभी याद  नहीं  आएगा ,और हाँ कभी सतायेगा  भी नहीं   l 
  
संजय जोशी " सजग "