रस बरसे [व्यंग्य ]
संजय जोशी 'सजग '
७८ गुलमोहर कालोनी रतलाम [मप्र]
09300115151
हर मौसम कि अपनी विशेषता होती है सब मौसम का रस अलग -अलग होता है गर्मी का
मौसम आते ही गन्ने को पेल कर रस निकालने की मशीन रोड और चौराहे पर
इठलाती है और मौन होकर रस पान का निवेदन करने की अनुभूति देती है आजकल इस
रस के साथ न जाने कौन कौन से रस जुड़ गए ,चुनावी रस का अपना अलग ही मजा
है,,वोट लेने कि जुगत में रस निकलने कि मशीन कि भाँति हाथ जोड़कर वोट
निकालने के लिए क्या क्या जतन करने पड़ते है वो तो वहीं जाने …?
नव रस के अलावा और भी कई रस है इसमे एक रस बनारस है
जिसने
राजनीति में ऐसा रस घोल दिया कि सब के सब उसी में लगे हुए है नेता ,जनता
,मीडिया , संत और बाबा भी l यह एक ऐसा रस है जिसमे सब को अपने -अपने
मुताबिक रस आ रहा है ,किसी को नारे से ,तो किसी को पोस्टर जंग में ,कोई
काले झंडे ,अंडे और स्याही की चर्चा के रसपान में मस्त और व्यस्त है l
सोशल मिडिया भी चुनाव में रसीली हो गई है हर कोई
विश्लेषक ,रायचंद और अपने विचार को जबरन थोपने के काम में जुटा है , तो
कुछ तो अपनी पहचान छुपाकर धड़ल्ले से फोटो और कार्टून टैग -पर टैग कर रहे
है कितने पेज और ग्रुप चुनावी मिठास और कड़वाहट का रस पीने को मजबूर कर रहे
है l
रस के इस रस भरे मौसम में आम
जन भी राजनीति के रस का पान कर अपनी जागरूकता को दिखाने की भरसक नौटंकी
करता है नेता तो रसपान में मजा लेते है और जनता बेचारी कड़वे घूंट पीकर
यह तमाशा देखने को मजबूर है चुनाव का आगाज होते ही राजनीति में और कई रस
का प्रादुर्भाव हो जाता है जो सामयिक होता है मान्यता प्राप्त नव रस के
साथ जिसमें कुछ और रस जैसे बत रस ,निंदा रस और चिंता रस का प्रदर्शन
कर सूखे हुए नींबू से रस निकलने का प्रयास करते है उसी प्रकार अभावो से
जूझती ,महंगाई कि मार से त्रस्त आर्थिक असमानता ,जातिवाद ,भाषावाद
,क्षेत्रवाद से गसित और हताश जनता को अपने -अपने पक्ष में मत देने के
लिए एड़ी चोंटी का जोर लगाते है उन्हें तो जीतने के बाद सब रस का आनंद जो
लेना है रस पान में इतने मशगूल हैं कि आपनी नैतिकता और सिंद्धांत को मिलों
पीछे छोड़
रहे है l
रहे है l
आम का मौसम भी आने की कगार पर है और
चुनाव में आम की पूछ परख बढ़ना लाजमी है ये ही समय होता है कि आम के
ख्वाब पुरे शबाब पर होते है आम करे तो भी क्या करें कच्चे की चटनी और
पके का रस निकाला जाता है और वही स्थिति आमजन की भी है देश कि प्रगति
का दावा करने वाले केवल लोकल ट्रेन मे ही यात्र कर लें तो पूरे देश कि
आर्थिक व सामाजिक समस्या से रूबरू हुआ जा सकता है पर किसे क्या करना है
बस चुनाव जीतने में ही रस है बाकी सब फुस्स है l
रस पान कि परम्परा प्राचीन काल से
चली आ रही है पर भोले ने तो विष पान किया था जो कि आज हम सब के नसीब में
है किसी न किसी रूप में रोज इसका पान करना ही पड़ता है और चुनाव में ऐसा
रस बरसे हैं कि सब का जिया हरषे और नेता एक -एक वोट के लिए तरसे और
चुनावी रस में मिडिया मसाले का काम करता है कि कही नीरस न हो जाए पूरी
कोशिश रहती है l जीतने वाला जीत कर सरस होता है आम जन को फिर नीरस होकर
फिर पांच वर्षो का सफर तय करना पड़ता है l
संजय जोशी 'सजग '
७८ गुलमोहर कालोनी रतलाम [मप्र]
09300115151
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