बागी और दागी
बागी और दागी राजनीति की शब्दावली में महत्वपूर्ण शब्द है दोनों ने राजनीति को अभिशप्त कर रखा है यूँ तो दोनों शब्द बहुत छोटे है पर बड़े खोटे है राजनीति को दागी से मुक्त करना नामुमकिन लगता था पर जागृति आई और दागियो वाले अध्यादेश पर भूचाल आया था तब, सबने अपनी -अपनी रोटियां सेकी..कुछ की जली कुछ की कच्ची रही सबने खाई ..कुछ को हजम हुई और कुछ को अजीर्ण हुआ ये तो वो ही जाने ..दृश्य मिडिया ने खूब झिलाया और पकाया ,तिल का ताड बनया .....इससे लगता है की दागियो से मुक्त होने का समय आ गया पर इतने दागी है कि ...क्या इससे मुक्ति सही अर्थो में सम्भव है ...? राजनीति का चेहरा धवल होगा ?ऐसे कई प्रश्न है जिनका उतर मिलेगा या नही .संदिग्ध लगता है ...पर ठीक है देर से सही पर दुरूस्त हो ...Iबागी भी एक बहुत बड़ी राजनितिक समस्या है जिसने अपने पैर मजबूती से जमा लिए है ..बागी होना नैतिक अधिकार है इससे कौन रोक सकता है ...दागी जैसी जागृति ....बागी तक आने में २१ वी सदी भी बीत जाये ...तो आश्चर्य नही होगा .......I
बागी हर दल और हर उम्मीदवार के लिए खतरे की घंटी बन जाता है और उसका खौफ अंतिम दिन तक राजनीति में मंडराता रहता है अपने दल से बगावत कर बागी होना याने न घर का न घाट का रहना है .फिर भी बागी ..बनते है यह उनके लिए जरूरी भी है या समर्थक भी बागी बनने को मजबूर कर देते है और .चने के झाड पर चढ़ाने वाले समाज में बहुतायत पाये जाते येवो ही लोग होते है जो एक बार चढाने.के बाद .गिरने का .मजा लेते है .यह उनकी आदत में शुमार है ..I....
एक बागी लाल जी से आमना सामना हो गया मैंने कहा की आपने क्यों बगावत कर दी ..आपका नाम .पद और रुतबा भी बहुत था ..अचानक ..मोह भंग क्यों हो गया ...वह द्रवित होकर बोले .पूरी जिन्दगी खपा दी ....मेने पार्टी के लिए क्या नही किया सब धरारह गया ..सारे अरमानो पर पानी फेर दिया ..अब हमारे दल में अच्छे और समर्पित लोगो केलिए कोई सोचने वाला बचा ही नही , किसने क्या किया .किसकी छवि केसी है
पार्टी ..के लिए सीट बाँटने वालो को क्या मालूम ,भाई भतीजावाद .ही ..चलता रहेगा तो बगावत का सिलसिला यूँही चलता रहेगा ...अब मेरे सब्र की सीमा नही बची और "सत्याग्रह "पिक्चर के गाने को आदर्श मानते हुए ...सहते -जाओ -सहते जाओ ..इतना भी धीरज मत देना भगवान और यह ...कदम उठाकर ..पार्टी के उम्मीदवार के विरुद्ध पर्चा भरा और ताकि हम ..हमारी ..ताकत का अहसास करा सके .हम भी किसी से कम नही ....सामने वाले में दम नही ....हमारे बचपन का भूत जाग गया ....जब छोटे थे ...खेलते समय अक्सर हम एक दूसरे को बोला करते थे की ..खेलेगें नही तो खेल बिगाड़ेगे..वोही दिन अब देखना पड़ रहे है आत्म विश्वास के साथ उनकी बात निरंतर जारी थी , हम ही जीतने वाले है ..देखो कैसे पसीना लाते है जनता की नब्ज तो मैं जानता हूँ क्योकि जमीन से जुड़ा हूँ मैंने कहा भाई आजकल ..तो हवा में उड़ने वालो का जमाना है .मेरी बात काटते बोले मेरे केस में उल्टा होगा .जमीनी..हकीकत जानने में उन्हें छटी का दूध याद आ जायेगा .जनता और कार्यकर्ता में पकड़ तो मेरी है .अभी तक पार्टी में था अब नही हूँ...सब मेरे साथ है .मेने कहा दादा लोग पार्टी का साथ देते है व्यक्तिगत का नही तेष में आकर कहने लगे ..मेरे साथ जो धोखा करेगे एक -एक से निपट लूगाँ...मेने मन ही मन सोचा बहुत मुगालते में है क्या करे मुगालते में रहना हर मनुष्य की छुपी हुई ताकत है इसी के सहारे ..अपने सपने बुनता है .जेसे सोने की खोज की लिए सपने देखे कोई ओर और उसे पूरा करने की लिए उकसाने वालो की कमी नही है ...सपने .लालसा ..अहम आत्मस्वाभिमान ,बदले की भावना ...ऐसे कई कारक है बागी बनाने के लिए जब तक समाज और व्यक्ति में ये गुण मौजूद रहेगे ..भगवान भी ...बागी होने से नही रोक सकते तो बेचारी..पार्टी .की क्या ताकत हर चुनाव में ऐसा होता है ..ऐसा हो रहा है और होता रहेगा .बागी .एक ऐसा समझदार किन्तु खूंखार जन्तु है जो दीमक की तरह काम करता है .लोकतंत्र और राजनीति दोनों कोही खोखला करता है यह ऊँचे आदर्श और आत्म सम्मान का पक्ष धर होता है .यह गिरगिट की तरह ..रंग बदलने में माहिर होता है I
बागी ....किसी भी पार्टी का बाग़ उजाड़ने की क्षमता से परिपूर्ण होता
हर दल में एसा ही दलदल ...बागी ही बाग़ लगाने वाला भी होता है .उस बाग़ को सीचता है उसकी सुरक्षा करता है ...जब फल लगने का समय आता है ..तो उसे फल नही मिलता ...उसी प्रकार राजनीति में बागी ....एक समस्या नही ..पर दबी आवाज को मुखर करने की कोशिश और बगावत .उसके लिए बागी का सेहरा बाँध देती है समय करवट लेता है ..बागियों की संख्या में इजाफा हो रहा है अगर बागी ..अपना दल बनाये तो बागी पार्टी ..[अ]...[आ.]...[.ई.]...तो भी ..कम पड़ेगी .बागी की संख्या में निरंतर वृद्धि बड़ते असंतोष के ग्राफ़ को रेखाकित करता है राजनीति में यह गम्भीर घाव बन गया है I.
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बागी होना राजनीतिक महत्वकांक्षा को दर्शाता है बागी के तेवर धीरे-धीरे ..बोगी होने लगते है फिरभी घर का भेदु लंका ढहाने की क्षमता रखता है मतलब आने पर .."गरल सुधा रिपु करही मीताई"याने रजनीति में दो विरोधी स्वभाव वालो का मिलन भी हो जाता है और बागी क भूत का डर चुनाव के परिणाम तक पीछा नही छोड़ता.एक बागी एक राजनीतक समस्या है जिसका समाधान .कठिन है .I...
बागी बनकर कोई अपना प्रभाव बचाता है या खोता है या अपना अस्तित्व मिटाता है समय लिखेगा इसकी गाथा ,कथा और व्यथा लेकिन .बिन बागी राजनीति सूनी-सूनी लगती है I
बन बागी दिखाता या खोता अपना प्रभाव ..बचता /मिटता अस्तित्व .....यह तो
समय.लिखेगा उसकी गाथा ...कथा और व्यथा..I..बिन बागी राजनीति सुनी लगती है I
नोट - यह मेरी मोलिक एवम अप्रकाशित रचना है ...कृपया स्थान देकर प्रोत्साहित
करे ..आभार और धन्यवाद
संजय जोशी 'सजग "
७८,गुलमोहर कालोनी रतलाम [म.प्र]
०९८२७०७९७३७
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